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Top ic 1 –
शेर की शादी में चूहे को देखकर हाथी ने पूछा - "भाई तुम इस शादी में किस हैसियत से आये हो?" चूहा बोला, " जिस शेर की शादी हो रही है, वह मेरा छोटा भाई है।" हाथी का मुँह खुला का खुला रह गया, बोला, "शेर और तुम्हारा छोटा भाई?" चूहा - "क्या कहूँ? शादी के पहले मैं भी शेर ही था।" यह तो हुई मजाक की बात, लेकिन पुराने समय से ही दुनिया का मोह छोड़कर, सच की तलाश में भटकनेवाले भगोड़ों को सही रास्ते पर लाने के लिए, शादी कराने का रिवाज़ हमारे समाज में रहा है। कई बिगड़ैल कुँवारों को इसी पद्धति से आज भी रास्ते पर लाया जाता है। हम सबने कई बार देखा-सुना है कि तथाकथित सत्य की तलाश में भटकने को तत्पर आत्मा, शादी के बाद पत्नी को प्रसन्न करने के लगातार भटकती रहती है। कहते भी हैं कि "शादी वह संस्था है जिसमें मर्द अपनी 'बैचलर डिग्री' खो देता है और स्त्री 'मास्टर डिग्री' हासिल कर लेती है।"
प्रायः शादी के पहले की ज़िंदगी पत्नी को पाने के लिए होती है और शादी के बाद की ज़िंदगी पत्नी को ख़ुश रखने के लिए। तक़रीबन हर पति के लिए पत्नी को ख़ुश रखना एक अहम और ज्वलंत समस्या होती है और यह समस्या चूँकि सर्वव्यापी है, अतः इसे हम चाहें तो राष्ट्रीय (या अंतर्राष्ट्रीय) समस्या भी कह सकते हैं। लगभग प्रत्येक पति दिन-रात इसी समस्या के समाधान में लगा रहता है, पर कामयाबी बिरलों के भाग्य में ही होती है। सच तो यह है कि आदमी की पूरी ज़िंदगी पत्नी को ही समर्पित रहती है और पत्नी है कि ख़ुश होने का नाम ही नहीं लेती। अगर ख़ुश हो जाएगी तो उसका बीवीपन ख़त्म हो जाएगा, फिर उसके आगे-पीछे कौन घूमेगा? किसी ने ठीक ही तो कहा है कि "शादी और प्याज में कोई ख़ास अन्तर नहीं - आनन्द और आँसू साथ-साथ नसीब होते हैं।"
पत्नी को ख़ुश रखना इस सभ्यता की संभवतः सबसे प्राचीन समस्या है। सभी कालखण्डों में पति अपनी पत्नी को ख़ुश रखने के आधुनिकतम तरीकों का इस्तेमाल करता रहा है और दूसरी ओर पत्नी भी नाराज़ होने की नई-नई तरक़ीबों का ईजाद करती रहती है। एक बार एक कामयाब और संतुष्ट-से दिखाई देनेवाले पति से मैंने पूछा- 'क्यों भाई पत्नी को ख़ुश रखने का उपाय क्या है?' वह नाराज़ होकर बोला- 'यह प्रश्न ही गलत है। यह सवाल यूँ होना चाहिए था कि पत्नी को भी कोई ख़ुश रख सकता है क्या?' उन्होंने तो यहाँ तक कहा कि "शादी और युद्ध में सिर्फ़ एक अन्तर है कि शादी के बाद आप दुश्मन के बगल में सो सकते हैं।"
जिस पत्नी को सारी सुख-सुविधाएँ उपलब्ध हों, वह इस बात को लेकर नाराज़ रहती है कि उसका पति उसे समय ही नहीं देता। अब बेचारा पति करे तो क्या करे? सुख-सुविधाएँ जुटाए या पत्नी को समय दे? इसके बरअक्स कई पत्नियों को यह शिकायत रहती है कि मेरे पति आफिस के बाद हमेशा घर में ही डटे रहते हैं। इसी प्रकार के आदर्श-पतिनुमा एक इन्सान(?) से जब मैंने पूछा कि 'पत्नी को ख़ुश रखने का क्या उपाय है?' तो उसने तपाक से उत्तर दिया-'तलाक।' मुझे लगा कि कहीं यह आदमी मेरी ही बात तो नहीं कह रहा है? मैं सोचने लगा, " 'विवाह' और 'विवाद' में केवल एक अक्षर का अन्तर है शायद इसलिए दोनों में इतना भावनात्मक साहचर्य और अपनापन है।"
पतिव्रता नारियों का युग अब प्रायः समाप्ति की ओर है और पत्नीव्रत पुरुषों की संख्या,प्रभुत्व और वर्चस्व लगातार बढत की ओर है। यदि इसका सर्वेक्षण कराया जाय तो प्रायः हर दसरा पति आपको पत्नीव्रत मिलेगा। मैंने सोचा क्यों न किसी अनुभवी पत्नीव्रत पति से मुलाकात करके पत्नी को ख़ुश रखने का सूत्र सीखा जाए। सौभाग्य से इस प्रकार के एक महामानव से मुलाकात हो ही गई, जो इस क्षेत्र में पर्याप्त तजुर्बेकार थे। मैंनेv अपनी जिज्ञासा जाहिर की तो उन्होंने जो भी बताया, उसे अक्षरशः नीचे लिखने जा रहा हूँ, ताकि हर उस पति का कल्याण हो सके, जो पत्नी-प्रताड़ना से परेशान हैं -
१ - ब्रह्ममुहुर्त में उठकर पूरे मनोयोग से चाय बनाकर पत्नी के लिए 'बेड टी' का प्रबंध करें। इससे आपकी पत्नी का 'मूड नार्मल' रहेगा और बात-बात पर पूरे दिन आपको उनकी झिड़कियों से निजात मिलेगी। वैसे भी, किसी भी पत्नी के लिए पति से अच्छा और विश्वासपात्र नौकर मिलना मुश्किल है, इसलिए इसे बोझस्वरूप न लें, बल्कि सहजता से युगधर्म की तरह स्वीकार करें। कहा भी गया है कि "सर्कस की तरह विवाह में भी तीन रिंग होते हैं - एंगेजमेंट रिंग, वेडिंग रिंग और सफरिंग।"
२ - अगर आपका वास्ता किसी तेज़-तर्रार किस्म की पत्नी से है तो उनके तेज में अपना तेज (अगर अबतक बचा हो तो) सहर्ष मिलाकर स्वयं निस्तेज हो जाएँ। क्योंकि कोई भी पत्नी तेज-तर्रार पति की वनिस्पत ढुलमुल पति को ही ज्यादा पसन्द करती है। इसका यह फायदा होगा कि आप पत्नी से गैरजरूरी टकराव से बच जाएँगे, अब तो जो भी कहना होगा, पत्नी कहेगी। आपको तो बस आत्मसमर्पण की मुद्रा अपनानी है।
३- आपकी पत्नी कितनी ही बदसूरत क्यों न हो, आप प्रयास करके, मीठी-मीठी बातों से यह यकीन दिलाएँ कि विश्व-सुन्दरी उनसे उन्नीस पड़ती है। पत्नी द्वारा बनाया गया भोजन (हालाँकि यह सौभाग्य कम ही पतियों को प्राप्त है) चाहे कितना ही बेस्वाद क्यों न हो, उसे पाकशास्त्र की खास उपलब्धि बताते हुए पानी पी-पीकर निवाले को गले के नीचे उतारें। ध्यान रहे, ऐसा करते समय चेहरे पर शिकायत के भाव उभारना वर्जित है, क्योंकि "विवाह वह प्रणाली है, जो अकेलापन महसूस किए बिना अकेले जीने की सामर्थ्य प्रदान करती है।"
