sona hirni

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सससस ससससस ममममममम ममममम

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Page 1: Sona hirni

सोना हि�रनी महादेवी वमा

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सोना की आज अचानक स्मृति� हो आने का कारण है। मेरे परिरचिच� स्वर्गी य डाक्टर धीरेन्द्र नाथ वसु की पौत्री सस्मिस्म�ा ने चि-खा है :'र्गी� वर्ष अपने पड़ोसी से मुझे एक तिहरन मिम-ा था। बी�े कुछ महीनों में हम उससे बहु� स्नेह करने -रे्गी हैं। परन्�ु अब मैं अनुभव कर�ी हँू तिक सघन जंर्गी- से सम्बद्ध रहने के कारण �था अब बडे़ हो जाने के कारण उसे घूमने के चि-ए अमिधक तिवस्�ृ� स्थान चातिहए।'क्या कृपा करके उसे स्वीकार करेंर्गीी? सचमुच मैं आपकी बहु� आभारी हँूर्गीी, क्योंतिक आप जान�ी हैं, मैं उसे ऐसे व्यचिF को नहीं देना चाह�ी, जो उससे बुरा व्यवहार करे। मेरा तिवश्वास है, आपके यहाँ उसकी भ-ी भाँति� देखभा- हो सकेर्गीी।'कई वर्ष पूव मैंने तिनश्चय तिकया तिक अब तिहरन नहीं पा-ँूर्गीी, परन्�ु आज उस तिनयम को भंर्गी तिकए तिबना इस कोम--प्राण जीव की रक्षा सम्भव नहीं है।सोना भी इसी प्रकार अचानक आई थी, परन्�ु वह �ब �क अपनी शैशवावस्था भी पार नहीं कर सकी थी। सुनहरे रंर्गी के रेशमी -च्छों की र्गीाँठ के समान उसका कोम- -घु शरीर था। छोटा-सा मँुह और बड़ी-बड़ी पानीदार आँखें। देख�ी थी �ो -र्गी�ा था तिक अभी छ-क पड़ेंर्गीी। उनमें प्रसुप्� र्गीति� की तिबज-ी की -हर आँखों में कौंध जा�ी थी।.

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सब उसके सर- चिशशु रूप से इ�ने प्रभातिव� हुए तिक तिकसी चम्पकवणा रूपसी के उपयुF सोना, सुवणा, स्वण-ेखा आदिद नाम उसका परिरचय बन र्गीए।परन्�ु उस बेचारे हरिरण-शावक की कथा �ो मिमट्टी की ऐसी व्यथा कथा है, जिजसे मनुष्य तिनषु्ठर�ा र्गीढ़�ी है। वह न तिकसी दु-भ खान के अमूल्य हीरे की कथा है और न अथाह समुद्र के महाघ मो�ी की।तिनज व वस्�ुओं से मनुष्य अपने शरीर का प्रसाधन मात्र कर�ा है, अ�: उनकी स्थिस्थति� में परिरव�न के अति�रिरF कुछ कथनीय नहीं रह�ा। परन्�ु सजीव से उसे शरीर या अहंकार का जैसा पोर्षण अभीष्ट है, उसमें जीवन-मृत्यु का संघर्ष ह,ै जो सारी जीवनकथा का �त्व है।जिजन्होंने हरीति�मा में -हरा�े हुए मैदान पर छ-ाँर्गीें भर�े हुए तिहरनों के झंुड को देखा होर्गीा, वही उस अद्भ�ु, र्गीति�शी- सौन्दय की कल्पना कर सक�ा है। मानो �र- मरक� के समुद्र में सुनह-े फेनवा-ी -हरों का उदे्व-न हो। परन्�ु जीवन के इस च- सौन्दय के प्रति� चिशकारी का आकर्षण नहीं रह�ा।मैं प्राय: सोच�ी हँू तिक मनुष्य जीवन की ऐसी सुन्दर ऊजा को तिनष्क्रिष्jय और जड़ बनाने के काय को मनोरंजन कैसे कह�ा है।मनुष्य मृत्यु को असुन्दर ही नहीं, अपतिवत्र भी मान�ा है। उसके तिप्रय�म आत्मीय जन का शव भी उसके तिनकट अपतिवत्र, अस्पृश्य �था भयजनक हो उठ�ा है। जब मृत्यु इ�नी अपतिवत्र और असुन्दर है, �ब उसे बाँट�े घूमना क्यों अपतिवत्र और असुन्दर काय नहीं है, यह मैं समझ नहीं पा�ी।आकाश में रंर्गीतिबरंर्गीे फू-ों की घटाओं के समान उड़�े हुए और वीणा, वंशी, मुरज, ज-�रंर्गी आदिद का वृन्दवादन (आकm स्ट्रा) बजा�े हुए पक्षी तिक�ने सुन्दर जान पड़�े हैं। मनुष्य ने बन्दूक उठाई, तिनशाना साधा और कई र्गीा�े-उड़�े पक्षी धर�ी पर ढे-े के समान आ तिर्गीरे। तिकसी की -ा--पी-ी चोंचवा-ी र्गीदन टूट र्गीई है, तिकसी के पी-े सुन्दर पंजे टेढे़ हो र्गीए हैं और तिकसी के इन्द्रधनुर्षी पंख तिबखर र्गीए हैं। क्ष�तिवक्ष� रFस्ना� उन मृ�-अधमृ� -घु र्गीा�ों में न अब संर्गीी� है; न सौन्दय, परन्�ु �ब भी मारनेवा-ा अपनी सफ-�ा पर नाच उठ�ा है।

