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ननन - ननननननन नननननन नननननननननन - 33 ननननन - ननननन-न रर

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नाम - प्रशांत तितवारीअनुक्रमांक - 33कक्षा - दसवीं-अ

रस

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रस का शाब्दि�दक अर्थ� है 'आनन्द'। काव्य को पढ़ने या सुनने से

जि&स आनन्द की अनुभूतित होती है, उसे 'रस' कहा &ाता है।

पाठक या श्रोता के हृदय में स्थि0त 0ायीभाव ही तिवभावादिद से संयुक्त होकर रस के रूप में परिरणत हो &ाता है।

रस को 'काव्य की आत्मा' या 'प्राण तत्व' माना &ाता है।

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रस के प्रकार

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शृंगार रस को रसरा& या रसपतित कहा गया है। मुख्यत: संयोग तर्था तिवप्रलंभ या तिवयोग के नाम से दो भागों में तिवभाजि&त तिकया &ाता है, किकंतु धनं&य आदिद कुछ तिवद्वान् तिवप्रलंभ के पूवा�नुराग भेद को संयोग-तिवप्रलंभ-तिवरतिहत पूवा�व0ा मानकर अयोग की संज्ञा देते हैं तर्था शेष तिवप्रयोग तर्था संभोग नाम से दो भेद और करते हैं। संयोग की अनेक परिरस्थि0तितयों के आधार पर उसे अगणेय मानकर उसे केवल आश्रय भेद से नायकारब्ध, नायियकारब्ध अर्थवा उभयारब्ध, प्रकाशन के तिवचार से प्रच्छन्न तर्था प्रकाश या स्पष्ट और गुप्त तर्था प्रकाशनप्रकार के तिवचार से संक्षिक्षप्त, संकीण�, संपन्नतर तर्था समृजिOमान नामक भेद तिकए &ाते हैं तर्था तिवप्रलंभ के पूवा�नुराग या अक्षिभलाषहेतुक, मान या ईश्र्याहेतुक, प्रवास, तिवरह तर्था करुण तिप्रलंभ नामक भेद तिकए गए हैं। शंृगार रस के अंतग�त नायियकालंकार, ऋतु तर्था प्रकृतित का भी वण�न तिकया &ाता है।

1.शृंगार रस

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उदाहरण

संयोग शंृगार बतरस लालच लाल की, मुरली धरिर लुकाय।

सौंह कर,े भौंहतिन हँसै, दैन कहै, नदिX &ाय। -तिबहारी लाल

तिवयोग शृंगार (तिवप्रलंभ शंृगार) तिनसिसदिदन बरसत नयन हमारे,

सदा रहतित पावस ऋतु हम पै &ब ते स्याम सिसधारे॥ -सूरदास

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2.हास्य रस

हास्य रस का स्थायी भाव हास है। ‘साहिहत्यदर्प�ण’ में कहा गया है - "बागादिदवैकृतैश्चेतोहिवकासो हास इष्यते", अर्थाा�त वाणी, रूर्प आदिद के हिवकारों को देखकर चि/त्त का हिवकचिसत होना ‘हास’ कहा जाता है।

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 उदाहरण

 तंबूरा ले मंच पर बैठे पे्रमप्रताप, सा& यिमले पंद्रह यिमनX घंXा भर आलाप। घंXा भर आलाप, राग में मारा गोता, धीरे-धीरे ब्दि^सक चुके र्थे सारे श्रोता। (काका हार्थरसी)

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3. करुण रस भरतमुतिन के ‘नाट्यशास्त्र’ में प्रतितपादिदत आठ नाट्यरसों में शंृगार और हास्य के

अनन्तर तर्था रौद्र से पूव� करुण रस की गणना की गई है। ‘रौद्रातु्त करुणो रस:’ कहकर 'करुण रस' की उत्पक्षित्त 'रौद्र रस' से मानी गई है और उसका वण� कपोत के सदृश है  तर्था देवता यमरा& बताये गये हैं  भरत ने ही करुण रस का तिवशेष तिववरण देते हुए उसके 0ायी भाव का नाम ‘शोक’ दिदया हैI और उसकी उत्पक्षित्त शाप&न्य क्लेश तिवतिनपात, इष्ट&न-तिवप्रयोग, तिवभव नाश, वध, बन्धन, तिवद्रव अर्था�त पलायन, अपघात, व्यसन अर्था�त आपक्षित्त आदिद तिवभावों के संयोग से स्वीकार की है। सार्थ ही करुण रस के अक्षिभनय में अशु्रपातन, परिरदेवन अर्था�त् तिवलाप, मु^शोषण, वैवर्ण्यय�, त्रस्तागात्रता, तिन:श्वास, स्मृतिततिवलोप आदिद अनुभावों के प्रयोग का तिनदlश भी कहा गया है। तिmर तिनवlद, ग्लातिन, सिचन्ता, औत्सुक्य, आवेग, मोह, श्रम, भय, तिवषाद, दैन्य, व्यायिध, &ड़ता, उन्माद, अपस्मार, त्रास, आलस्य, मरण, स्तम्भ, वेपरु्थ, वेवर्ण्यय�, अशु्र, स्वरभेद आदिद की व्यक्षिभचारी या संचारी भाव के रूप में परिरगक्षिणत तिकया है I