४ - पत्नी के मायकेवाले यदि रावण की तरह भी दिखाई दे तो भी अपने वाकचातुर्य और प्रत्यक्ष क्रियाकलाप से उन्हें 'रामावतार' सिद्ध करने की कोशिश में सतत सचेष्ट रहना चाहिए।
५ - आप जो कुछ कमाएँ, उसे चुपचाप 'नेकी कर दरिया में डाल' की नीति के अनुसार बिल्कुल सहज समर्पित भाव से अपनी पत्नी के करकमलों में अर्पित कर दें और प्रतिदिन आफिस जाते समय बच्चों की तरह गिड़गिड़ाकर दो-चार रूपयों की माँग करें। पत्नी समझेगी कि मेरा पति कितना बकलोल है कि कमाता खुद है और रूपये-दो रूपयों के लिए रोज मेरी खुशामद करता रहता है। एक हालिया सर्वे के अनुसार लगभग पचहत्तर प्रतिशत पति इसी श्रेणी में आते हैं। मैं अपील करता हूँ कि शेष पच्चीस प्रतिशत भी इस विधि को अपनाकर राष्ट्र की मुख्यधारा में सम्मिलित हो जाएँ और सुरक्षित जीवन-यापन करें।
अंत में उस अनुभवी महामानव ने अपने इस प्रवचन के सार-संक्षेप के रूप में यह बताया कि उक्त विधियों को अपनाकर आप भले दुखी हो जाएँ, लेकिन आपकी पत्नी प्रसन्न रहेगी और उनकी मेहरबानी के फूल आप पर बरसते रहेंगे। किसी ने बिलकुल ठीक कहा है कि "प्यार अंधा होता है और शादी आँखें खोल देती है।" मेरी भी आँखें खुल गई। कलम घिसने का रोग जबसे लगा, साहित्यिक मित्रों की आवाजाही घर पर बढ़ गई। चाय-पानी के चक्कर में जब पत्नी मुझे पूतना की तरह देखती तो मेरी रूह काँप जाती थी। मैंने इससे निजात पाने का रास्ता ढूँढ ही लिया।
आपने फूल कई रंगों के देखे होंगे, लेकिन साँवले या काले रंग के फूल प्रायः नहीं दिखते। मैंने अपने नाम 'श्यामल' के आगे पत्नी का नाम 'सुमन' जोड़ लिया। हमारे साहित्यिक मित्र मुझे 'सुमनजी-सुमनजी' कहकर बुलाते हुए घर आते। धीरे-धीरे नम्रतापूर्वक मैंने अपनी पत्नी को विश्वास दिलाने में आश्चर्यजनक रूप से सफलता पाई कि मेरे उक्त क्रियाकलाप से आखिर उनका ही नाम तो यशस्वी होता है। अब मेरे घर में ऐसे मित्रों भले ही स्वागत-सत्कार कम होता हो, पर मैं निश्चिन्त हूँ कि अब उनका अपमान नहीं होगा। किसी ने ठीक ही कहा है कि "विवाह वह साहसिक-कार्य है जो कोई बुजदिल पुरुष ही कर सकता है।"vko
बढ़े बालों से योग प्रशिक्षण के रिश्ते
इन दिनों योग बहुत फरफरा रहा हैं। जिसे देखों वही हाथ, पाँव, गर्दन, पेट, पीठ, आदि ऊँचा नीचा आड़ा तिरछा करने में जुटा हुआ है। लोग सासों पर साँसे लिये चले जा रहे है। और ज़ोर ज़ोर से लिए चले जा रहे हैं। अब कोई नहीं कहता कि गिनी चुनी साँसें मिली हैं अगर जल्दी जल्दी ले लोगों तो जल्दी राम (देव) नाम सत्य हो जायेगा। ऐसा लगता है जैसे- जल्दी जल्दी लेकर साँसों का हिसाब रखने वाले को गच्चा देने की कोशिश कर रहे हों। वह पूछता होगा कि आज कितनी लीं, तो योग करने वाला, सात हज़ार लेकर कहता होगा कि, पाँच हज़ार ही ली हैं महाराज !
बच्चे, बूढ़े, औरतें सब एक छोटे से ड्राइंग रूम में टी.वी. के सामने लद्द पद्द हुऐ जा रहे हैं किसी की टाँग उत्तर को जा रही है तो किसी का सिर रसातल की ओर जा रहा है। शरीर का कोई भी भाग किसी भी दिशा में असामान्य तरीके से मोड़ा जाये या मोड़ने का प्रयास किया जाये तो उस क्रिया को किसी आसन का नाम दिया जा सकता है, जिसे वे लोग कर रहें हैं। चैन की नींद सोये हुए बच्चों को उठा कर उससे योग कराया जा रहा है तथा गुस्से में वह जो लात घूँसे फटकार रहा है उसे शायद लन्तंग फन्तंग आसन कहते होंगे । बाबा जी देख सकते तो धीर गंभीर स्वर में बतलाते कि यह आसन बहुत उपयोगी है, इसके करने से शरीर में उत्पन्न आवेश बाहर निकलता है और थोड़ी देर में चित्त शांत हो जाता है। मैने भी एक बार मेहमाननवाज़ी करते हुये मेज़बानों की खुशी के लिए उनके साथ टी.वी के सामने आसन करने का धर्म निभाया था पर ऐसा करते समय मेरी लात सीधे बाबा जी के मुँह में लगी और वे अर्न्तध्यान हो गये। मैं समझा कि बुरा मान गये हैं और मुझे शाप देने के लिए शब्द कोश देखने चले गये होंगे पर समझदार मेज़वान ने अपने अनुभवी परीक्षण के बाद बताया कि ऐसा नहीं है अपितु सच्चाई यह है कि तुम्हारे पाद प्रहार से टी.वी फुक गया है। रही बाबा जी की बात सो वे अभी भी पड़ोसी के यहाँ सिखला रहें है। मैने शर्मिन्दा होना चाहा पर सच्चे मेजबान ने मुझे शर्मिन्दा नही होने दिया अपितु छत पर सूख रहें मेरे एक जोड पेंट शर्ट को बन्दर द्वारा ले जाना घोषित कर दिया।
योग में हस्त एवं पद का यहाँ वहाँ फटकारे जाने को तो किसी न किसी र्तर्क में फिट किया जा सकता है पर उसका बालों से क्या सम्बंध है ये मैं अभी तक नहीं समझ पाया। मैंने टी.वी. पर जितने भी योग गुरू देखे उनके बालों और दाढी को स्वतंत्रता पूर्वक फलते फूलते देखा। यदि किसी की दाढ़ी नही बड़ी होती तो बाल बड़े होते हैं। मुझे नहीं पता कि क्या बालों से हाथ पाँव ठीक चलते हैं या साँसें तेजी से बहती हैं। आखिर कुछ तो होगा जो ये लोग बाल और दाढ़ी बढ़ाये मिलते हैं। हो सकता है ठीक तरह से योग करने पर बाल तेजी से बढ़ते हों। मुढ़ाने की प्रथा ने भी इसी कारण अपना स्थान बनाया होगा। एक बार सफाचट करा लो और योग करो,तो फौरन बढ़ जायेगे।