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• पक्षिक्षजर्गी� में ही नही, पशुजर्गी� में भी मनुष्य की ध्वंस-ी-ा ऐसी ही तिनषु्ठर है। पशुजर्गी� में तिहरन जैसा तिनरीह और सुन्दर पशु नहीं है - उसकी आँखें �ो मानो करुणा की चिचत्रचि-तिप हैं। परन्�ु इसका भी र्गीति�मय, सजीव सौन्दय मनुष्य का मनोरंजन करने में असमथ है। मानव को, जो जीवन का शे्रष्ठ�म रूप है, जीवन के अन्य रूपों के प्रति� इ�नी तिव�ृष्णा और तिवरचिF और मृत्यु के प्रति� इ�ना मोह और इ�ना आकर्षण क्यों?

• बेचारी सोना भी मनुष्य की इसी तिनषु्ठर मनोरंजनतिप्रय�ा के कारण अपने अरण्य-परिरवेश और स्वजाति� से दूर मानव समाज में आ पड़ी थी।

• प्रशान्� वनस्थ-ी में जब अ-स भाव से रोमन्थन कर�ा हुआ मृर्गी समूह चिशकारिरयों की आहट से चौंककर भार्गीा, �ब सोना की माँ सद्य:प्रसू�ा होने के कारण भार्गीने में असमथ रही। सद्य:जा� मृर्गीचिशशु �ो भार्गी नहीं सक�ा था, अ�: मृर्गीी माँ ने अपनी सन्�ान को अपने शरीर की ओट में सुरक्षिक्ष� रखने के प्रयास में प्राण दिदए।

• प�ा नहीं, दया के कारण या कौ�ुकतिप्रय�ा के कारण चिशकारी मृ� तिहरनी के साथ उसके रF से सने और ठंडे स्�नों से चिचपटे हुए शावक को जीतिव� उठा -ाए। उनमें से तिकसी के परिरवार की सदय र्गीृतिहणी और बच्चों ने उसे पानी मिम-ा दूध तिप-ा-तिप-ाकर दो-चार दिदन जीतिव� रखा।

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• सुस्मिस्म�ा वसु के समान ही तिकसी बाचि-का को मेरा स्मरण हो आया और वह उस अनाथ शावक को मुमूर्ष अवस्था में मेरे पास -े आई। शावक अवांचिछ� �ो था ही, उसके बचने की आशा भी धूमिम- थी, परन्�ु मैंने उसे स्वीकार कर चि-या। ष्क्रिस्नग्ध सुनह-े रंर्गी के कारण सब उसे सोना कहने -रे्गी। दूध तिप-ाने की शीशी, ग्-ूकोज, बकरी का दूध आदिद सब कुछ एकत्र करके, उसे पा-ने का कदिठन अनुष्ठान आरम्भ हुआ।