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उदाहरण

सोक तिबकल सब रोवकिहं रानी। रूपु सीलु बलु ते&ु ब^ानी॥ करकिहं तिवलाप अनेक प्रकारा। परिरकिहं भूयिम तल बारकिहं बारा॥(तुलसीदास)

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4. वीर रस

शंृगार के सार्थ स्पधा� करने वाला वीर रस है। शृंगार, रौद्र तर्था वीभत्स के सार्थ वीर को भी भरत मुतिन ने मूल रसों में परिरगक्षिणत तिकया है। वीर रस से ही अदभुत रस की उत्पक्षित्त बतलाई गई है। वीर रस का 'वण�' 'स्वण�' अर्थवा 'गौर' तर्था देवता इन्द्र कहे गये हैं। यह उत्तम प्रकृतित

वालो से सम्बO है तर्था इसका 0ायी भाव ‘उत्साह’ है - ‘अर्थ वीरो नाम उत्तमप्रकृतितरुत्साहत्मक:’। भानुदत्त के अनुसार, पूण�तया परिरसु्फX ‘उत्साह’ अर्थवा सम्पूण�

इजिन्द्रयों का प्रहष� या उत्mुल्लता वीर रस है - ‘परिरपूण� उत्साह: सवlजिन्द्रयाणां प्रहषu वा वीर:।’

तिहन्दी के आचाय� सोमनार्थ ने वीर रस की परिरभाषा की है -‘&ब कतिवत्त में सुनत ही व्यंग्य होय उत्साह। तहाँ वीर रस समजिwयो चौतिबयिध के कतिवनाह।’ सामान्यत: रौद्र एवं वीर रसों की पहचान में कदिठनाई होती है। इसका कारण यह है तिक दोनों

के उपादान बहुधा एक - दूसरे से यिमलते-&ुलते हैं। दोनों के आलम्बन शतु्र तर्था उद्दीपन उनकी चेष्टाए ँहैं। दोनों के व्यक्षिभचारिरयों तर्था अनुभावों में भी सादृश्य हैं। कभी-

कभी रौद्रता में वीरत्व तर्था वीरता में रौद्रवत का आभास यिमलता है। इन कारणों से कुछ तिवद्वान रौद्र का अन्तभा�व वीर में और कुछ वीर का अन्तभा�व रौद्र में करने के अनुमोदक हैं, लेतिकन रौद्र रस के 0ायी भाव क्रोध तर्था वीर रस के 0ायी भाव उत्साह में अन्तर स्पष्ट है।

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उदाहरण

वीर तुम बढे़ चलो, धीर तुम बढे़ चलो। सामने पहाड़ हो तिक सिसंह की दहाड़ हो। तुम कभी रुको नहीं, तुम कभी wुको नहीं॥

(द्वारिरका प्रसाद माहेश्वरी)

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5. रौद्र रस

काव्यगत रसों में रौद्र रस का महत्त्वपूण� 0ान है। भरत ने ‘नाट्यशास्त्र’ में शृंगार, रौद्र, वीर तर्था वीभत्स, इन चार रसों को ही प्रधान माना है, अत: इन्हीं से अन्य रसों की उत्पक्षित्त बतायी है, यर्था-‘तेषामुत्पक्षित्तहेतवच्क्षत्वारो रसा: शृंगारो रौद्रो वीरो वीभत्स इतित’ । रौद्र से करुण रस की उत्पक्षित्त बताते हुए भरत कहते हैं तिक ‘रौद्रस्यैव च यत्कम� स शेय: करुणो रस:’ ।रौद्र रस का कम� ही करुण रस का &नक होता हैI

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उदाहरण श्रीकृष्ण के सुन वचन अ&ु�न क्षोभ से &लने लगे। 

सब शील अपना भूल कर करतल युगल मलने लगे॥ संसार दे^े अब हमारे शत्रु रण में मृत पडे़। करते हुए यह घोषणा वे हो गए उठ कर ^डे़॥

(मैसिर्थलीशरण गुप्त)

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6.भयानक रसभयानक रस तिहन्दी काव्य में मान्य नौ रसों में से एक है। भानुदत्त के