योग अब धर्म का स्थान ग्रहण करता जा रहा है। पहले अतिक्रमण करने के लिए किनारे की ओर धर्मस्थल बना लिया जाता था जिससे धार्मिक अनुयायी उस अतिक्रमित स्थल की रक्षा करना अपना धर्म समझते थे। अब लोग अतिक्रमण की जगह योगाश्रम खोल लेते हैं और नगर निगम के अतिक्रमण हटाओं दस्ते के आने पर भारतीय संस्कृति और योग विद्या पर किया गया आक्रमण बताने लगते हैं। कुछ तो इसे कोका कोला आदि विदेशी कम्पनियों के इशारे पर की गई कार्यवाही निरूपित करते हुये इतना कोलाहल करते हैं कि अतिक्रमण की बात ही तूती की आवाज़ होकर रह जाती है। आप उद्योग खोलकर कर्मचारियों का वेतन दबा सकते हैं या चाहे जब उन्हें नौकरी से बाहर कर सकते हैं । यदि कोई यूनियन बनाये और अपनी मजदूरी माँगे तो योगाश्रम का बोर्ड आपकी रक्षा करेगा। आप कह सकते हैं कि हमारे योग के विरोध में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के ऐजेन्ट भारतीय संस्कृति के खिलाफ षडयंत्र कर रहें है।
योगी होने से आप विदेशी कम्पनियों के निशाने पर होने का ढोंग फैला जेड श्रेणी सुरक्षा माँग सकते हैं और विदेश जाने के मौके पा सकते हैं। इमरजैसी में धीरेन्द्र ब्रम्हचारी ने भी खूब योग सिखाया था पर बाद में देशी बन्दूकों पर विदेशी मुहर लगाने वाला उनका कारखाना चर्चा में आया था। चन्द्रास्वामी तो एक प्रधानमंत्री के धर्मगुरू थे व धर्मज्ञान देने अनेक मुस्लिम देशों के प्रमुखों के मेहमान होते थे। मेरी कामना है कि प्राचीनतम योग की ताज़ा हवा खूब देर तक चले और लोगों के कब्ज ढीले करे। ऐलोपेथी दवाओं की जगह आयुर्वेदिक दवाओं की दुकानें चलें तथा उन दवाओं को बनाने वाली कंम्पनियों का मालिक कोई योग गुरू ही हो।
वैसे बाबा के योग सिखाने वाले कार्यक्रम के दोनों सिरों और बीच में उन कंपनियों के विज्ञापन दिखाये जा सकते हैं जिनमें बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के उत्पादनों को बेचने के लिए सुन्दर ललनाएँ अपने रूप का छोंक लगा रही हों। आप मान सकते हैं कि इन ललनाओं ने अपना रूप योग से ही सँवारा होगा।
Topic 3
नव-रात्र आ गये है! नवधा शक्ति के धरती की चेतना में अवतरण का काल! अंतःकरण में दैवी भाव के स्फुरण और अनुभवन का काल! आकाश प्रकाशित, दिशायें निर्मल, पुलकभरा पुण्य समीर, जल की तरलता जीवनदायी शीतलता से युक्त सूर्य की प्रभायें तृण-तृण को उद्भासित करती हुई। दिव्य ऊर्जा के अबाध संचरण का काल, अंतश्चेतना के पुनर्नवीना होने oकी पावन बेला! साक्षात्कालरूपिणी, जगत् की क्रियात्मिका वृत्ति की संचालिका और समस्त विद्याओं, कलाओं में व्यक्त होने वाली ज्ञान स्वरूपिणी, महा शक्ति का पदार्पण, जो पञ्चभूतों को निरामय करती हुई चराचर में नई चेतना का संचार करने को तत्पर है।
स्वरा - अक्षरा जहाँ एक रूप हो सारी मानसिकताओं के मूल में स्थित हैं उस सर्व-व्याप्त परमा-शक्ति को सादर प्रणाम! उस चिन्मयी के आगमन का आभास ही मन को उल्लासित करता है और उसके रम्य रूपों का भावन चित्त को दिव्य भावों से आपूर्ण कर देता है! फिर विचार उठता है केवल मन-भावन रूप ही रम्य क्यों? वे विकराल रूप जिन्हें वह परम चेतना आवश्यकतानुसार धारण करती है, क्या कम महत्व के हैं। उन में भी मन उतना ही रमने लगे तो वे भी रम्य प्रतीत होंगे। वे प्रचंड रूप जो और भी आवश्यक हैं सृष्टि की रक्षा और सुचारु संचालन के लिये उन्हें पृष्ठभूमि में क्यों छोड़ दें। कृष्णवर्णा, दिग्वसना, मुण्डमालिनी भीमरूपा भयंकरा! वह भी एक पक्ष है, जिसके बिना सृष्टि की सुरक्षा संभव नहीं, कल्याण सुरक्षित नहीं। अपने ही हिसाब से क्यों सोचते है हम! जो अच्छा लगता है उतना ही स्वीकार कर समग्रता से दृष्टि फेरना क्या पलायन नहीं है? संसार के विभिन्न पक्ष हैं सबके भिन्न गुण हैं। अलग-अलग भूमिकाओं में व्यक्त होनेवाली मातृशक्ति प्रत्येक रूप में वन्दनीया है। वह अवसर के अनुरूप रूप धरती है और अपनी विभूतियों में क्रीड़ा करती हुई नित नये रूपों में अवतरित होती है।
वह सर्वमंगला सारे स्वरूपों में मनोज्ञा है, पूज्या है, उसके सभी रूप महान् हैं, जगत् के लिये काम्य और कल्याणकारी हैं। अपने सुख और सीमित स्वार्थ से ऊपर उठ समग्रता में देखें तो यहाँ कुछ भी अनुपयोगी नहीं, कुछ भी त्याज्य नहीं, यथावसर सभी कुछ वरेण्य है। उन सारे रूपों द्वारा ही उसकी पूर्ण अभिव्यक्ति हो सकती है।
सौन्दर्य और रम्यता की हमारी धारणा संतुलित नहीं रह पाती। रौद्र- भयंकर के विलक्षण और भव्य सौन्दर्य की अनुभूति हृदय में दीर्घ तरंगों के आवर्त रच देती है। भयावहता के रस का स्वाद चेतना को उद्वेलित करता है झकझोरता है। पर उसे वही ग्रहण कर पाता है जो प्रकृति के भयंकर रूपों के साथ स्वयं को संयोजित कर ऊर्जस्वित हो सके। जो जीवन के तारतम्य में मृत्यु को सहज सिरधार सके। रौद्र की भयंकरता से जान बचाकर भागने के बजाय कराल कालिका की क्रूरता के पीछे छिपी करुणा की अंतर्धारा का भावन कर आह्लादित हो सके। उसके विलक्षण रूप के साक्षात् का साहस रखता हौ,और वीभत्स को कुत्सित समझने स्थान पर उसमें छिपी विकृतियों के मूल तक जा सके। कुछ प्राणी ऐसे भी होते हैं जो बिजलियों की कौंध और गरजते आँधी तूफ़ान से घबरा कर कमरे में दुबकने के बजाय -सामने आ कर प्रकृति मे होते उस ऊर्जा-विस्फोट से उल्लसित होते हैं उसे अन्तर में उच्छलित आवेग के साथ जीना चाहते हैं। ऐसे लोगों को कोई सिरफिरा समझे तो समझे पर उनकी उद्दाम चेतना जिस विराट् का साक्षात्कार करना चाहती है उसे समझाया नहीं जा सकता। ऐसे ही लोग मृत्यु को भी जीने मे समर्थ होते हैं।
