जन-आंदोलन और हिंदी साहित्य

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डॉ. तरण जनादोलन और साहिय हदी विभाग हदली वििवियालय 1 जनादोलन और हिदी साहिय - तरण ेमचद ने जब का था क साहय राजनीतत के आगे चलने िाली मशाल ै (1) तब िे दरअसल साहय और राजनीतत का सबध ी नी बता रे थे बक िे साहय और राजनीतत दोन को ी एक आदोलन के ऱप मे यायातयत कर रे थे जाहर तौर पर कोई भी आदोलन जन-समथथन के बना सफल नी ोता इसलए मूलतः और अततः येक आदोलन दरअसल जन-आदोलन भी ोता ै। जन-आदोलन से साहय को शतत लमलती ै बबक ल िैसे ी जैसे साहय से जनादोलन को। िति म ये एक दूसरे के पूरक । साहय का गाधीिादी, मातसथिादी, जनिादी या लोहयािादी िर इसकी िकालत करता ै। जनता की भागीदारी साहय म भततकाल म जस शत के साथ हदखाई देती ै ि साहय की जीिनदातयनी शतत ै। साहय म अगर िय, दललत और शोवित को आिा लमल सकी ै तो इसकी मिपूणथ भूलमका म जन-आदोलन रे , चाे कफर दलत साहय ो या आहदिासी साहय। आधुतनक और (उतर?) आधुतनक विमश को तरजी भी परो ऱप से साहय म लमलने का कारण राजनीतत म इन िग की बती भूलमका ी ै। आप गौर कर क दललत विमशथ, िी विमशथ और आहदिालसय की ालत और ालात पर जतना नि-उदारिादी दौर या भूमडलीकरण की शुरआत के बाद (1989) ललखा जा रा ै िैसी अिथा पले नी थी। घोर राजनीतत और नागरक शाि का वििय ोने के बािजूद भी इनका िर साहय म जदी और पूरी ततबधता के साथ उभरता ै। जनादोलन और साहय दोन ी जनकयाण के उदेय को लेकर चलते । इस शोध-पि म म ित िता-पूिथ और िातयोतर भारत म जनादोलन और साहय के अतसंबध पर ी बात नी करगे बक ित िता से पले और बाद के जनादोलन का साहय पर तया भाि पडा, इसका भी मूयाकन करने का यास करगे। म पले 1857 के इकलाब के हदी साहय पर पडे भाि कवििेचना करगे तपचात गाधी जी के आदोलन और गाधीिादी विचार की हदी साहय म भूलमका पर काश डालगे। तपचात साहय के मातसथिादी और लोहयािादी िर का विलेिण करने का यास करगे और य देखगे की साहय म आदोलनकारी चेतना के विकास की किया और थततया ै ? जाहर तौर पर साहय की धारा र दौर म एक समान न ोकर िामान और परितत थत री ै और यी साहय की शतत भी ै और उसका गुण भी क ि अपने समय की आिा को अपने म जब ककये रता ै।

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डॉ. तरुण जनाांदोलन और साहित्य

ह िंदी विभाग

हदल्ली विश्िविद्यालय

1

जनाांदोलन और हिांदी साहित्य

- तरुण

प्रेमचिंद ने जब क ा था कक साह त्य राजनीतत के आगे चलने िाली मशाल ै(1) तब िे दरअसल साह त्य और राजनीतत का सिंबिंध ी न ीिं बता र े थ ेबल्ल्क ि ेसाह त्य और राजनीतत दोनों को ी एक आिंदोलन के रूप मे व्याख्यातयत कर र े थे जाह र तौर पर कोई भी आिंदोलन जन-समथथन के बबना सफल न ीिं ोता इसललए मलूतः और अिंततः प्रत्येक आिंदोलन दरअसल जन-आिंदोलन भी ोता ै। जन-आिंदोलनों से साह त्य को शल्तत लमलती ै बबल्कुल िसेै ी जैसे साह त्य से जनािंदोलनों को। िास्ति में ये एक दसूरे के परूक ैं।

साह त्य का गााँधीिादी, मातसथिादी, जनिादी या लोह यािादी स्िर इसकी िकालत करता ै। जनता की भागीदारी साह त्य में भल्ततकाल में ल्जस शल्तत के साथ हदखाई देती ै ि साह त्य की जीिनदातयनी शल्तत ै। साह त्य में अगर ल्स्ियों, दललतों और शोवितों को आिाज़ लमल सकी ै तो इसकी म त्िपणूथ भलूमका में जन-आिंदोलन र े ैं, चा े कफर दललत साह त्य ो या आहदिासी साह त्य। आधतुनक और (उत्तर?) आधुतनक विमशों को तरजी भी परोक्ष रूप से साह त्य में लमलने का कारण राजनीतत में इन िगों की बढ़ती भलूमका ी ै। आप गौर करें कक दललत विमशथ, स्िी विमशथ और आहदिालसयों की ालत और ालातों पर ल्जतना नि-उदारिादी दौर या भमूिंडलीकरण की शरुुआत के बाद (1989) ललखा जा र ा ै िसैी अिस्था प ले न ीिं थी। घोर राजनीतत और नागररक शास्ि का वििय ोने के बािजदू भी इनका स्िर साह त्य में जल्दी और परूी प्रततबद्धता के साथ उभरता ै।

जनािंदोलन और साह त्य दोनों ी जनकल्याण के उद्दशे्य को लेकर चलत े ैं। इस शोध-पि में म स्ितिंिता-पिूथ और स्िातिंर्योत्तर भारत में जनािंदोलन और साह त्य के अिंतसबंिंध पर ी बात न ीिं करेंग ेबल्ल्क स्ितिंिता स े प ले और बाद के जनािंदोलनों का साह त्य पर तया प्रभाि पडा, इसका भी मलू्यााँकन करने का प्रयास करेंगे। म प ले 1857 के इिंकलाब के ह िंदी साह त्य पर पड ेप्रभाि की वििेचना करेंग ेतत्पश्चात गााँधी जी के आिंदोलनों और गााँधीिादी विचारों की ह िंदी साह त्य में भलूमका पर प्रकाश डालेंगे। तत्पश्चात साह त्य के मातसथिादी और लोह यािादी स्िरों का विश्लेिण करने का प्रयास करेंगे और य देखेंगे की साह त्य में आिंदोलनकारी चेतना के विकास की प्रकिया और ल्स्थतत तया ै? जाह र तौर पर साह त्य की धारा र दौर में एक समान न ोकर प्रिा मान और पररितत थत र ी ै और य ी साह त्य की शल्तत भी ै और उसका गणु भी कक ि अपने समय की आिाज़ को अपने में जज़्ब ककये र ता ै।

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स्ितिंिता-पूिथ भारत में जनािंदोलनों और ह िंदी साह त्य का अिंतसबंिंध :-

स्ितिंिता से प ले और बाद में ‘प्रथम स्ितिंिता सिंग्राम’(1857) भारत का अब तक का सबसे बडा जनािंदोलन था ल्जसने सिंपणूथ भारत में स्ितिंिता की मशाल को जलाया और ल्जसकी प्रकाश पररधध में इतत ास मे प ली बार जनता और राजाओ, सामिंतों और सतैनकों, औरतों और बच्चों, ह िंदओुिं और मसुलमानों ने जाततगत और धालमथक भेद भलुाकर समान रूप से एक ी उद्देश्य के ललए लडाई लडी और कुबाथतनयााँ दीिं।

वपछले लगभग ज़ार सालों के ह िंदी साह त्य के इतत ास में जनािंदोलनो की आिाज़ पर उतनी तरजी न ीिं दी जा सकी ै ल्जतनी की दी जानी चाह ये थी। सिंभित ्वपछले हदनों साह त्य के पनुलेखन की मािंग का उठाया जाना इस बात की िकालत करना भी ै कक जनािंदोलनों के नज़ररये से ह िंदी साह त्य को देखने की दृल्टि का विकास ककया जाए ताकक साह त्य भल्तत, साधना, रोमािंस और मनोरिंजन के उद्देश्य को लेकर ी न चल ेबल्ल्क इसमें उन आिाज़ों को भी शालमल ककया जाए जो अब तक दबी र ीिं या दबायीिं जातीिं र ीिं। निे दशक के बाद उभरी इन आिाज़ों ने साह त्य के तिेर को ी न ीिं बदला ै बल्ल्क उसकी हदशा भी पररितत थत कर दी ै और आज ालत ये ै कक ह िंदी साह त्य के इतत ास को दोबारा ललखने की जरूरत म ससू की जा र ी ै।