• उसका मुख इ�ना छोटा-सा था तिक उसमें शीशी का तिनप- समा�ा ही नहीं था - उस पर उसे पीना भी नहीं आ�ा था। तिफर धीरे-धीरे उसे पीना ही नहीं, दूध की बो�- पहचानना भी आ र्गीया। आँर्गीन में कूद�े-फाँद�े हुए भी भचिFन को बो�- साफ कर�े देखकर वह दौड़ आ�ी और अपनी �र- चतिक� आँखों से उसे ऐसे देखने -र्गी�ी, मानो वह कोई सजीव मिमत्र हो।

• उसने रा� में मेरे प-ंर्गी के पाये से सटकर बैठना सीख चि-या था, पर वहाँ रं्गीदा न करने की आद� कुछ दिदनों के अभ्यास से पड़ सकी। अँधेरा हो�े ही वह मेरे कमरे में प-ंर्गी के पास आ बैठ�ी और तिफर सवेरा होने पर ही बाहर तिनक-�ी।

• उसका दिदन भर का कायक-ाप भी एक प्रकार से तिनक्षिश्च� था। तिवद्या-य और छात्रावास की तिवद्यार्थिथ}तिनयों के तिनकट पह-े वह कौ�ुक का कारण रही, परन्�ु कुछ दिदन बी� जाने पर वह उनकी ऐसी तिप्रय साचिथन बन र्गीई, जिजसके तिबना उनका तिकसी काम में मन नहीं -र्गी�ा था।

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दूध पीकर और भीर्गीे चने खाकर सोना कुछ देर कम्पाउण्ड में चारों पैरों को सन्�ुचि-� कर चौकड़ी भर�ी। तिफर वह छात्रावास पहुँच�ी और प्रत्येक कमरे का भी�र, बाहर तिनरीक्षण कर�ी। सवेरे छात्रावास में तिवचिचत्र-सी तिjयाशी-�ा रह�ी है - कोई छात्रा हाथ-मुँह धो�ी है, कोई बा-ों में कंघी कर�ी है, कोई साड़ी बद-�ी है, कोई अपनी मेज की सफाई कर�ी है, कोई स्नान करके भीरे्गी कपडे़ सूखने के चि-ए फै-ा�ी है और कोई पूजा कर�ी है। सोना के पहुँच जाने पर इस तिवतिवध कम-संकु-�ा में एक नया काम और जुड़ जा�ा था। कोई छात्रा उसके माथे पर कुमकुम का बड़ा-सा टीका -र्गीा दे�ी, कोई र्गी-े में रिरबन बाँध दे�ी और कोई पूजा के ब�ाशे खिख-ा दे�ी।मेस में उसके पहुँच�े ही छात्राए ँही नहीं, नौकर-चाकर �क दौड़ आ�े और सभी उसे कुछ-न-कुछ खिख-ाने को उ�ाव-े रह�े, परन्�ु उसे तिबस्कुट को छोड़कर कम खाद्य पदाथ पसन्द थे।छात्रावास का जार्गीरण और ज-पान अध्याय समाप्� होने पर वह घास के मैदान में कभी दूब चर�ी और कभी उस पर -ोट�ी रह�ी। मेरे भोजन का समय वह तिकस प्रकार जान -े�ी थी, यह समझने का उपाय नहीं है, परन्�ु वह ठीक उसी समय भी�र आ जा�ी और �ब �क मुझसे सटी खड़ी रह�ी जब �क मेरा खाना समाप्� न हो जा�ा। कुछ चाव-, रोटी आदिद उसका भी प्राप्य रह�ा था, परन्�ु उसे कच्ची सब्जी ही अमिधक भा�ी थी।घंटी बज�े ही वह तिफर प्राथना के मैदान में पहुँच जा�ी और उसके समाप्� होने पर छात्रावास के समान ही कक्षाओं के भी�र-बाहर चक्कर -र्गीाना आरम्भ कर�ी।उसे छोटे बचे्च अमिधक तिप्रय थे, क्योंतिक उनके साथ खे-ने का अमिधक अवकाश रह�ा था। वे पंचिFबद्ध खडे़ होकर सोना-सोना पुकार�े और वह उनके ऊपर से छ्-ाँर्गी -र्गीाकर एक ओर से दूसरी ओर कूद�ी रह�ी। सरकस जैसा खे- कभी घंटों च-�ा, क्योंतिक खे- के घंटों में बच्चों की कक्षा के उपरान्� दूसरी आ�ी रह�ी।