केवल अपनी प्रसन्नता के लिये माँ की सम्पूर्णता को उसके विराट् स्वरूप को पृष्ठभूमि में क्यों छोड़ दें! वह भी एक पक्ष है, जिसके बिना सृष्टि की सुरक्षा, उसका कल्याण संभव नहीं। हम चाहते हैं अपने ही हिसाब से जो हमें अच्छा लगे वही ग्रहण करे सिर्फ़ वही क्यों? मीठा-मीठा गप्प और कड़वा-कड़वा थू! फिर कड़ुआहट कहाँ जायेगी? एक साथ इकट्ठा होकर जला डालेगी। इससे अच्छा है दोनों में संतुलन बैठा लिया जाय। अलग-अलग भूमिकाओं में प्रकट होनेवाली चिन्मयी, मंगलमयी के लीला लास के सभी रूप श्रेयस्कर हैं। संकुचित मनोभावना से ऊपर उठ समग्रता में देखें तो वही सर्वव्याप्त महा-प्रकृति है यहाँ कुछ भी अनुपयोगी नहीं, कुछ भी त्याज्य नहीं, यथावसर सभी कुछ वरेण्य है। उन सारे रूपों द्वारा ही उसकी पूर्ण अभिव्यक्ति हो सकती है। इसीलिये उसका एक नाम व्याप्ति है।
माँ तो माँ है! प्रसन्न होकर स्नेह लुटायेगी तो कुपित होने पर दंडित भी करेगी, दोनों ही रूपों में मातृत्व की अभिव्यक्ति है। अवसर के अनुसार व्यवहार ही गृहिणी की कुशलता का परिचायक है, फिर वह तो परा प्रकृति है विराट् ब्रह्माण्ड की, संचालिका - परम गृहिणी। उस की सृष्टि में कोई भाव आवश्यक और उपयोगी है। भाव की चरम स्थितियाँ -ऋणात्मक और, धनात्मक -कृपा-कोप,प्रसाद-अवसाद, सुखृदुख ऊपर से परस्पर विरोधी लगती हैं, एकाकार हो पूर्ण हो उठती हैं। उस विराट् चेतना से समरूप - वही पूर्ण प्रकृति है। उसका दायित्व सबसे बड़ा है अपनी संततियों के कल्याण का। हम जिसे क्रूर -कठोर समझते हैं अतिचारों के दमन के लिये वह रूप वरेण्य है।
'अव्याकृता हि परमा प्रकृतिस्त्माद्या'
देवी के सभी रूप सृष्टि की स्थति के लिये हैं, जीवन के किसी न किसी पक्ष की बड़ी गहरी अंतर्दृष्टि देते हुये। संसार की सारी स्त्रियों के सारे रूप इस एक दैवी शक्ति में समाहित हो जाते है। नारीत्व अपने संपूर्म रूप में व्यक्त होता है। जगत् की सब नारियों में वह मातृशक्ति व्यक्त हो रही है। और इसे इस प्रकार वर्णित किया है -
एक ही चेतना के प्रकृति और परस्थिति के संयोग से कितने रूप निर्मित होते हैं यह अवधारणा देवी के स्वरूपों में व्यक्त हुई है उसकी व्याप्ति सत् की परम अवस्था से तम की चरम अवस्था तक है एक ओर शुद्ध सात्विक सरस्वती और दूसरी सीमा साक्षात् तमोगुणा महाकाली। इनके मध्य में स्थित हैं महालक्ष्मी - रजोगुण स्वरूपा। दो विरोधी लगनेवाले गुणों के संयोग से रचित, द्विधात्मिका सृष्टि का पोषण करती हुई। अपने सूक्ष्म रूप में वह वाक्, परा-अपरा, सभी विद्याओं में, कलाओं में, ज्ञान-विज्ञान में सरस्वती है। वह स्वभाव से करुणामयी है अपने प्रतिद्वंद्वी के प्रति भी दयामयी।
महादैत्य पहचानता नहीं है इस शक्ति को, उसके वास्तविक स्वरूप को, और उसे वशवर्तिनी बनाना चाहता है, अपनी लिप्सापूर्ति के लिये अपने अहं को तुष्ट करने के लिये। शुम्भ या निशुम्भ की भार्या बनने के प्रस्ताव का कैसा प्रत्युत्तर -वह घोषणा करती है मैं पहले ही प्रण कर चुकी हूँ, 'जो युद्ध में मुझे जीत सके, जो मुझसे अधिक बलशाली हो मैं उसी की भार्या हो सकती हूँ।'
यही है नारीत्व की चिर-कामना कि उसके आगे समर्पित हो जो मुझसे बढ़ कर हो। इसी मे नारीत्व की सार्थकता है और इसी में भावी सृष्टि के पूर्णतर होने की योजना। असमर्थ की जोरू बन कर जीवन भर कुण्ठित रहने प्रबंध कर ले, क्यों? पार्वती ने शंकर को वरा, उनके लिये घोर तप भी उन्हें स्वीकीर्य है। शक्ति को धारण करना आसान काम नहीं। अविवेकी उस पर अधिकार करने के उपक्रम में अपना ही सर्वनाश कर बैठता है। जो समर्थ हो, निस्पृह, निस्वार्थ और त्यागी हो, सृष्टि के कल्याण हेतु तत्पर हो, वही उसे धारण कर सकता है- साक्षात् शिव। नारी की चुनौती पाकर असुर का गर्व फुँकार उठता है, अपने समस्त बल से उसे विवश कर मनमानी करना चाहता है। वह पाशविक शक्ति के आगे झुकती नहीं, पुकार नहीं मचाती कि आओ, मेरी रक्षा करो! दैन्य नहीं दिखाती -स्वयं निराकरण खोजती है - वह है पार्वती। उन्हें बचाने शिव दौड़ कर नहीं आते। स्वयं निराकरण करने में समर्थ है -वह साक्षात् शक्ति है। शिव, जगत की शुभाशंसा, को दूत बना कर भेजती है - शायद असुर चेत जाये।
शक्ति कभी परमुखापेक्षी विवश निरीह और अश्रुमुखी नहीं हो सकती। देवी जानती हैं शिव ध्वंसक भूमिका में उतर आये तो प्रलय निश्चित है -जला डालेंगे अपनी क्रोधाग्नि में सबको।सृष्टि बचे या न बचे। वह स्वयं आगे बढ़ युद्ध-यज्ञ में आहुतियाँ देती हैं मत्त नर की मूढ़ता की उसकी पशुवत् लिप्साओं की और उसके अहंकार की। दुर्दम रक्तबीज का शोणित पान कर शेष सृष्टि को निर्भय करती है। जिसके रक्त की एक बूँद भी शेष रह जाये तो सारी सृष्टि का सुख-चैन दाँव पर लगा रहता है जिसके अस्तित्व की एक कणिका भी धरती पर बची रहे तो नई-नई आवृत्तियाँ रच लेती है।उसकी जीवनी-शक्ति को संपूर्ण रूप से पी डालती है। रण-मत्त होकर परास्त कर देती है उसके सारे बल को।