भारत में और खासकर ह िंदी प्रदेश में उठे जनािंदोलनो ने ह िंदी साह त्य में केिल अलभव्यल्तत ी न ीिं पायी ै बल्ल्क उस पर खासा प्रभाि भी डाला ै इसललये ह िंदी साह त्य का मलू्यााँकन इन जनािंदोलनों के आइने में भी ककया जाना चाह ये। इन ीिं जनािंदोलनों के प्रभािस्िरूप ह िंदी कविता की एक धारा प्रगततशील पथ पर आगे बढ़ी और उसने मातसथिाद से प्रभाि ग्र ण करत े ुए भारत में शोवित जनता की आिाज़ और ल्स्थतत को अलभव्यल्तत दी। जनता को आिंदोललत करने का य स्िर क ीिं प्रत्यक्ष रूप से उभरा ै तो क ीिं परोक्ष रूप से, पर ऐसा समय शायद ी र ा ो जब य स्िर साह त्य स ेबबल्कुल जुदा र ा ो। मध्यकाल की एक धारा को छोड दें तो ह िंदी साह त्य कभी भी इस आिंदोलनकारी सामाल्जक चतेना से स्ियिं को अलग न ीिं रख सका ै।

ह िंदी साह त्य की य चेतना भल्ततकाल में भी विद्यमान थी और आधतुनक काल में भी विद्यमान ै। इसकी विद्यमानता इस बात का प्रमाण ै कक भारत में शोिण और उसका विरोध साथ-साथ चले। स्ितिंिता से प ले भल्ततकाल की सामाल्जक चेतना (ल्जसे मखु्य रूप से कबीर आहद सिंतो की चेतना भी क ा जाता ै) ने भल्ततकाल को एक िचैाररकता दी थी ल्जसकी िज से भल्ततकाल का सिंपणूथ साह त्य एक आिंदोलन के रूप में पररितत थत ो सका। कबीर आहद सिंतों ने उस दौर की सत्ता और धमथ के शोिणकारी चररि को चुनौती दी थी और तनम्न िगथ की आिाज़ को न केिल उठाया था बल्ल्क िे इस आिंदोलन में इस िगथ को अपने साथ लकेर चले थे। सिंत रैदास जो एक तनम्न जातत स े

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ताल्लकु रखत ेथे ने इसकी एक धारा का न केिल नेततृ्ि ककया बल्ल्क जाततगत भेदभाि के खखलाफ आिाज उठाई और मिंहदरों में दललत जातत के प्रिेश न ककये जाने का विरोध ककया। रैदास ने क ा – ‘जातत ओतछ पातत ओतछ ओछा जनम मारा / रामदास की सेि न कील्न क े रैदास चमारा‘

सिंतो ने इस बात का विरोध ककया और क ा कक प्रभ ुभल्तत का अधधकार लसफथ ब्राह्मणों को ी न ीिं ै और न ी जनम से ककसी का धमथ तनल्श्चत ोता ै। इन सिंतो का क ना था कक –

‘जे तू बामन बमनी जाया / आन बाि से तयों न ीिं आया।‘

य एक ऐसा सिाल था ल्जसका जिाब ककसी धमथ के िशीभतू ोकर न ीिं हदया जा सकता था। कबीर ने क ा कक ‘जात-पात पूछे नह िं कोई, रर को भजै सो रर का ोई।‘

य ााँ आकर आस्थािादी शल्ततयााँ चुक जातीिं और बगले झााँकने लगतीिं इसललेए इन सिंतों को विरोध भी स ना पडा लेककन एक बडा तबका इनके साथ था ल्जसमे स्िी, परुुि, दललत िगथ, उच्च िगथ सभी िगों के लोग शालमल थे। इन ी सिंतों ने ह िंद-ुमलु्स्लम एकता को प्रबल करने ेत ुइन धमों में ल्स्थत आडिंबर का ताककथ क विरोध ककया। कबीर ने ह िंद ूधमथ में मतूत थ पजूा का विरोध करत े ुए क ा कक -

‘पाथर पूजै रर लमल ैतो म ैपूजूाँ प ार। तात ैये चाकक भली पीस खाये सिंसार।।‘

उन ोंने मलु्ला के अल्ला ू अकबर धचल्लाने पर क ा कक खुदा ब रा न ीिं ै। –

‘कािंकर पाथर जोररकै मल्स्जद लई बनाय।ता चहि मुल्ला बािंग द ब रा ुआ खुदाय।।‘

इन सिंतों का मानना था कक खुदा तो चीिंिी के परैों में बिंधे घुिंघरुओिं की आिाज़ भी सनु लेता ै।

‘चीिंिी के पग नुपुर बाजै। सो भी साह ब सुनता ै।।‘

भल्ततकाल के बाद जनादोलन की य धारा सीधे अट्ठा रिीिं सदी के उत्तराध्दथ में हदखाई देती ै। इतत ास में ऐसे कई मोड आए ैं जब जन-आिंदोलनों ने इतत ास के प्रिा को पररितत थत कर नया मोड हदया ै। सन ्1857 का विद्रो (प्रथम स्ितिंिता सिंग्राम) एक ऐसा ी मोड था जब इतत ास के प्रिा की गतत पररितत थत ुई थी। ब ुत सारे अिंगे्रजी लेखकों ने इस ेलसपा ी-विद्रो मान इसके दमन की िकालत की थी और इसे मटु्ठी भर सतैनकों का विद्रो मान कर विश्लेवित करने का प्रयास ककया था। लेककन आज विद्िानों ने अपने तकों से य लसद्ध कर हदया ै कक य लसफथ मटु्ठी भर सतैनकों का आिोश माि न ोकर एक जन-िािंतत एक जन-विद्रो था ल्जसमें लसफथ सतैनकों ने ी न ीिं बल्ल्क आम जनता ने भी ह िंद-ूमलु्स्लम बरै को भलुाकर भाग ललया था और अपने जीिन की आ ूतत दी थी।

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तत्कालीन राजसत्ता (साम्राज्यिाहदयों) पर इसके प्रभाि को इसी बात स े समझा जा सकता ै कक इसका बबथरतापणूथ ढ़िंग से दमन करने के उपरािंत अिंगे्रजों नें अपनी कायथप्रणाली में खासा बदलाि ककया और कम्पनी के शासन को समाप्त करके भारतीय साम्राज्य को इिंग्लैंड की म ारानी के मात त कर हदया। सतैनकों के सम ूों को जातत के आधार पर बााँि हदया गया ताकक विलभनन िगथ और जाततयों के सतैनकों के मध्य तालमेल कायम न ो सके। इस विद्रो में ल्जन जमीिंदारों, सामिंतों ने अिंग्रेजों का साथ हदया था उन ें बडी-बडी उपाधधयााँ और जागीरें बााँिी गईं। विद्रोह यों को खुलेआम रास्तों के पेडों पर लिका हदया गया। ऐसा इसललये ककया गया ताकक भारतीय जनता खौफ़ज़दा र े और आगे स ेइस तर का कदम उठाने की सपने में भी न सोचे। इस विद्रो की ध्ितनयााँ तत्कालीन लोक-गीतों और साह त्य में सनुी जा सकती ैं। ह िंदी, बिंग्ला, उदूथ, मराठी य ााँ तक कक दक्षक्षण भारत का साह त्य भी इस विद्रो के प्रभाि से अछूता न ीिं। ह िंदी साह त्य पर इस स्ितिंिता-सिंग्राम के प्रभाि को समझने के ललए सभुद्रा कुमारी चौ ान की इन पिंल्ततयों को आधाररक रूप से समझ में लाना ोगा।