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मेरे प्रति� स्नेह-प्रदशन के उसके कई प्रकार थे। बाहर खड़े होने पर वह सामने या पीछे से छ्-ारँ्गी -र्गीा�ी और मेरे चिसर के ऊपर से दूसरी ओर तिनक- जा�ी। प्राय: देखनेवा-ों को भय हो�ा था तिक उसके पैरों से मेरे चिसर पर चोट न -र्गी जावे, परन्�ु वह पैरों को इस प्रकार चिसकोडे़ रह�ी थी और मेरे चिसर को इ�नी ऊँचाई से -ाँघ�ी थी तिक चोट -र्गीने की कोई सम्भावना ही नहीं रह�ी थी।भी�र आने पर वह मेरे पैरों से अपना शरीर रर्गीड़ने -र्गी�ी। मेरे बैठे रहने पर वह साड़ी का छोर मुँह में भर -े�ी और कभी पीछे चुपचाप खडे़ होकर चोटी ही चबा डा-�ी। डाँटने पर वह अपनी बड़ी र्गीो- और चतिक� आँखों में ऐसी अतिनवचनीय जिजज्ञासा भरकर एकटक देखने -र्गी�ी तिक हँसी आ जा�ी।कतिवरु्गीरु काचि-दास ने अपने नाटक में मृर्गीी-मृर्गी-शावक आदिद को इ�ना महत्व क्यों दिदया है, यह तिहरन पा-ने के उपरान्� ही ज्ञा� हो�ा है।पा-ने पर वह पशु न रहकर ऐसा स्नेही संर्गीी बन जा�ा है, जो मनुष्य के एकान्� शून्य को भर दे�ा है, परन्�ु खीझ उत्पन्न करने वा-ी जिजज्ञासा से उसे बेजिझ- नहीं बना�ा। यदिद मनुष्य दूसरे मनुष्य से केव- नेत्रों से बा� कर सक�ा, �ो बहु�-से तिववाद समाप्� हो जा�े, परन्�ु प्रकृति� को यह अभीष्ट नहीं रहा होर्गीा।सम्भव�: इसी से मनुष्य वाणी द्वारा परस्पर तिकए र्गीए आघा�ों और साथक शब्दभार से अपने प्राणों पर इन भार्षाहीन जीवों की स्नेह �र- दृमिष्ट का चन्दन -ेप -र्गीाकर स्वस्थ और आश्वस्� होना चाह�ा है।सरस्व�ी वाणी से ध्वतिन�-प्रति�ध्वतिन� कण्व के आश्रम में ऋतिर्षयों, ऋतिर्ष-पष्क्रित्नयों, ऋतिर्ष-कुमार-कुमारिरकाओं के साथ मूक अज्ञान मृर्गीों की स्थिस्थति� भी अतिनवाय है। मन्त्रपू� कुदिटयों के द्वार को नीहारकण चाहने वा-े मृर्गी रँुध -े�े हैं। तिवदा -े�ी हुई शकुन्�-ा का रु्गीरुजनों के उपदेश-आशीवाद से बेजिझ- अंच-, उसका अपत्यव� पाचि-� मृर्गीछौना थाम -े�ा है।

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यस्य त्वया व्रणतिवरोपणमिम}डरु्गीदीनां�ै-ं न्यतिर्षच्य� मुखे कुशसूचिचतिवदे्ध।श्यामाकमुमिष्ट परिरवर्धिंध}�को जहाति�सो यं न पुत्रकृ�क: पदवीं मृर्गीस्�े॥