ऐसे रूप को सामने पाकर स्तब्ध रह गया होगा - विमूढ़। कोई प्रतिकार, कोई प्रत्युत्तर नहीं बचा होगा उसके पास। परिणाम वही जो होना था। नारी पर बल के प्रयोग जब जब हुये तब तब अंत दुखद रहा। महा प्रकृति अपने संपूर्ण स्वरूप में पूज्या है, उसके सभी रूप वरेण्य हैं, जगत् के लिये काम्य और कल्याणकारी हैं। माँ के कोप में भी करुणा की अंतर्धारा विद्यमान है। दण्ड पा चुके महिषासुर को सायुज्य प्रदान करती है, अपने से जोड़ लेती है, सदा के लिये। भटका हुआ प्राणी माँ की छाया में चिर- आश्रय पा लेता है।
माँ के विराट् स्वरूप में तीनों गुण समाहित हैं। शक्ति स्वयं को अपने क्रिया-कलापों में अभिव्यक्त करती है। अपनी विभूतियों समेत क्रीड़ा करती हुई वह नित नये रूपों में अवतरित होती है। वही वाक् हैं जो सूक्ष्म रूप से सभी विद्याओं में कलाओं में ज्ञान-विज्ञान में व्याप्त है वह अपार करुणामयी है किसी को वञ्चित नहीं करती चाहे वह उसका प्रबल शत्रु रहा हो वह सभी रूपों में करुणामयी है। शिव को दूत रूप में भेज कर वह चेतावनी देती है, विनाश से पहले ही सँभल जाओ। शिव को दूत बना कर भेजती है - शायद असुर चेत जाये। उन्हें बचाने शिव दौड़ कर नहीं आते। वे जानती हैं शिव अपनी भूमिका में उतर आये तो प्रलय निश्चित है -जला डालेंगे अपनी क्रोधाग्नि में सबको। सृष्टि बचेगी नहीं। वह स्वयं आगे बढ़ युद्ध-यज्ञ में आहुतियाँ देती हैं मत्त नर की मूढ़ता की उसकी पशुवत् लिप्साओं की और उस अहंकारी व्यक्तित्व की जिसके अस्तित्व की एक कणिका भी धरती पर बची रहे तोकर नई-नई आवृत्तिया रच लेती है। उसकी जीवनी-शक्ति को संपूर्ण रूप से पी डालती है। रक्तबीज का शोणित पान कर शेष सृष्टि को निर्भय करती है।
वह नहीं चेतता तो वध करती है उसकी कुत्साओं का, लालसाओं का, अज्ञान का और अहंकार का और उसके सद्यप्राप्त शुद्ध स्वरूप को अपने से संयुक्त कर लेती है। यह सामर्थ्य और किसमें है कि अपने शत्रु पर पर भी करुणा करे।
नव –रात्रियाँ उसी के धरती पर अवतरण के शुभ-दिवस हैं। वह धरती की पुत्री है -हिमालय की कन्या। अपने मायके मे पदार्पण करती है हर वर्ष अट्ठारह दिनों के लिये - वासंती और शारदीय नव-रात्रों में। धरती के लिये वे दिन उत्सव बन जाते हैं। नई चेतना का नवराग धरा के कण-कण में पुलक भरता है। मंदिरों में धूम, देवी के स्थानों की यात्रायें शुरू -आनन्द उल्लास में नर-नारी नाच उठते हैं। उनके माध्यम से जीवन रस ग्रहण कर रही है वह आनन्दिनी। देवी सर्वमंगला है। धरती पर विचरण करने निकलती है, शिव को साथ लेकर और अपनी संततियों का कष्ट दूर करती है। शिव उनका स्वभाव जानते हैं, किसी को दुखी नहीं देख सकती वे, उनकी नगरी में कोई भूखा नहीं सो सकता। वे स्वयं अन्न का पात्र लेकर उसके पास पहुँच जाती हैं। वह व्यक्ति साक्षात् अन्नपूर्णा को उनके धरे हुये वेश में पहचाने या न पहचाने!
पार्वती और शंकर के दाम्पत्य में दोनों समभाव पर स्थित हैं अधिकारी, अधीन अनुसरण कर्ता, प्रधान गौण का संबंध कहीं नहीं दिखाई देता। नारी और पुरुष सम भाव से स्थित! उनका व्यक्तित्व ऐसा सहज और सुलभ है कि हर कहीं प्रतिष्ठित हो सकता है।।
पुरुष अपनेआप में अकेला है और नारी अपनी कलाओं मध्य क्रीड़ा करती हुई नये-नये रूपों में अवतरित होती है -लीला-कलामयी है। उसके दो चरम रूप -सृष्टि के पोषण के लिये वत्सला पयोधरा और विनाश के लिये प्रचण्डा कालिका। रक्त की अंतिम बूँद तक पी जानेवाली। मेरे मन में विचार आता है यदि पुरुष अकेले संतुष्ट है अपने आप में पूर्ण है तो अनेक क्यों होना चाहता है - 'एकोहंबहुस्यम ' की ज़रूरत क्यों पड़ती है उसे, जो वह प्रकृति का सहारा लेता है। वह अविककारी है तो उसमें कामना क्यों जागती है? वह दृष्टा मात्र है तो लीला क्यों करता है?
हिमालय से कन्याकुमारी तक और गुजरात से बंगाल तक देवी कितने-कितने नाम-रूपों से लोक-जीवन में बसी हुई है हर आंचल हर भाषा,हर जीवनशैली के अनुरूप पार्वती लोक-जीवन में प्रतिष्ठित हैं। यहाँ तक कि हर मन्दिर में नव-रूप धारण कर नये संबोधनों में विराज रही हैं, आधुनिक नामों से भी -शाजापुर (म.प्र.) की रोडेश्वरी देवी! कहीं वे ग्वाले की पुत्री हैं -वास्तव में कृष्ण की भगिनी रूप में यशोदा के गर्भ से जन्म लेकर क्रूर कंस के हाथों से स्यं को छुड़ा कर आकाश मार्ग से गमन कर विन्ध्याचल मे जा विराजी थीं -कहीं ज्वालारूपा, कहीं कूष्माण्डा (कानपुर की कुड़हा देवी)। काली गौरी, धूम्रा श्यामा। उनके नाम और रूपों की कोई सीमा नहीं।
भारतीय नारी के हर त्यौहार पर पार पार्वती ज़रूर पुजती हैं, उनसे सुहाग लिये बिना विवाहताओं की झोली नहीं भरती। सहज प्रसन्नमना हैं गौरा। कोई अवसर हो मिट्टी के सात डले उठा लाओ और चौक पूर कर प्रतिष्ठत कर दो, गौरा विराज गईं। पूजा के लिये भी फूल-पाती और जो भी घर में हो खीर-पूरी, गुड़, फल, बस्यौड़ा और जल। दीप की ज्योति भी उनका स्वरूप है ज्वालारूपिणी वह भी जीमती है! पुष्प की एक पाँखुरी का छोटा सा गोल आकार काट कर रोली से रंजित कर गौरा को बिन्दिया चढ़ाई जाती है। और बाद में सातों पिंडियों से सात बार सुहाग ले वे कहती हैं। माँ ग्रहण करो यह भोग और भण्डार भर दो हमारा। अगले वर्ष फिर इसी उल्लास से पधारना और केवल हमारे घर नहीं हमारे साथ साथ, बहू के मैके, धी के ससुरे, हमारे दोनों कुलों की सात-सात पीढ़ियों तक निवास करो। विश्व की कल्याण-कामना इस गृहिणी के, अन्तर में निहित है क्योंकि यह भी उसी का अंश है, उसी का एक रूप है। यह है हमारे पर्वों और अनुष्ठानों की मूल-ध्वनि!