“चमक उठी सन ्सत्तािन में िो तलिार परुानी थी।

बुिंदेले रबोलो के मुाँ मने सनुी क ानी थी।।“

जब सभुद्रा कुमारी चौ ान ने ‘झााँसी की रानी’ पर कविता ललखी तब िे ‘झााँसी की रानी’ के चररि के माध्यम से भारत की िीरािंगनाओिं के गौरिशाली इतत ास को १८५७ की इस म ान जन-िािंतत को कें द्र में रखत े ुए सिंपणूथ ह िंदी जातत और इसके प्रदेश के समक्ष लाना चा ती थीिं। उन ोंने ललखा –

“लस िं ासन ह ल उठे, राजििंशों ने भकुृहि तानी थी

बढेू़ भारत में भी आई कफर से नई जिानी थी

दरू कफरिंगी को करने की सबने मन में ठानी थी चमक उठी सन ्सत्तािन में िो तलिार परुानी थी बुिंदेले रबोलो के मुाँ मने सनुी क ानी थी। खूब लडी मदाथनी ि तो झााँसी िाली रानी थी।“

रानी लक्ष्मीबाई और कुाँ अर लस िं विद्रोह यों के नेता थे। इस दौर के लोकगीत इसके प्रभाि से अछूत ेन ीिं ैं। कुाँ अर लस िं के सिंदभथ में ऐसा ी एक गीत मनोरिंजन प्रसाद लसिं ने ललखा ै –

“मस्ती की थी तछडी राधगनी, आज़ादी का गाना था

भारत के कोने कोने में ोता य ी तराना था

उधर खडी थी लक्ष्मीबाई और पेशिा राना था

इधर बब ारी िीर बािंकुरा खडा ुआ मस्ताना था

अस्सी ििों की ड्डी में जागा जोश परुाना था।

सब क त े ै काँ अर लसिं भी बडा िीर मदाथना था।।”(2)

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रानी लक्ष्मीबाई की जीिनगाथा पर िृिंदािनलाल िमाथ ने साढे़ तीन सौ पननों का उपनयास ललखा ै। इसकी प्रस्तािना में ि इस बात का उल्लखे करत े ैं कक एक पि में रानी लक्ष्मीबाई ने ‘स्िराज’ शब्द का प्रयोग करत े ुए ल्स्ियों को परुुिों के साथ किं धे स ेकिं धा लमलाकर लडने का आह्िान ककया था।(3) और य ‘स्िराज’ गााँधी जी के स्िराज से ब ुत जुदा न ीिं ै ल्जसका उल्लेख म ात्मा गााँधी ‘ह िंद स्िराज’ में करत े ैं।(4) 1857 के ी एक और िािंततकारी और निाब िाल्जदअली शा अख़्तर ने अपने हदल का ददथ कुछ यूाँ बयािं ककया –

“अब सारे श र से ोता ै ये अख्तर रुख़्सत

आगे अब बस न ीिं क ने की ै मझुे फु़रसत

ो न बबाथद मेरे मलु्क की यारब खल्कत,

दरो दीिार पे सरत की नज़र करत े ैं।

रुख़्सत-ेअ ल-ेितन। अब म तो सफ़र करत े ैं।।“(5)

देश के प्रथम स्ितिंिता सिंग्राम में झााँसी की रानी की भलूमका पर अनेक भारतीय ि अनय भािाओिं और बोललयों में गीत प्रचललत ैं। उस दौर में बुिंदेले- रबोलो की ज़बुान पर य गीत चढ़ा ुआ था सिंभित ्ि ी सभुद्रा कुमारी चौ ान की पे्ररणा का स्रोत बना। ’खूब लडी रे मरदानी, खूबइ जूझी रे मरदानी,

िा झािंसीिाली रानी, अपने लसपाह यन खों लड्डू खिाबै, आपइ वपये ठिंडा पानी, िा झािंसीिाली रानी…।’ ह िंदी साह त्य में झााँसी की रानी की भलूमका को तलाशत े ुए ओम भारती ने ठीक ी ललखा ै कक “1857 की राज्य िािंतत का नेततृ्ि बाद में तो एकबारगी लक्ष्मीबाई के ी ाथों में आ गया था उनकी घोिणा थी कक मैं अपने ललेये न ीिं, अपने बेिे के ललये न ीिं, झााँसी के ललये न ीिं बल्ल्क भारत की आज़ादी के ललये इस पविि िािंतत सिंग्राम में शालमल ुई ूाँ। तात्या िोपे, नाना सा ब, अजीमलु्ला खााँ और ब ुत से निाब ि राज-ेम ाराजे जिंग में स योगी थे। लक्ष्मीबाई का स्िालभमान, सा स एििं देश-प्रेम तो अननय था ी, रणकौशल में भी बेजोड थीिं। उनके उदात्त चररि ने उन ें सतैनकों में लोकवप्रय बनाया, और सामानय लोगों में प्रततटठा दी।”(6)

इतत ास आिोश और विद्रो की चेतना को रीततकाल के िभैि और विलालसता से तनकालकर सीधे यदु्ध के मदैान में उतार देता ै 1857 के विद्रो की चेतना को ह िंदी साह त्य ने आत्मसात ककया ै। िृिंदािनलाल िमाथ, बदरी नारायण चौधरी प्रेमघन’ , भारतेंद ु ररश्चिंद्र, सभुद्रा कुमारी चौ ान, मधैथलीशरण गपु्त, यशपाल, नागाजुथन, रेणु आहद प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस प्रभाि से अछूत ेन ीिं र े। ह िंदी साह त्य में प्रत्यक्ष एििं अप्रत्यक्ष रूप में 1857 के स्ितिंिता-सिंग्राम की स्मतृतयों को देखा जा सकता ै। क ीिं सीधे तौर पर इस आिंदोलन पर ललखे ि गाये गये लोकगीत ैं तो क ीिं परोक्ष रूप से उकेरे गये अिंगे्रजों के शोिण और िूरतापणूथ दमन के धचि, जो इस आिंदोलन के उद्भि के मलू कारणों में से ैं।

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अिंगे्रजो द्िारा भारतीय सिंपदा का आधथथक दो न भी उनमें से ी एक कारण ै। भारतेंद ु ररश्चिंद्र ने अिंग्रेजो द्िारा ककये जा र े इस आधथथक शोिण को ‘अिंधेर नगेरी’ और ‘भारत ददुथशा’ में बखूबी हदखाया ै। भारतेंद ुने भारत ददुथशा में ललखा –

“अिंग्रेज राज सखु साज सज ैसब भारी। प ैधन विदैस चलल जात इ ै अतत ख्यारी।।“(7) और अिंधेर नगरी में ललखा – “चूरन सा ब लोग जो खाता। सारा ह िंद जम कर जाता।।“(8)