- अक्षिभज्ञानशाकुन्�-म्शकुन्�-ा के प्रश्न करने पर तिक कौन मेरा अंच- खींच रहा है, कण्व कह�े है :कुश के काँटे से जिजसका मुख चिछद जाने पर �ू उसे अच्छा करने के चि-ए हिह}र्गीोट का �े- -र्गीा�ी थी, जिजसे �ूने मुट्ठी भर-भर सावाँ के दानों से पा-ा है, जो �ेरे तिनकट पुत्रव�् है, वही �ेरा मृर्गी �ुझे रोक रहा है।सातिहत्य ही नहीं, -ोकर्गीी�ों की ममस्पर्थिश}�ा में भी मृर्गीों का तिवशेर्ष योर्गीदान रह�ा है।पशु मनुष्य के तिनश्छ- स्नेह से परिरचिच� रह�े हैं, उनकी ऊँची-नीची सामाजिजक स्थिस्थति�यों से नहीं, यह सत्य मुझे सोना से अनायास प्राप्� हो र्गीया।अनेक तिवद्यार्थिथ}तिनयों की भारी-भरकम रु्गीरूजी से सोना को क्या -ेना-देना था। वह �ो उस दृमिष्ट को पहचान�ी थी, जिजसमें उसके चि-ए स्नेह छ-क�ा था और उन हाथों को जान�ी थी, जिजन्होंने यत्नपूवक दूध की बो�- उसके मुख से -र्गीाई थी।यदिद सोना को अपने स्नेह की अक्षिभव्यचिF के चि-ए मेरे चिसर के ऊपर से कूदना आवश्यक -रे्गीर्गीा �ो वह कूदेर्गीी ही। मेरी तिकसी अन्य परिरस्थिस्थति� से प्रभातिव� होना, उसके चि-ए सम्भव ही नहीं था।कुत्ता स्वामी और सेवक का अन्�र जान�ा है और स्वामी की स्नेह या jोध की प्रत्येक मुद्रा से परिरचिच� रह�ा है। स्नेह से बु-ाने पर वह र्गीदर्गीद होकर तिनकट आ जा�ा है और jोध कर�े ही सभी� और दयनीय बनकर दुबक जा�ा है।

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• पर तिहरन यह अन्�र नहीं जान�ा, अ�: उसका अपने पा-नेवा-े से डरना कदिठन है। यदिद उस पर jोध तिकया जावे �ो वह अपनी चतिक� आँखों में और अमिधक तिवस्मय भरकर पा-नेवा-े की दृमिष्ट से दृमिष्ट मिम-ाकर खड़ा रहेर्गीा - मानो पूछ�ा हो, क्या यह उचिच� है? वह केव- स्नेह पहचान�ा है, जिजसकी स्वीकृति� ज�ाने के चि-ए उसकी तिवशेर्ष चेष्टाए ँहैं।

• मेरी तिबल्-ी र्गीोधू-ी, कुत्ते हेमन्�-वसन्�, कुत्ती फ्-ोरा सब पह-े इस नए अति�चिथ को देखकर रुष्ट हुए, परन्�ु सोना ने थोडे़ ही दिदनों में सबसे सख्य स्थातिप� कर चि-या। तिफर �ो वह घास पर -ेट जा�ी और कुत्ते-तिबल्-ी उस पर उछ-�े-कूद�े रह�े। कोई उसके कान खींच�ा, कोई पैर और जब वे इस खे- में �न्मय हो जा�े, �ब वह अचानक चौकड़ी भरकर भार्गी�ी और वे तिर्गीर�े-पड़�े उसके पीछे दौड़ -र्गीा�े।

• वर्ष भर का समय बी� जाने पर सोना हरिरण शावक से हरिरणी में परिरवर्ति�}� होने -र्गीी। उसके शरीर के पी�ाभ रोयें �ाम्रवण झ-क देने -र्गीे। टाँर्गीें अमिधक सुडौ- और खुरों के का-ेपन में चमक आ र्गीई। ग्रीवा अमिधक बंतिकम और -ची-ी हो र्गीई। पीठ में भराव वा-ा उ�ार-चढ़ाव और ष्क्रिस्नग्ध�ा दिदखाई देने -र्गीी। परन्�ु सबसे अमिधक तिवशेर्ष�ा �ो उसकी आँखों और दृमिष्ट में मिम-�ी थी। आँखों के चारों ओर खिख}ची कज्ज- कोर में नी-े र्गीो-क और दृमिष्ट ऐसी -र्गी�ी थी, मानो नी-म के बल्बों में उज-ी तिवदु्य� का सु्फरण हो।