माँ, आविर्भूत होओ हमारे जीवन में, करुणा बन बस जाओ हृदय में, शक्ति स्वरूपे, समा जाओ मेरे तन-मन में! जहाँ तक मेरा अस्तित्व है तुमसे अभिन्न रहे! अपनी कलाओं में रमती हुई मेरी चेतना के अणु-अणु में परमानन्द की पुलक बन विराजती रहो!
Topic 4
भारतीय संस्कृति अपनी विशिष्ट पहचान के कारण सदैव विश्व के लिए आदरणीय एवं वन्दनीय रही है। प्राचीन भारत की लोक कल्याणकारी भाईचारे और समन्वय की भावना ने विश्व को शान्ति, समता और अंहिसा का मार्ग दिखाया। विश्व में जगतगुरू के नाम से भारत की पहचान रही है। यहाँ के लोगों की अपनी एक अध्यात्मिक सोच रही है। कुटुम्बकम की भावना, जनमानस के लिए प्रेरणा की आदर्श रही है। इसके प्रमुख कारण यह हैं कि समाज सामाजिक सम्बन्धों का जटिल जाल होता है और इन सम्बन्धों का निर्माता स्वयं मनुष्य है। सामाजिक प्राणी के रूप में मनुष्य ही समाज में संगठन एवं व्यवस्था स्थापित करते हुए इसे प्रगति एवं गतिशीलता की दिशा में ले जाने हेतु सदैव प्रयत्नशील रहा है। इसलिए पुरुष स्वःभावता अहंकारी हो गया और वह अपनी स्थिति सामाजिक परिवेश में सर्वोच्च स्तर में रखने को उत्सुक हो गया। यही मनोभाव पुरुष को वर्चस्ववाद की ओर ले गया। उसने यदि स्त्री को अधिक पढ़ी लिखी जागरूक, तर्कशील, बुद्धिमान पाया तो अपने को अन्दर ही अन्दर ख़तरा महसूस करने लगा। यही सर्वोच्चता के ख़तरे का डर एक झूठा अहंकारवाद का शिकार व्यक्ति बर्दाश्त नहीं कर पाया, क्योंकि पुरुष स्वभावतः अहंकारी है। वह अपनी सामाजिक स्थिति को सर्वोच्चता में रखकर देखता है और स्त्री को निम्न स्तर पर रखता है। यदि स्त्री अधिक पढ़ी लिखी, जागरूक, तर्कशील, बुद्धिमान है तो उसकी सर्वोच्चता को शायद ख़तरा पैदा हो जायेगा और झूठे अहंकारवाद का शिकार व्यक्ति यह सब कैसे सहन कर लेगा कि स्त्री की सामाजिक आर्थिक स्थिति उससे सर्वोच्च हो जाये या उसके बराबर। आज तक यही होता आया है और आज भी उसके भीतर यही सोलहवीं शताब्दी की सोच काम कर रही है कि स्त्री उसकी निजी सम्पत्ति है लेकिन इस सम्पत्ति की गुणवत्ता को वह कतई बढ़ाना नहीं चाहता। उसे कमजोर करके रखने में ही अपनी सुरक्षा समझता है। पुरुष के मन में यह भय असुरक्षा की भावना और स्त्री को दबाकर कुचलकर नियन्त्रण में रखने की स्त्री विरोधी दृष्टि सदियों से काम कर रही है। राजतंत्र का राजा अपने लिए सोलह हज़ार रानियाँ जुटा सकता था। प्रजातंत्र का क्लिंटन व्हाइट हाउस में मोनिका लेविंस्की से यौनाचार कर सकता है। मध्य और निम्नवर्ग भी कोई अपवाद नहीं है। कभी सौतन, कभी सहेली, कभी कजिन, कभी क्लाईंट, कभी कुलीग, कभी कुछ और, औरत के दिल में वह लगातार छेद करता आया है। अब विद्वत्जनों को सौतियाडाह एवं फीमेल जैलिसी के पुलिगो-रकीबो-डाह एवं ’मेल जैलिसी‘ को शब्दकोशीय मान्यता दे देनी चाहिए।
परन्तु आज शिक्षित-कामकाजी, अधिकार-सजग, बौद्धिक, अर्थ-स्वतंत्र पत्नियों ने पुरुषों के लिए समस्याएँ खड़ी कर दी है। शिक्षा राजनीति खेल, धर्म, फिल्म, सेना, साहित्य, प्रशासन, मीडिया, संविधान और विज्ञान ने नए क्षितिज खोल खोल दिये हैं। अनुगामिनी एक दिन सहगामिनी बन जाएगी, आदम की पसली से जन्म लेने वाली उसके सम्मुख हकूक की बात करेगी, पौराणिक कथाओं का अध्ययन करने वाली विश्वविद्यालयों में लॉ क्लासेज लगाएगी अथवा नारीवादी नारे उछालेगी, नाखूनों से लेकर सिर के बालों तक अपने को ढककर तीर्थयात्राएँ करने वाली के प्राण ब्यूटी पॉर्लर में बस जायेंगे, बालायें अन्तरिक्ष को मुट्ठी में भर लेंगी - ऐसा पति-परमेश्वरों ने कभी नहीं सोचा था।
जैसे-जैसे समाज में नारी की निरीह स्थिति में बदलाव आया है और वह अबला से सबला बनने की तरफ़ अग्रसर हुई है, वह अपने अधिकारों के प्रति सजग और सचेत हुई है। पुरुष तंत्रात्मक समाज के बंधनों के ख़िलाफ़ उसने विद्रोह किया है। स्त्री के क्रांतिवीर तेवर से परिवार की बुनियाद हिल गयी है और पारिवारिक विघटन भिन्न-भिन्न रूपों में समाज में पसरता जा रहा है। पुरुष का परम्परागत मानस स्त्री के मौलिक अधिकारों को स्वीकार नहीं कर पाता। वह दबाना चाहता है और स्त्री अपनी गुलाम मानसिकता वाली छवि सती-साध्वी या पति-परमेश्वरी को तोड़कर अपना स्वतंत्र वजूद बनाना चाहती है। सामंती समाज में स्त्री माँ, बहन, पत्नी, प्रेमिका, दासी आदि के रूप में थी-उसका अपना अलग वजूद नहीं था। आधुनिकता और बौद्धिकता के कारण वह अपने निज स्वरूप और अपनी भावनाओं एवं इच्छाओं के प्रति सचेत हुई है। इस सजगता से टकराहट होती है और यहीं से सम्बन्धों में दरार पड़नी शुरू हो जाती है। अभी भी पुरुष स्त्री में परम्परागत कुल लक्ष्मी/कुल वधू वाले स्वरूप को ही ढूँढता है, वह उसी का आकांक्षी है। स्त्री का आधुनिक होना उसे बर्दाश्त नहीं है उसे वह कुलटा और परिवार तोड़ने वाली आदि विशेषणों से नवाजने लगता है। उस पर चरित्र हीनता और स्वैराचार का आरोप लगाता है।