भारतेंद ुऔर भारतेंद ुमिंडल के अनय लेखक िनाथतयलूर प्रसै जैस ेकाननू से िस्त थे इसललये भी िे सीधे-सीधे अपनी रचनाओिं में अिंग्रेजी सत्ता का विरोध न ीिं कर सकत ेथे लेककन य भारतेंद ुके लेखन की विशिेता ै कक लोक-जन इस व्यिंग्य को आसानी से समझ लेता ै कक अिंग्रेज भारत की धन सिंपदा को इिंग्लैंड भेज र े ैं। जबकक सत्ताधारी अिंग्रेज ‘..सखु साज सजै सब भारी’ को अपना प्रशल्स्तगान समझने की मखूथता करता ै। इसी िज से रामविलास शमाथ इसे जनजागरण का साह त्य क त े ै। उनका क ना ै कक इसी प्रकार भारतेंद ुयगु का साह त्य भी जन-जागरण का साह त्य ै इसललए भारतेंद ुको निजागरण का अग्रदतू क ा जाता ै। भारतेंद ुका समस्त साह त्य जनिाद की िकालत करता ै। धन सिंपदा के दो न को हदखाने के ललए भारतेंद ुल्जस लोक-भािा का इस्तमेाल करत े ैं ि सन ्1857 के विद्रो की आिंदोललत भािा भी ै। रामविलास शमाथ ने क ा भी ै कक “भारतेंद ुयगु का साह त्य जनिादी इस अथथ में ै कक ि भारतीय समाज के परुाने िााँचे से सिंतटुि ना ोकर मनटुय की एकता, समानता और भाईचारे का भी साह त्य ै। भारतेंद ुस्िदेशी आिंदोलन के ी अग्रदतू न थ,े िे समाज सधुारकों में प्रमखु थे। स्िी लशक्षा, विधिा-वििा , विदेशी यािा आहद के ि ेसमथथक थे।“(9) इतत ासकारों की माने तो विद्रो के ललए एक समय तनल्श्चत ककया गया था और रोिी और कमल जैसे प्रतीक धचह्नों की बदौलत इस तनल्श्चतता को स्थावपत ककया गया था ल्जसकी कोलशश थी कक एक साथ य आिोश प्रज्िललत ो, पर ऐसा न ीिं ो सका। अगर ऐसा ोता तो इतत ास ककसी और तरफ करिि लेता।

ह िंदी साह त्य के उत्तर मध्यकाल और परिती मगु़ल सम्रािों के समय में कविता श्ृिंगार साधना में ी रमी ुई थी विद्रो के तिेर का ि ााँ स्थान ी न था िीरत्ि का स्िर या उग्रता अपने कमजोर और कायर राजाओिं ि सामिंतों के झठेू यशगान के ललये ी उपयोग में लायी जाती थी। राजदरबार में सरुा-

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सुिंदरी की उपल्स्थतत और तनरिंतरता ने कविता की सामाल्जक जागरण और विद्रो ी शल्तत को बाधधत कर हदया था पर सन ्57’ में विदेशी दासता के शोिण की अततशयता का विरोध करने ेत ुय शल्तत पनुजीवित ुई और इसने ‘ििंदेमातरम’् का यशगान पाया। ‘आनिंदमठ’ जैसी रचना इसका प्रमाण ै। ल्जस सामाल्जक चेतना की दरकार ह िंदी साह त्य को परिती मगु़ल सम्रािों के समय में थी ि अिंग्रेजी साम्राज्यशा ी के विरोध करने में जागतृ ुई तनल्श्चत ी इस जागरण में मध्यिगथ की भलूमका से इिंकार न ीिं ककया जा सकता। ल्जसके बारे में रा ुल लसिं ललखत े ैं कक “भारतीय मध्यिगथ के विकास में 1857 का आिंदोलन एक म त्िपणूथ पडाि ै। 1857 से प ले ज ााँ मध्यिगथ एक 'सोशल कैिगरी' के रूप में उपल्स्थत था ि ीिं 1857 के बाद ि एक 'पोललहिकल कैिगरी' के रूप में सामने आता ै। 1947 के बाद का समय इसके 'इकोनोलमक कैिगरी' के रूप में विकलसत ोने का ै। इस िगीकरण में जो विशिेण लगे ैं ि उस दौर में उनके द्िारा तनभाई गई प्रमखु भलूमका को सामने लात े ैं।“(10)

ह िंदी साह त्य के सिंदभथ में 1857 के इिंकलाब या विद्रो का मलू्यााँकन करत ेसमय इसे एक विद्रो की अपेक्षा एक जनािंदोलन के रूप में व्याख्यातयत करना ोगा। य मानने के बािजूद की य अिंगे्रज सत्ता के प्रतत आिोश और विद्रो था। उनके फ़रमान की नाफ़रमानी था लेककन तब भी इसमे ल्जस स्तर पर और ल्जस सिंगठन के साथ जनता ने अपनी ह स्सेदारी दी, ि काबबल-ेगौर ै। इस दौर में लोक के मन में स्मतृतयों की अततशयता लोकगीतों और साह ल्त्यक रचनाओिं के रूप में बा र आयी एक विद्रो ोने के बाबजूद भी य एक जनािंदोलन था ल्जसने लसफथ ह िंदी साह त्य को ी न ीिं बल्ल्क सिंपणूथ भारतीय साह त्य को भी आिंदोललत ककया। इसका असर जमथनी में मातसथ पर भी पडा और इिंग्लैंड मे बठेै ुतमरानों पर भी। इसका म त्ि ककसी भी तर से इतत ास और साह त्य-इतत ास में 1688 की इिंग्लैंड की गौरिपणूथ िािंतत, अमेररकी स्ितिंिता सिंग्राम या ्ािंस की राज्य िािंतत से कम न ीिं आाँका जा सकता। असफल ोने के बािजूद इस जनािंदोलन ने भारत के स्ितिंिता आिंदोलन के ललेये नीिंि तयैार की और ह िंदी साह त्य को उत्तर मध्यकाल में आयी दरबारी विलालसता से देसी आधतुनकता के साथ िीरता और विद्रो का तिेर देत े ुए बा र तनकाला।

स्ितिंिता से प ले ह िंदी साह त्य के विस्ततृ फलक पर स्ितिंिता प्राल्प्त का य आिंदोलन भारत का अब तक का सबस ेबडा जनािंदोलन था ल्जसे तलिार से कुाँ िर लस िं , रानी लक्ष्मीबाई. नाना सा ब, तात्या िोपे आहद सेनानायकों ने लडा तो कलम से िृिंदािन लाल िमाथ, सभुद्राकुमारी चौ ान, मधैथलीशरण गपु्त आहद कवि-लेखकों ने। इस विद्रो के बाद की राजनीतत का नेततृ्ि यहद गााँधी ने ककया तो साह ल्त्यक पररपे्रक्ष्य में इस नेततृ्ि को प्रमेचिंद ने सिंभाला। अस योग आिंदोलन, सविनय अिज्ञा आिंदोलन, या सन 42’ का भारत छोडो आिंदोलन इसी सबसे बड ेजनािंदोलन (भारत के प्रथम स्ितिंिता सिंग्राम) के उत्तर-पक्ष थे।

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कविता में ल्जसे द्वििेदी यगु क ा जाता ै और राजनीततक इतत ास में ल्जसे गााँधी यगु के नाम से जाना जाता ै। ि दरअसल राजनीतत, इतत ास और साह त्य का लमलन बब िंद ु ै। आप इसे जनािंदोलन और साह त्य का कें द्र बब िंद ुभी समझ सकत े ैं। प्रेमचिंद के तो लगभग सभी उपनयास गााँधीिाद स ेप्रभावित हदखत े ैं। उस दौर में गााँधी लसफथ एक नाम न ीिं थे ि तत्कालीन जनता की आिाज़ भी थ ेऔर अगर म उस आिाज़ को आिंदोलन की सिंज्ञा देना चा ें तो कोई अततशयोल्तत न ीिं समझनी चाह ए। ऊपर ल्जन आिंदोलनों का ल्जि ककया गया ै उसे अिंग्रेज सरकार आिोश या विद्रो का नाम दे सकती ै लकेकन भारत के ललए य केिल एक जनािोश ना ोकर जनािंदोलन था। ल्जसका कारण था इसका िचैाररक पररपे्रक्ष्य। इसके पीछे एक िचैाररकता थी। िचैाररकता जो ककसी भी आिंदोलन की पिूथशतथ ै भल्ततकाल के बाद एक लिंबे अिंतराल को झेलकर साह त्य में य िचैाररकता पनुः प्रस्ततु ुई थी। भारतेंद,ु पे्रमघन, िृिंदािनलाल िमाथ, सभुद्रा कुमारी चौ ान और पे्रमचिंद आहद साह त्यकारों ने इसे अलभव्यल्तत दी थी।