• सम्भव�: अब उसमें वन �था स्वजाति� का स्मृति�-संस्कार जार्गीने -र्गीा था। प्राय: सूने मैदान में वह र्गीदन ऊँची करके तिकसी की आहट की प्र�ीक्षा में खड़ी रह�ी। वासन्�ी हवा बहने पर यह मूक प्र�ीक्षा और अमिधक मार्मिम}क हो उठ�ी। शैशव के साचिथयों और उनकी उछ्--कूद से अब उसका पह-े जैसा मनोरंजन नहीं हो�ा था, अ�: उसकी प्र�ीक्षा के क्षण अमिधक हो�े जा�े थे।

• इसी बीच फ्-ोरा ने भचिFन की कुछ अँधेरी कोठरी के एकान्� कोने में चार बच्चों को जन्म दिदया और वह खे- के संतिर्गीयों को भू- कर अपनी नवीन सृमिष्ट के संरक्षण में व्यस्� हो र्गीई। एक-दो दिदन सोना अपनी सखी को खोज�ी रही, तिफर उसे इ�ने -घु जीवों से मिघरा देख कर उसकी स्वाभातिवक चतिक� दृमिष्ट र्गीम्भीर तिवस्मय से भर र्गीई।

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• एक दिदन देखा, फ्-ोरा कहीं बाहर घूमने र्गीई है और सोना भचिFन की कोठरी में तिनक्षिश्चन्� -ेटी है। तिपल्-े आँखें बन्द करने के कारण चीं-चीं कर�े हुए सोना के उदर में दूध खोज रहे थे। �ब से सोना के तिनत्य के कायjम में तिपल्-ों के बीच -ेट जाना भी सष्क्रिम्मचि-� हो र्गीया। आश्चय की बा� यह थी तिक फ्-ोरा, हेमन्�, वसन्� या र्गीोधू-ी को �ो अपने बच्चों के पास फटकने भी नहीं दे�ी थी, परन्�ु सोना के संरक्षण में उन्हें छोड़कर आश्वस्� भाव से इधर-उधर घूमने च-ी जा�ी थी।

• सम्भव�: वह सोना की स्नेही और अहिह}सक प्रकृति� से परिरचिच� हो र्गीई थी। तिपल्-ों के बडे़ होने पर और उनकी आँखें खु- जाने पर सोना ने उन्हें भी अपने पीछे घूमनेवा-ी सेना में सष्क्रिम्मचि-� कर चि-या और मानो इस वृजिद्ध के उप-क्ष में आनन्दोत्सव मनाने के चि-ए अमिधक देर �क मेरे चिसर के आरपार चौकड़ी भर�ी रही। पर कुछ दिदनों के उपरान्� जब यह आनन्दोत्सव पुराना पड़ र्गीया, �ब उसकी शब्दहीन, संज्ञाहीन प्र�ीक्षा की स्�ब्ध घतिड़याँ तिफर -ौट आईं।

• उसी वर्ष र्गीर्मिम}यों में मेरा बद्रीनाथ-यात्रा का कायjम बना। प्राय: मैं अपने पा-�ू जीवों के कारण प्रवास कम कर�ी हूँ। उनकी देखरेख के चि-ए सेवक रहने पर भी मैं उन्हें छोड़कर आश्वस्� नहीं हो पा�ी। भचिFन, अनुरूप (नौकर) आदिद �ो साथ जाने वा-े थे ही, पा-�ू जीवों में से मैंने फ्-ोरा को साथ -े जाने का तिनक्षिश्चय तिकया, क्योंतिक वह मेरे तिबना रह नहीं सक�ी थी।