’समर्पण लो सेवा का सार‘ कहकर प्रसाद जी नारी के उसी सामंती रूप को प्रोत्साहित करते हैं जो अपनी सारी आकांक्षाओं को पुरुष के चरणों में समर्पित कर देती है। अपने व्यक्तित्व को पुरुष के ’महान‘ व्यक्तित्व में गला-घुला देती है। आधुनिक स्त्री नर-नारी समता में विश्वास करती है। जहाँ पुरुषों से वह किसी मायने में कम नहीं है। इस तथ्य को डॉ. रमेश कुन्तल मेघ भी स्वीकार करते है - “आजकल नारी की ऐतिहासिक कर्म भूमिकाएँ (गृहिणी, धात्री, जननी, उपचारिका, सेविका, दासी आदि) जो शय्या और रसोई की धुरी में केन्द्रित थी, अब बदल रही है। वह गृह के बाहर काम धन्धों को अपना रही है। और गृह के अन्दर की नीरस मजदूरी से स्वतंत्र हो रही है। गृह की धुरी के ढीला होने एक साथ ही विवाह की संस्था के अस्तित्व पर प्रश्न उठ रहे हैं अर्थात् श्रम के विभान (घरे और बाहिरे) की सामंती आधार टूट रहे हैं और नई स्त्री ’एक-यौनता की धारणा को स्वीकार कर रही हैं।”
’समर्पण लो सेवा का सार‘ कहकर प्रसाद जी नारी के उसी सामंती रूप को प्रोत्साहित करते हैं जो अपनी सारी आकांक्षाओं को पुरुष के चरणों में समर्पित कर देती है। अपने व्यक्तित्व को पुरुष के ’महान‘ व्यक्तित्व में गला-घुला देती है। आधुनिक स्त्री नर-नारी समता में विश्वास करती है। जहाँ पुरुषों से वह किसी मायने में कम नहीं है। इस तथ्य को डॉ. रमेश कुन्तल मेघ भी स्वीकार करते है - “आजकल नारी की ऐतिहासिक कर्म भूमिकाएँ (गृहिणी, धात्री, जननी, उपचारिका, सेविका, दासी आदि) जो शय्या और रसोई की धुरी में केन्द्रित थी, अब बदल रही है। वह गृह के बाहर काम धन्धों को अपना रही है। और गृह के अन्दर की नीरस मजदूरी से स्वतंत्र हो रही है। गृह की धुरी के ढीला होने एक साथ ही विवाह की संस्था के अस्तित्व पर प्रश्न उठ रहे हैं अर्थात् श्रम के विभान (घरे और बाहिरे) की सामंती आधार टूट रहे हैं और नई स्त्री ’एक-यौनता की धारणा को स्वीकार कर रही हैं।”
स्त्री विमर्श की महीन और व्यापक जानकारी पाने के लिए विश्वस्तर पर घटने वाली चार घटनाओं को रेखांकित करना बेहद जरूरी है।
प्रथम, १७८९ की फ्रांसीसी क्रांति जिसने स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसी चिरवांछित मानवीय आकांक्षाओं को नैसर्गिक मानवीय अधिकार की गरिमा देकर राजतंत्र और साम्राज्यवाद के बरक्स लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के स्वस्थ और अभीप्सित विकल्प को प्रतिष्ठित किया।
द्वितीय, भारत में राजा राममोहन राय की लम्बी जद्दोजहद के बाद १८२९ में सतीप्रथा का कानूनी विरोध जिसने पहली बार स्त्री के अस्तित्व को मनुष्य के रूप में स्वीकारा।
तृतीय, सन् १८४८ ई. में सिनेका फालस न्यूयार्क में ग्रिम के बहनों की रहनुमाई में आयोजित तीन सौ स्त्री-पुरुष की सभा जिसने स्त्री दासत्व की लम्बी शृंखला को चुनौती देते हुए स्त्री मुक्ति आन्दोलन की नींव धरी।
चतुर्थ, १८६७ में प्रसिद्ध अंग्रेज दार्शनिक और चिंतक जॉन स्टुअर्ट मिल द्वारा ब्रिटिश पार्लियामेंट में स्त्री के वयस्क मताधिकार के लिए प्रस्ताव रखा जाना जिससे स्त्री-पुरुष के बीच स्वीकारी जाने वाली अनिवार्य कानून और संवैधानिक समानता की अवधारणा को बल दिया।
संयुक्त रूप से ये चारों घटनायें एक तरफ़ से विभाजक रेखाएँ हैं जिसके एक ओर पूरे विश्व में स्त्री उत्पीड़न की लगभग एक सी यूनीवर्सल परम्परा है तो दूसरी ओर इससे मुक्ति की लगभग एक सी तड़प और अकुलाहट भरी संघर्ष कथा।
भारतीय सन्दर्भ में स्त्री-विमर्श दो विपरीत ध्रुवों पर टिका है। एक ओर परम्परागत भारतीय नारी की छवि है जो सीता और सावित्री जैसे मिथकों में अपना मूर्त रूप पाती है। दूसरी ओर घर परिवार तोड़ने वाली स्वार्थी (होम ब्रेकर) और कुलटा रूप में विख्यात पाश्चात्य नारी की छवि है जो अक्सर पुरानी फिल्मों में खलनायिका के रूप में उकेरी जाती है। साहित्य-जीवन की भावनात्मक अभिव्यक्ति होते हुए भी भावनाओं द्वारा अनुशासित नहीं होता। मूलतः वह बीज रूप में विचार से बँधा होता है जिसका पल्लवन-पुष्पन भविष्य में होता है तो जड़ों का जटिल जाल सुदूर अतीत तक चला जाता है। अपने भौतिक अस्तित्व से ऊपर उठकर विराट को महसूसने की क्षमता ही लेखक के ज्ञान और संवेदना को उन्मुक्त और घनीभूत करते हुए विजन का रूप दे डालती है। यह विजन ही मुक्तिबोध के शब्दों में ज्ञान को ’संवेदनात्मक ज्ञान‘ और संवेदना को ’ज्ञानात्मक संवेदन‘ का रूप दे रचना में वांछित बौद्धिक संयम और अनुशासन बनाए रखता है। आलोचक को धड़कते जीवन से सीधे मुखातिब होना है, एक हाथ जीवन की नब्ज पर रखकर दूसरे हाथ से जीवन को प्रतिबिम्बित करती रचनाओं की नब्ज को टटोलना है। इसका दायित्व दोहरा और चुनौती भरा है विमर्श का अर्थ है जीवन्त बहस। साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो विचार का विचार और वर्चस्व की प्राप्ति। अंग्रेज़ी में इसके लिये ’डिस्कोर्स‘ शब्द का प्रयोग किया जाता है। किसी भी समस्या या स्थिति को एक कोण से न देखकर भिन्न मानसिकताओं, दृष्टियों, संस्कारों और वैचारिक प्रतिबद्धताओं का समाहार करते हुए उलट-पुलट कर देखना, उसे समग्रता से समझने की कोशिश करना और फिर मानवीय संदर्भों में निष्कर्ष प्राप्ति की चेष्टा करना। अर्थात किसी विषय पर अभी तक जो लेखन या विचार होता आया है उस पर पुनः विचार कर उसकी दशा और दिशा का मूल्यांकन करना।