प्रेमचिंद ने ‘सरूदास’ को अपनी रिंगभलूम का नायक बनाया, ल्जसे गााँधी का साह ल्त्यक सिंस्करण भी क सकत े ैं। ल्जस तर से गााँधी मज़दरूों और ककसानो के क में अपनी आिाज़ बलुिंद करत े ैं और पूाँजीिाद के खतरे को प चानत े ैं उसी तर से ‘सरूदास’ रिंगभलूम(प्रेमचिंद) में अपनी जमीन बचाने और उस पर कारखाना न लगने देने के ललए जो तकथ देता ै ि प्रेमचिंद या ‘सरूदास’ का तकथ ना ोकर गााँधीिाद का तकथ ै और गााँधीिाद लसफथ एक विचारधारा का नाम न ीिं था बल्ल्क य उस जनािंदोलन की आधाररक सिंरचना का हि्स्सा भी था। रिंगभलूम उपनयास में राजा सा ब के ये क ने पर कक सरूदास इस जमीन को देने में तमु् ें तया हदतकत ै। लसफथ नौ बीघा दे दो और उससे लमल ेपसैों को धमथ कायथ में लगा दो इससे तमु् ारी मनोकामनाएाँ भी परूी ो जाएाँगी और सा ब का काम भी तनकल जाएगा।

सरूदास क ता ै “सरकार, गरीब की घरिाली गााँि-भर की भािज ोती ै। सा ब ककरस्तान ैं, धरमशाले में तम्बाकू का गोदाम बनाएाँगे, मिंहदर में उनके मज़दरू सोएाँगे, कुएाँ पर उनके मजूरो का अड् डा ोगा, ब ू-बेहियााँ पानी भरने ना जा सकें गी। सा ब ना करेंगे, सा ब के लडके करेंगे। मेरे बाप-दादों का नाम डूब जाएगा। सरकार मझु ेइस दलदल में ना फाँ साइए।“(11)

राजा सा ब – “अच्छा, य भी माना। जरा य भी सोचो कक कारखाने से लोगों को तया फायदा ोगा। जारों मजदरू, लमस्िी, बाब,ू मुिंशी, ल ुार, बढ़ई आकर आबाद ो जाएिंगे, एक अच्छी बस्ती ो जाएगी, बतनयों की नई-नई दकुानें खुल जाएिंगी, आस-पास के ककसानों को अपनी शाक-भाजी लेकर श र न जाना पडगेा, य ीिं खरे दाम लमल जाएिंगे। कुिं जड,े खहिक, ग्िाल,े धोबी, दजी, सभी को लाभ ोगा। तया तमु इस पणु्य के भागी न बनोगे?”(12)

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राजा सा ब के तकथ आज के पूिंजीपततयो के तकों सरीखे मालमू ोत े ैं आज का पूिंजीपतत(बबल्डर, प्रोपिी डीलर) भी तो ककसानो की जमीन डपने के ललये इसी तर के तकथ जुिाता ै। पर इस पर सरूदास का तकथ सनुने लायक ै। य आज के नि-उदारिादी और िशै्िीकरण के दौर पर बबल्कुल कफि बठैता ै। इसललये इसकी प्रासिंधगकता और अधधक बढ़ जाती ै।

सरूदास क ता ै “... सरकार ब ुत ठीक क त े ैं, म ुल्ले की रौनक जरूर बढ़ जाएगी, रोजगारी लोगों को फायदा भी खूब ोगा। लेककन ज ााँ य रौनक बढे़गी, ि ााँ ताडी-शराब का भी तो परचार बढ़ जाएगा, कसबबयािं भी तो आकर बस जाएिंगी, परदेशी आदमी मारी ब ू-बेहियों को घरूेंगे, ककतना अधरम ोगा। हद ात के ककसान अपना काम छोडकर मजूरी के लालच में दौडेंगे, य ााँ बरुी-बरुी बातें सीखेंगे और अपने बरेु आचरन अपने गााँि में फैलाएिंगे। हद ातों की लडककयााँ, ब ूए मजूरी करने आएिंगी और य ााँ पसैे के लोभ में अपना धरम बबगाडेंगी। य ीिं रौनक श रों में ै। ि ीिं रौनक य ााँ ो जाएगी। भगिान न करें, य ााँ ि रौनक ो। सरकार, मझुे इस कुकरम और अधरम से बचाएिं। य सारा पाप मेरे लसर पडगेा।”(13)

राजा सा ब को हदया गया सरूदास का य तकथ पे्रमचिंद या गााँधीिाद का तकथ ोने के साथ-साथ पूाँजीिाद के विरुद्ध शोवित जनता के क में बलुिंदी से उठाई गयी आिाज़ और जनता के आिंदोलन का तकथ भी ै। इसकी प्रासिंधगकता आज के भलूम सधुार काननूों के वििादों और नोएडा की भट्टा परसौल की घिनाओिं में समझी जा सकती ै।

स्िातिंर्योत्तर भारत में ह िंदी साह त्य और जनािंदोलनों का अिंतसबंिंध :-

साह त्य पर जन-आिंदोलनों के प्रभाि को अगर समझना ो तो स्िातिंर्योत्तर राजनीतत में आए बदलािो को भी देखना ोगा चूाँकक इन ीिं में इस भलूमका का पिाक्षेप ोता ै। स्ितिंिता के बाद ने रू के प्रधानमिंिी कायथकाल में जो पररितथन ुए िे िाया ‘भारत के आधुतनक मिंहदरों’(14) से ोत े ुए ककसी अजान विकास की बलुिंदी को छूत ेमालमू ोत े ै। बेशक ने रू आधतुनक दृल्टिकोण िाले नेता थे और यरूोपीय आधुतनकता के पक्षधर भी। लेककन ने रू के कायथकाल में एक बडा बदलाि उनके राजनीततक भविटय के बबल्कुल अिंततम चरण में तब आया जब चीन ने भारत पर मला ककया और एक बड ेक्षिे को अपने कब्ज़े में लेत े ुए मारे कई सतैनको को बिंदी बना ललया, इससे प ले ह िंदी-चीनी भाई-भाई के नारो की नमुाइश चारों ओर की गई थी सिंभित ्य ि दौर था जब ने रू गााँधी के लसद्धािंतों को तोडत े ुए आगे बढ़ गए, इससे प ले िे गााँधी के विचारों को लसफथ छोडत े ुए आगे बढे़ थे।

ने रू और गााँधी के बीच का फकथ इसी स ेसमझा जा सकता ै कक ज ााँ गााँधी भारत का विकास गााँिों के विकास में देखत े ैं ि ीिं ने रू गााँधी से बबल्कुल उलि भारत के विकासिादी मॉडल को श रों के

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विकास और नितनमाथण में देखने के पक्षधर थे। गााँिों और श रों के बीच का य द्ििंद्ि दरअसल गााँधी और ने रू के बीच का भी द्ििंद्ि ै। विकास की अिधारणा ने रू के ललये बााँधों, फैतिररयों, उद्योगो आहद के तनमाथण और विकास के आधार पर तनधाथररत ोती थी उनकी नज़र इस तथाकधथत विकास की अिसर लागत पर न ोकर लसफथ विकास पर ोती थी। भारत की शोवित जनता का साथ इसललेये भी मेशा गााँधी जी के साथ था जबकक ने रू उन उद्योगपततयो के खेम ेको अधधक तरजी दे र े थे जो उनकी तर बौवद्धक सोच रखता था और गााँिों की अस्तव्यस्तता को दरू करने का ल गााँिों को दरू करने में मानता था।

ने रू का बोवद्धक मानस श रोनमखु मानस था एक ऐसा मानस जो ग्रामीण जनता से लगाि रखने के बािजूद भी उसके ह त और कल्याण को श रों, बााँधों आहद के विकास के आधार पर विश्लेवित करने के पक्ष में था। जबकक गााँधी जी का मानस गााँि की जनता के भािकु पर सहृदय मानस से स्ियिं को जोडत े ुए उनके बीच र कर, उनके दखु-ददथ में शरीक ोत े ुए विकास को तब साथथक मानता था जबकक य विकास बबना ककस मानिीय अिसर लागत ि न ककये भारत के अिंततम आदमी तक प ुाँचता ो।