• छात्रावास बन्द था, अ�: सोना के तिनत्य नैमिमक्षित्तक काय-क-ाप भी बन्द हो र्गीए थे। मेरी उपस्थिस्थति� का भी अभाव था, अ�: उसके आनन्दोल्-ास के चि-ए भी अवकाश कम था।

• हेमन्�-वसन्� मेरी यात्रा और �ज्जतिन� अनुपस्थिस्थति� से परिरचिच� हो चुके थे। होल्डा- तिबछाकर उसमें तिबस्�र रख�े ही वे दौड़कर उस पर -ेट जा�े और भौंकने �था jन्दन की ध्वतिनयों के सष्क्रिम्मचि-� स्वर में मुझे मानो उपा-म्भ देने -र्गी�े। यदिद उन्हें बाँध न रखा जा�ा �ो वे कार में घुसकर बैठ जा�े या उसके पीछे-पीछे दौड़कर स्टेशन �क जा पहुँच�े। परन्�ु जब मैं च-ी जा�ी, �ब वे उदास भाव से मेरे -ौटने की प्र�ीक्षा करने -र्गी�े।

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• सोना की सहज चे�ना में मेरी यात्रा जैसी स्थिस्थति� का बोध था, नप्रत्याव�न का; इसी से उसकी तिनराश जिजज्ञासा और तिवस्मय का अनुमान मेरे चि-ए सहज था।

• पैद- जाने-आने के तिनश्चय के कारण बद्रीनाथ की यात्रा में ग्रीष्मावकाश समाप्� हो र्गीया। 2 जु-ाई को -ौटकर जब मैं बँर्गी-े के द्वार पर आ खड़ी हुई, �ब तिबछुडे़ हुए पा-�ू जीवों में को-ाह- होने -र्गीा।

• र्गीोधू-ी कूदकर कन्धे पर आ बैठी। हेमन्�-वसन्� मेरे चारों ओर परिरjमा करके हर्ष की ध्वतिनयों में मेरा स्वार्गी� करने -रे्गी। पर मेरी दृमिष्ट सोना को खोजने -र्गीी। क्यों वह अपना उल्-ास व्यF करने के चि-ए मेरे चिसर के ऊपर से छ्-ाँर्गी नहीं -र्गीा�ी? सोना कहाँ है, पूछने पर मा-ी आँखें पोंछने -र्गीा और चपरासी, चौकीदार एक-दूसरे का मुख देखने -रे्गी। वे -ोर्गी, आने के साथ ही मुझे कोई दु:खद समाचार नहीं देना चाह�े थे, परन्�ु मा-ी की भावुक�ा ने तिबना बो-े ही उसे दे डा-ा।

• ज्ञा� हुआ तिक छात्रावास के सन्नाटे और फ्-ोरा के �था मेरे अभाव के कारण सोना इ�नी अस्थिस्थर हो र्गीई थी तिक इधर-उधर कुछ खोज�ी-सी वह प्राय: कम्पाउण्ड से बाहर तिनक- जा�ी थी। इ�नी बड़ी तिहरनी को पा-नेवा-े �ो कम थे, परन्�ु उससे खाद्य और स्वाद प्राप्� करने के इचु्छक व्यचिFयों का बाहुल्य था। इसी आशंका से मा-ी ने उसे मैदान में एक -म्बी रस्सी से बाँधना आरम्भ कर दिदया था।

• एक दिदन न जाने तिकस स्�ब्ध�ा की स्थिस्थति� में बन्धन की सीमा भू-कर बहु� ऊचाँई �क उछ-ी और रस्सी के कारण मुख के ब- धर�ी पर आ तिर्गीरी। वही उसकी अन्तिन्�म साँस और अन्तिन्�म उछा- थी।

• सब उस सुनह-े रेशम की र्गीठरी के शरीर को र्गींर्गीा में प्रवातिह� कर आए और इस प्रकार तिकसी तिनजन वन में जन्मी और जन-संकु-�ा में प-ी सोना की करुण कथा का अन्� हुआ।

• सब सुनकर मैंने तिनश्चय तिकया था तिक तिहरन नहीं पा-ूँर्गीी, पर संयोर्गी से तिफर तिहरन ही पा-ना पड़ रहा है।

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