भोर की ख़ुमार भरी नींद तोड़ने के लिए ’देवरानी जेठानी की कहानी‘ और भाग्यवती सरीखी-रचनाओं को निश्शंक भाव से प्रभात फेरियों का दर्जा दिया जा सकता है। समाज सुधार के सजग और सायास गढ़े उद्देश्य, पात्र, कथानक और घटनाओं से बुनी इन रचनाओं में राममोहन राय, विद्यासागर, रानाडे, महर्षि कर्वे, महर्षि दयानन्द तक के समाज सुधार आँदोलन की परम्परा, अनुगूँज और छाप साफ दिखाई पड़ती है। बाल विवाह विरोध, विधवा विवाह समर्थन, स्त्री शिक्षा (जिसकी पाठ्यक्रम अनिवार्यता स्त्रियोपयोगी विषयों जैसे सिलाई, बुनाई, कढ़ाई से अटा पड़ा है। लड़कों को दी जाने वाली विज्ञान जैसी आधुनिक शिक्षा से पूर्णतया वंचिता और आवश्यकता पड़ने पर आर्थिक स्वावलम्बन पर बल आज बहुत ही साधारण और हास्यास्पद से मुद्दे जान पड़ते हैं, लेकिन उस समय इनकी अहमियत थी। सन् १८६० ई. में विद्यासागर बहुत ही मशक्कत के बाद कानूनी तौर पर लड़कियों के लिये विवाह की न्यूनतम आयु दस वर्ष करा पाये थे। सन् १८२९ ई. में बहुतेरे प्रयासों के बाद यह आयु बढ़ाकर तेरह वर्ष ही हो पाई थी। अठारह वर्ष न्यूनतम आयु का प्रावधान शारदा ऐक्ट १८५६ ई. के बाद ही सम्भव हो पाया था जबकि ’भाग्यवती‘ में श्रद्धाराम फिल्लौरी पं. उमादत्त के जरिये लड़के और लड़की के विवाह की न्यूनतम आयु क्रमशः ग्यारह और अठारह का संदेश देकर वक्त से थोड़ा आगे चलने का संकेत देते हैं।
सदी का वर्क बदलने पर हिन्दी साहित्य में उभरने वाला स्त्री-विमर्श इतना जड़, उपदेशात्मक और इकहरा नहीं रह गया था। लेकिन यह भी तय है कि उनका रेखांकन अब भी पुरुष और परिवार के संदर्भ में ही किया जाता था। इसकी प्रमुख वजह थी सामाजिक राजनीति जीवन में पुरुष नायकों के साथ स्त्रियों की प्रत्यक्ष भागीदारी। प्रारम्भ में समाज सुधारकों के परिवारों की स्त्रियाँ प्रादेशिक स्तर पर आम जनता के उद्बोधन का मंत्र फूंकने आगे बढ़ाई गई थीं, वक्त के साथ उन्होंने दो उल्लेखनीय कार्य किये। प्रथम, वैयक्तिक तौर पर परिवार के पुरुष अनुशासन, दिशा निर्देशन से मुक्त हो स्वायत्त सत्ता महसूस की। दूसरे, अपनी आवाज को संगठित कर अखिल भारतीय पहचान देने की कोशिश की। सन् १८१७ ई. में ’वीमेंस इंडियन एशोसिएशन‘ की स्थापना, सन् १९२५ ई. में ’नेशनल काउंसिल ऑव वूमैन इन इंडिया‘ की स्थापना और सन् १९२७ ई. में ’अखिल भारतीय महिला परिषद्‘ का अस्तित्व में आना अपने आप में ऐतिहासिक और क्रान्तिकारी घटनायें थीं। जिनकी अनुगूँज आज भी स्वतंत्र भारत के संविधान और कानून में सुनी जा सकती हैं। सन् १९४६ ई. में ’अखिल भारतीय महिला परिषद्‘ द्वारा प्रस्तुत अधिकारों और कर्तव्यों के चार्टर में वर्णित कुछ माँगों को भारतीय संविधान में ज्यों का त्यों स्थान दिया गया। जैसे धारा ४४ के अन्तर्गत लिंग, जाति धर्म के आधार पर सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक क्षेत्र में भेदभाव न किया जाना। धारा १६ के अन्तर्गत लिंग, जाति, धर्म के आधार पर सरकारी नौकरियों और दफ्तरों में भेदभाव न किया जाना। इसने स्त्री को अपनी चिर-पोषित ’अबला‘ छवि को तोड़कर एक नये जुझारू व्यक्तित्व और रचनाशील भूमिका में आविर्भूत होने के लिये प्रेरित किया। सामाजिक उथल-पुथल के इस दौर में हिन्दी कथा साहित्य भी नारी की स्वायत्तता और स्वतंत्र चेतना को शिद्दत से चित्रित करता रहा। लेकिन विडम्बना यह रही कि इस बिन्दु पर आकर लेखक निर्वेयक्तिक नहीं रह पाया। उसका पुरुष अहं या संस्कार, जो भी कहें स्त्री की इस आत्मनिर्भर विचारवान संघर्षशील छवि को स्वीकार नहीं पाया।
हिन्दी के अति आरम्भिक उपन्यासों का उद्भव स्त्री-चेतना से ही हुआ, यह एक अटल सत्य है। स्त्री चेतना के बीज मन्त्र से हिन्दी के अति आरम्भिक उपन्यास अनुप्राणित रहे हैं और इनका प्रारम्भिक उद्देश्य स्त्री चेतना की सर्वप्रथम प्राथमिकता में स्त्री शिक्षा निहित है। प्रथम गद्य रचना ’देवरानी जेठानी की कहानी‘ से स्पष्ट है कि अशिक्षिता और मूर्ख महिलाएँ परिवार के जीवन को अत्यन्त दुःखद और शिक्षित महिलाएँ नरक तुल्यघर को स्वर्ग जैसा सुखद बना देती हैं। “हिन्दी में उपन्यास की रचना का श्रीगणेश स्त्री शिक्षा निमित्त ही हुआ था। इस स्त्री शिक्षा के मूल में स्त्री चेतना ही है। ’देवरानी जेठानी की कहानी‘, ’बामा शिक्षक‘, ’भाग्यवती‘ और ’सुन्दर शीर्षक‘ परीक्षागुरु-पूर्व उपन्यासों में स्त्री चेतना ही मूलाधार है। आधुनिक काल में प्रेमचंद की निर्मला कितनी पच्चीकारी करके सामाजिक कुरीतियों की पृष्ठभूमि में निर्मला के जरिये औसत भारतीय स्त्री की आँसू भरी अनूठी तस्वीर गढ़ने की कोशिश की गई है। उसे तोड़कर सुधा के रूप-रंग-रेखा विहीन चरित्र की आउटलाइंस दिलोदिमाग पर हावी हो जाती है। निर्मला की पीड़ा और दीनता के सेलीब्रेशन से ज्यादा सुधा के चरित्र का आकस्मिक एवं अविश्वसनीय टर्न कहीं ज्यादा ज़रूरी लगता है। दूसरा उदाहरण ’गोदान‘ की मालती के रूप में लिया जा सकता है जिसके पर कतरने के प्रयास में बेचारे प्रेमचंद पसीने-पसीने हो गये हैं। मालती यानी सुशिक्षित, स्वतंत्रचेता आत्मनिर्भर प्रोफेशनल युवती जो पुत्र की तरह घर के दायित्वों को सँभाले है। और मित्र की तरह पुरुष मंडली में घूमती है। वर्जनाओं और कुण्ठाओं से मुक्त एक स्वस्थ व्यक्ति की तरह। उसकी यह पारदर्शी