आजादी का जो स्िप्न मने देखा था, जैसी व्यिस्था का भविटय मने सिंजोया था ि बबखर गया था। जिा रलाल ने रू ने आजादी लमलत े ी औद्योधगकरण(उत्पादन) को सिथप्रथम आिश्यकता बताया था और क ा था कक “उत्पादन आज की सिथप्रथम आिश्यकता ै और उत्पादन में रुकािि डालने या उसे कम करने का प्रत्येक प्रयत्न राटर को और विशिे रूप से मारे ब ुसिंख्यक श्लमकों को ातन प ुाँचा र ा ै।“(15) जाह र ै य औद्योधगकरण श रीकरण के बबना सिंभि न ीिं था और ने रू को इस ेस्थावपत करने में गााँधी के उन लसद्धािंतों से बचकर तनकलना था जो मानत ेथे कक “श र की इमारत का तनमाथण ल्जस सीमेंि स े ोता ै ि गााँि के रतत से बनाया जाता ै।“(16) ने रू श री मानस के आदमी थे। िे श री मध्यिगथ से अपना सिंबिंध जोडत े ुए अपनी आत्मकथा मे इसका उल्लखे करत े ैं कक “मझुे सबसे बडा आश्चयथ इस बात पर ुआ कक म श र िालों को इतने बड ेककसान आिंदोलन का पता तक न ीिं था। ककसी अखबार में उस पर एक सतर भी न ीिं आती थी। उन ें दे ात की बातों में कोई हदलचस्पी न ीिं थी। मैंने इस बात को और भी ज्यादा म ससू ककया कक म अपने लोगों से ककस तर दरू पड े ुए ैं और उनसे अलग अपनी छोिी सी दतुनया मे ककस तर काम करत े ैं।“(17) ने रू का विकासिादी मॉडल बबना श रों की स्थापना और औद्योधगकरण के सिंभि न ीिं था जबकक ि ेइस सिंबिंध में गााँधी के रुख से िाककफ़ थे। उनकी यरूोपीय आधुतनकता सिंबिंधी समझ उन ें श रोनमखु कर र ी थी। भारतीय जनता का जुडाि गााँधी से ल्जतना था उतना ने रू के चमत्कारी और विकासिादी चररि से न ीिं था ालााँकक भारत का बोवद्धक और उच्च िगथ उन ें पसिंद करता था। पर आम जनता का इस चररि से मो भिंग स्िाभाविक था।

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स्ितिंिता मे विभाजन की कीमत पर ालसल ुई थी इसललये विभाजन और सािंप्रदातयक दिंगों स ेआिािंत जनता स्ितिंिता के तरुिंत बाद विद्रो और आिंदोलन करने की ल्स्थतत मे न ीिं आ सकी थी। इसका कारण य भी था कक उनके आिंदोलन का नेततृ्ि करने िाले लगभग सभी नेता सत्तािादी कािंग्रेस में थे और कािंग्रेस देश का सबसे बडा विजयी राजनीततक दल था लेककन जब विकास की दौड में भाग र ी सत्ता तनरिंकुशता से काम लेने लगी और गरीब और अस ाय जनता के ह त की अनदेखी करने लगी तब इस जनसम ू का नेततृ्ि लोह या (ल्जन ें गािंधी जी का मानस पिु भी क ा जाता ै) जैसे नेताओिं ने ककया। सिंसद के अिंदर जनता की लडाई लोह या सरीखे नेताओिं ने लडी तो साह त्य में पररमल और प्रगततशील सिंगठनों नें जनता की आिाज को अपनी कविताओ और क ातनयों में उठाया। सिेश्िर दयाल सतसनैा, रघिुीर स ाय, मलु्ततबोध, अज्ञेय, केदारनाथ अग्रिाल, नागाजुथन, बिलोचन, आहद कवियों ने जनिादी और लोकतािंबिक अधधकारों की लडाई को अपनी रचनाओिं का आधार बनाया। अज्ञेय ने ‘सााँप’ शीिथक कविता में उस श री मानलसकता की खखल्ली उडायी ल्जस ेने रू स्थावपत करने में लगे थे अज्ञेय ने ललखा –

“सााँप ! तमु सभ्य तो ुए न ीिं –

नगर में बसना भी तमु् ें न ीिं आया। एक बात पछूूाँ – (उत्तर दोगे ?)

तब कैसे सीखा डाँसना – विि क ााँ से पाया ?”(18)

एक अनय कविता ‘औद्योधगक बस्ती’ में उन ोंने श र की विडिंबनाओिं और वििमताओिं का खाका खीिंचत े ुए ललखा –

“प ाडडयों से तघरी इस छोिी सी घािी में

ये मुाँ झौंसी धचमतनयााँ बराबर

धुाँआ उगलती जाती ैं।

भीतर जलत ेलाल धात ुके साथ

कमकरों की दःुसाध्य वििमताएाँ भी

तप्त उबलती जातीिं ै।“(19)

ने रू यगु के स्िप्न-भिंग के सिंदभथ में मलु्ततबोध की कविता ‘अिंधेरे में’ और क ानी ‘जलना’ भी ब ुत म त्िपणूथ ैं। साह ल्त्यक स्तर पर तत्कालीन राजनीततक पररपे्रक्ष्य को समझने के ललये य आधाररक स्रोत ैं। ने रू स्ियिं को ताउम्र ल्जस मध्यिगथ से सिंबद्ध बतात ेर े ने रू की नीततयों से सिाथधधक खीझ भी उसी मध्यिगथ के हदल में थी ‘जलना’ क ानी मलु्ततबोध की कविता ‘अिंधेरे में’ का ी कथा रूपािंतरण प्रतीत ोती ै ‘अिंधेरे में’ में िे तत्कालीन राजनीततक पररदृश्य को और स्िप्न-भिंग को फैं िेसी के द्िारा प्रदलशथत करत े ैं तो ‘जलना’ क ानी में मलु्ततबोध ने मध्यिगथ के स्िातिंर्योत्तर मो भिंग को समझाने की कोलशश की ै। ‘जलना’ क ानी का कथानायक एक नि-स्ितिंि राटर में अपने बच्चों के भविटय को बौवद्धक बनाने की जद्दोज द में विद्रो की अतनिायथता के बारे में क ता ै

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कक “मैं अपने सारे विचार मेरी अपनी सारी कल्पनाएिं और धारणाएाँ उन े बता दूाँगा उनका बबल्कुल लसस्िेमिेैकली अध्ययन करा दूाँगा कक िे उनके तौर तरीकों से घणृा करें कक अपने जैसे गरीबों में ी र ें और उन ें ललखाएाँ-पढ़ाएाँ, उन ें नये-नये विचार दें, उनकी भविटय कल्पना तीव्र कर दें उनकी जगत चेतना को विस्ततृ और यथाथथिादी बना दें और उनमें मरें और ल्जयें। मैं उन ें िािंततकारी बनाउाँगा, मैं उन े समाज की तलछि बनने के ललेए पे्रररत करुाँगा, िे ि ािं बठेै-बठेै ककताबें ललखेंगे, पमै्फलेि छापेंग ेऔर जो लमलेगा उसे सबके साथ खाकर उन सब भडकीले दिंभों से घणृा करेंगे जो लशक्षा और सिंस्कृतत के नाम पर चलत े ैं..।“(20)

मेरे बचपन के हदनों की एन.सी. आर. िी की ककताि का आरिंभ गााँधी जी के जनतर से ोता था ल्जसमें गााँधी जी पाठक के वििेक को डगमगाने से बचाने के ललये एक जिंतर देत ेथे। उसमे िे क त ेकक जब तमु् ारा मन डगमगाने लगे और तमु् े समझ न आए कक तमु जो करने जा र े ो िो ठीक ै या गलत, तब तमु ये तरकीब आजमाओ। कक तमुने अब तक जो भी सबसे गरीब या परेशान आदमी देखा ो तमु देखों कक जो तमु करने जा र े इसका लाभ उसे लमल पा र ा ै या न ीिं। य तरकीब तमु् े स ी फैसले लेना लसखायेगी। मझुे स्पटि रूप से और ठीक-ठीक शब्दों में याद न ीिं कक शब्द तया थे लेककन उनका आशय कुछ ऐसा ी था। पर ने रू गााँधी के लसद्धािंतों को तोडत े ुए आगे बढ़ गए, इससे प ले िे गााँधी के विचारों को लसफथ छोडत े ुए आगे बढे़ थे। िो इसललये कक ने रू ने गााँधी जी के इस जिंतर को बबसरा हदया और िे राजनीतत में उस अिंततम आदमी को भलू गये ल्जसके ललये गााँधी जी ने ये आजादी ालसल की थी। ऐसे समय में लोह या गााँधी जी की आिाज बन कर स्िातिंर्योत्तर राजनीतत में आए और उन ोंने ने रू यगु को और स्ियिं ने रू के सामने ऐसे प्रश्न रख ेजो अिंततम आदमी के प्रश्न थे। िे ने रू से इस सिाल पर जझूे कक ल्जस विकास को ने रू अिंजाम दे र े ैं उस विकास की अिसर लागत तया ै और उसे कौन ि न करता ै। ने रू बताएाँ कक ि ककसके ललये काम कर र े ैं मटु्टी भर बौवद्धक और पढे़-ललखे या पूाँजीपतत लोगों के ललये या असिंख्य गरीब, अनपि, और अस ाय लोगों के ललये। लोह या ने रू द्िारा ततब्बत पर ललये गये रुख स ेबे द नाराज़ थे िे उसे एक गलती के रूप में व्याख्यातयत करत ेथे। उनका क ना था कक “सरकार ने ततब्बत पर चीन की सत्ता मान लेने की गलती की थी, ालााँकक उस ितत ‘सत्ता’ और ‘सािथभौम सत्ता’ के फकथ का बडा िोल पीिा गया था और 1947 से य गलती चली आ र ी ै। ततब्बत, चीनी से ज्यादा ह िंदसु्तानी ैं गो दरअसल ततब्बत ततब्बती ै और ह िंदसु्तान के उससे तनकि के सिंबिंध ैं। अगर ह िंदसु्तान की सरकार ततब्बत को एक विलशटि पडोसी मानने की ठोस नीतत को स्िीकार न ीिं कर सकती, तो कम से कम ततब्बबत को चीन का ततब्बती क्षिे मानने की वपछले तरे सालों से ो र ी गलती तो छोड ी देनी चाह ये।”(21)

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य बात लोह या ने 13 जनू 1961 की ैदराबाद की पे्रस िाताथ में क ी थी दरूदशी लोह या लगभग एक बरस बाद ोने िाले भारत-चीन यदु्ध को देख र े थे। जबकक ने रू ह िंदी-चीन भाई-भाई के नारों के शोर में चीनी िडयिंि को न ीिं समझ पाये।

इस तर की गलततयााँ कर सत्ता ने एक तर के सिंशय की ल्स्थतत उत्पनन कर दी भािािाद, क्षेििाद, सािंप्रदातयकता, जैसी चुनौततयों से देश जझूने लगा और ल्जस आजादी को इस देश की जनता ने इतनी मलु्श्कलों और कुबाथतनयों के बाद ालसल ककया था उस आजादी से जनता का मो भिंग ोने लगा। इस जनता के कई तबके थे एक मातसथिाद स ेप्रभावित तबका था और दसूरा गााँधीिाद से प्रभावित। एक और तबका भी था जो देश में समाजिाद की स्थापना चा ता था स्िी, मजदरू, आहदिालसयों और दललतो की ल्स्थतत को सधुारना चा ता था। मातसथिाद की एक धारा तो माओ से प्रभाि ग्र ण कर नतसलिादी सिंगठन में पररितत थत ो गई और इस धारा ने ह िंसक और गोररल्ला पद्धतत से सिंघिथ आरिंभ ककया जो आज तक जारी ै। इस नतसलिाद की उत्पल्त्त के तार क ीिं न क ीिं ने रू के औद्योधगक और विकासिादी मॉडल से जाकर जुडत े ैं। नतसलिादी आिंदोलन पर म ाश्िेता देिी ने एक बे द मालमथक रचना ललखी ‘ ज़ार चौरासी की मााँ’ ल्जस पर इसी नाम से ह िंदी में कफल्म भी बनी। य रचना बिंगाल में यिुाओिं में स्िातिंर्योत्तर मो भिंग से उपजे रोि और उनके सत्ता द्िारा िूरतापणूथ दमन को ब ुत प्रभािशाली ििंग से हदखाती ै। नतसलिाद पर ह िंदी में नागाजुथन और भोजपरुी में गोरख पािंडये ने म त्िपणूथ कविताएाँ ललखीिं ैं। नतसलिाद उन वपछड ेइलाकों और क्षिेों में उभरा ज ााँ सरकारी योजनाएाँ लसफथ काग़ज़ों में ी कायथरत थी। उडीसा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, आहद क्षेि अपने सिंसाधनों के ललए विश्ि में विख्यात ै और परेू भारत के ललये इन सिंसाधनों का इस्तमेाल ककया जाता ै लेककन इन सिंसाधनों पर सबस े प ला क ल्जन तनिालसयो का ै उन े ी इससे बेदखल ककया जाता ै। जारों सालों स ेजिंगल में आहदिासी लोग र त ेआए ै। रामायण, म ाभारत जैसे म ाकाव्य इसके प्रमाण ैं। इन आहदिालसयों को कभी सिंस्कृतत के नाम पर तो कभी सरकारी योजनाओिं के नाम पर बेदखल करने की सरकारी कोलशशें लगातार चलती र ती ैं। साह त्य में इन जनािंदोलनों पर िीरेद्र जैन ने ‘डूब’ और ‘पार’ जैसे उनयास ललख ेजो सरकार की विकास की अिधारणा को चनुौती देत े ैं और सालों परुाने भलूम अधधग्र ण काननू की पोल खोलत े ैं। सत्तर और अस्सी के दशक के छाि आिंदोलन(ज.े पी. मिूमेंि) और आपातकाल पर सैंकडों कविताएाँ ललखीिं गईं। दुट्यिंत कुमार ने आपातकाल के विरोध स्िरूप जो गजल ललखी िो कुछ यों ै –

“एक भखूा आदमी ै देश में या यों क े

इस अिंधेरी कोठरी में एक रोशनदान ै

कल ी मे कफ़ल में लमला िो चीथड ेप ने ुए

मैंने पछूा नाम तो बोला के ह िंदसु्तान ै।“

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उपरोतत गज़ल में ह िंदसु्तान के चररि को ल्जस फिे ाल ल्स्थतत में हदखाया गया ै ि उसकी तात्काललक ल्स्थतत थी। अस्सी और नब्बे के दशक की कालाबाज़ारी, घसूखोरी, और लिू पर भी साह त्यकारों ने अपनी कलम चलायी। ये दशक आिंदोलन, डताल और धरने के दशक भी ैं। क ीिं नमथदा बचाओ आिंदोलन तो क ीिं भ्रटिाचार विरोधी आिंदोलन ने सिंपणूथ देश को आिंदोललत ककया ै। और ऐसा देखा गया ै कक इन आिंदोलनों में गााँधी की विचारधाराओिं को आगे बिाने िाले लोगों का नेततृ्ि लमला ै कफर चा े राममनो र लोह या ों या जयप्रकाश नारायण, मधेा पािकर ों या अनना ज़ारे ये सभी गााँधीिादी लोग ैं। ककशन पिनायक ने नमथदा बचाओ आिंदोलन को एक कें द्रीय आिंदोलन के रूप में व्याख्यातयत करत े ुए ललखा ै कक “नमथदा बचाओ आिंदोलन मारे समय का एक कें द्रीय आिंदोलन ै। कें द्रीय आिंदोलन का मतलब ै कक अपनी प्रततबद्धता, सिंघिथशीलता, शािंततमयता और रचनात्मकता के कारण उसको जो नतैतक प्रततटठा और म त्ि लमला। उसके चलत े ब ुत सारे जनािंदोलनों में मनोबल पदैा ुआ ै।.. इस आिंदोलन के साथ जुडकर नौजिानों और बवुद्धजीवियों की एक नई पीढ़ी का आकिथण एक िकैल्ल्पक विचारधारा की ओर बढ़ र ा ै।“(22) गााँधीिादी सत्याग्र और डताल के माध्यम से सत्ता को चुनौती देत े ैं और सरकार को अपने िूरतम काननू िापस लेने के ललये बाध्य करत े ैं। इन आिंदोलनों में मारे साह त्यकारों की प्रत्यक्ष एििं परोक्ष रूप से भलूमका र ती ै। जनािंदोलनों के प्रभाि से ये साह त्यकार और उनका साह त्य अछूता न ीिं ै। य काल जन-आिंदोलनों के उभार का काल ै। आपातकाल के बाद ोने िाले चुनािों में सत्ताधारी कािंग्रेस के एकाधधकार या तानाशा ी को अगर चुनौती दी जा सकी तो उनमें जन-आिंदोलनों की भलूमका सिाथधधक र ी। सत्ता पररितथन में इन आिंदोलनों की भलूमका र ी ै नब्बे और सन ्2000 से प ल ेजनािंदोलनों को अपने को विकलसत करने के ललये नेततृ्ि की आिश्यकता ोती थी लेककन 16 हदसिंबर के दालमनी या तनभथया केस ने य हदखा हदया कक अब सिंचार और खासकर इिंिरनेि िािंतत ने नेततृ्ि का दारोमदार सिंभाला ै। ज ााँ छािों और लोगों की भीड ककसी लालचिश इकट्ठा न ीिं ोती बल्ल्क ि अपनी जागरूकता और जरूरतों के ललेये सरकार और सिंसद को चुनौती देती ै। अब जनता अपने प्रतततनधधयों का इिंतज़ार न ी करती कक ि ेसिंसद और विधानसभाओिं में बलात्कार और भ्रटिाचार के खखलाफ काननू बनिाएिंगे बल्ल्क आज जनता एक दबाि सम ू के रूप में काम करती ै ल्जसे लसफथ एक स ी हदशा देने की ज़रूरत ै सत्ता को ल्जसके आगे झकुना ी पडता ै। नब्बे के बाद ललखीिं क ातनयााँ इस पक्ष की िकालत करती ैं। नब्बे के बाद उभरे नि-उदारीकरण और िशै्िीकरण के दौर ने ल्जन आिंदोलनों को जनम हदया ै उसने स्िी, दललत और आहदिासी विमशथ के साथ-साथ अल्स्मतामलूक विमशथ का झिंडा भी ऊाँ चा ककया ै। इसी दौर में उदय प्रकाश ‘मो नदास’ के चररि के माध्मस स ेप चान के सिंकि को दशाथत े ैं। िे ‘ततरीछ’ क ानी में श र की िूरताओिं और उसमें एक ग्रामीण की प चान कैस ेआकर खो जाती ै और श र एक खलनायक बन जाता ै इसे बड ेमालमथक ढ़िंग से प्रस्ततु करत े ै। लशिमतूत थ ने अपने लघ-ुउपनयास ‘आखखरी छलााँग’ में पािंड ेबाबा के चररि के

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माध्यम से भलूम सधुार आिंदोलन की आड में सरकार के उपजाऊ जमीनों को डपने की पोल खोली ै और इसका विरोध ककया ै।

इस प्रकार अगर म गौर करें तो जनािंदोलन और साह त्य एक ी मिंल्जल को लकेर साथ-साथ चले ैं और एक नज़ररये से देखें तो साह त्य भी जनािंदोलन ी ै तयोंकक इसका जुडाि एक व्यापक जनसम ू से ोता ै अपने चररि में य जनसम ू की अलभव्यल्तत भी ोता ै। जनािंदोलनों को लेकर जो विचार साह त्य में पदैा ोता ै दरअसल ि ी विचार प्रततबद्धता का स्िर लेकर साह त्य में विचारधारा का रूप धारण कर लेता ै। इसललए साह त्य में ल्जतने आिंदोलन सकिय ुए या जो अभी भी जारी ैं उन ें जनािंदोलनों से शल्तत लमलती र ी ै। साह त्य की कोलशश उस शल्तत को आत्मसात और कियािंवित करने मे तनह त र नी चाह ये।

सिंदभथ-ग्रिंथ सूची

1. पे्रमचिंद प्रतततनधध सिंकलन (सिं.) ठाकुर, खगेंद्र (प्रधान सिंपा.) लस िं , नामिर नेशनल बकु रस्ि, इिंडडया प ला सिंस्करण 2002, आिलृ्त्त 2006 पटृठ सिंख्या 12

2. आज़ादी के तराने (खण्ड-दो) प्रभात प्रकाशन हदल्ली प्रथम सिंस्करण 2008 पटृठ 72

3. इिंकलाब १८५७ सिंपा. पी.सी जोशी अन.ु ीरालाल कनाथिि, नेशनल बकु रस्ि, इिंडडया पटृठ 209

4. ह िंद स्िराज – गााँधी जी अन.ु अमतृलाल ठाकोरदास, नाणाििी निजीिन प्रकाशन मिंहदर, अ मदाबाद 14

5. आज़ादी के तराने (खण्ड-दो) प्रभात प्रकाशन हदल्ली प्रथम सिंस्करण 2008 पटृठ 07

6. http://dainiktribuneonline.com/2010/12/ 7. भारत ददुथशा – भारतेंद ु ररश्चिंद्र

8. अिंधेर नगरी – भारतेंद ु ररश्चिंद्र (सिं. परमानिंद श्ीिास्ति) लोकभारती प्रकाशन, इला ाबाद सिंस्करण 2008

9. भारतेंद ु ररश्चिंद्र और ह िंदी निजागरण की समस्याएाँ - शमाथ, रामविलास राजकमल प्रकाशन, हदल्ली प्रथम सिंस्करण 1953 छठी आिलृ्त्त 2004

10. (http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=1703&pageno=1 20/04/13 )

11. प्रेमचिंद - रिंगभलूम, मनोज पल्ब्लकेशन ,चााँदनी चौक हदल्ली 06 , सिंस्करण 2005 पटृठ 64

12. ि ी 13. ि ी, पटृठ 65

14. JAWAHARLAL NEHRU’s speeches VOLUME-4 Publication Division, New Delhi, First Published

Aug 1964, Second Edition May,1983

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15. जिा रलाल ने रू के भािण (भाग-1) प्रकाशन विभाग, भारत सरकार प्रथम सिंस्करण १९७९ तीसरा सिंस्करण 1997 पटृठ 06

16. भारतनामा खखलनानी, सनुील(अन.ु अभय कुमार दबेु) राजकमल प्रकाशन हदल्ली प ला सिंस्करण 2001 आिलृ्त्त 2006 पटृठ 141

17. मेरी क ानी ने रू, जिा रलाल सस्ता साह त्य मिंडल नई हदल्ली सिंस्करण 2009 पटृठ 78

18. अज्ञेय काव्य स्तबक (सिं. शा , रमेशचिंद्र) साह त्य अकादमी हदल्ली प्रथम सिंस्करण 1995 पनुमुथद्रण 2012 पटृठ 152

19. ि ी, पटृठ 73

20. मलु्ततबोध रचनािली – 3 (सिं. जैन, नेमीचिंद्र) राजकमल प्रकाशन, हदल्ली प्रथम सिंस्करण 1980 द्वितीय आिलृ्त्त 2007 पटृठ 167

21. राममनो र लोह या रचनािली – 7 (भारत, चीन और उत्तरी सीमाएाँ) पटृठ 44

22. भारतीय राजनीतत पर एक दृल्टि (गततरोध, सिंभािना और चुनौततयााँ – पिनायक, ककशन (सिं. अशोक सेकसररया, सनुील) राजकमल प्रकाशन , नयी हदल्ली इला ाबाद प्र.सिं. 2006 पटृठ 239