अनुसार, ‘भय का परिरपोष’ अर्थवा ‘समू्पण� इजिन्द्रयों का तिवक्षोभ’ भयानक रस है। अर्था�त भयोत्पादक वस्तुओं के दश�न या श्रवण से अर्थवा शत्रु इत्यादिद के तिवद्रोहपूण� आचरण से है, तब वहाँ भयानक रस होता है। तिहन्दी के आचाय� सोमनार्थ ने ‘रसपीयूषतिनयिध’ में भयानक रस की तिनम्न परिरभाषा दी है-

‘सुतिन कतिवत्त में वं्यतिग भय &ब ही परगX होय। तहीं भयानक रस बरतिन कहै सबै कतिव लोय’।

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उदाहरण उधर गर&ती सिसंधु लहरिरयाँ कुदिXल काल के &ालों सी। 

चली आ रहीं mेन उगलती mन mैलाये व्यालों - सी॥

(&यशंकर प्रसाद)

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7. बीभत्स रस बीभत्स रस काव्य में मान्य नव रसों में अपना तिवसिशष्ट 0ान

र^ता है। इसकी स्थि0तित दु:^ात्मक रसों में मानी &ाती है। इस दृयिष्ट से करुण, भयानक तर्था रौद्र, ये तीन रस इसके सहयोगी या सहचर सिसO होते हैं। शान्त रस से भी इसकी तिनकXता मान्य है, क्योंतिक बहुधा बीभत्सता का दश�न वैराग्य की पे्ररणा देता है और अन्तत: शान्त रस के 0ायी भाव शम का पोषण करता है।

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उदाहरण सिसर पर बैठ्यो काग आँ^ दोउ ^ात तिनकारत। 

^ींचत &ीभकिहं स्यार अतिततिह आनंद उर धारत॥ गीध &ांयिघ को ^ोदिद-^ोदिद कै माँस उपारत। स्वान आंगुरिरन कादिX-कादिX कै ^ात तिवदारत॥

(भारतेन्दु)

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8. अद्भतु रसअद्भतु रस ‘तिवस्मयस्य सम्यक्समृजिOरद्भतु: सवlजिन्द्रयाणां ताXस्थ्यं

या’।  अर्था�त तिवस्मय की सम्यक समृजिO अर्थवा समू्पण� इजिन्द्रयों की तX0ता अदभुत रस है। कहने का अक्षिभप्राय यह है तिक &ब तिकसी रचना में तिवस्मय '0ायी भाव' इस प्रकार पूण�तया प्रसु्फX

हो तिक समू्पण� इजिन्द्रयाँ उससे अक्षिभभातिवत होकर तिनश्चेष्ट बन &ाए,ँ तब वहाँ अद्भतु रस की तिनष्पक्षित्त होती है।

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उदाहरण अब्दि^ल भुवन चर- अचर सब, हरिर मु^ में लब्दि^ मातु। 

चतिकत भई गद्गद ्वचन, तिवकसिसत दृग पुलकातु॥

(सेनापतित)

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9. शांत रसशान्त रस सातिहत्य में प्रसिसO नौ रसों में अन्तिन्तम रस माना &ाता है -

"शान्तोऽतिप नवमो रस:।" इसका कारण यह है तिक भरतमुतिन के ‘नाट्यशास्त्र’ में, &ो रस तिववेचन का आदिद स्रोत है, नाट्य रसों के रूप में केवल आठ रसों का ही वण�न यिमलता है। शान्त के उस रूप में भरतमुतिन ने मान्यता प्रदान नहीं की, जि&स रूप

में शंृगार, वीर आदिद रसों की, और न उसके तिवभाव, अनुभाव और संचारी भावों का ही वैसा स्पष्ट तिनरूपण तिकया।

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उदाहरण मन रे तन कागद का पुतला। 

लागै बँूद तिबनसिस &ाय सिछन में, गरब करै क्या इतना॥

(कबीर)

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10. वात्सल्य रस वात्सल्य रस का 0ायी भाव है। माता-तिपता का अपने पुत्रादिद पर &ो नैसर्गिगंक स्नेह होता है, उसे ‘वात्सल्य’

कहते हैं। मैकडुगल आदिद मनस्तत्त्वतिवदों ने वात्सल्य को प्रधान, मौसिलक भावों में परिरगक्षिणत तिकया है, व्यावहारिरक अनुभव भी यह बताता है तिक अपत्य-स्नेह दाम्पत्य रस से र्थोड़ी ही कम प्रभतिवष्णुतावाला मनोभाव है।

संस्कृत के प्राचीन आचाय� ने देवादिदतिवषयक रतित को केवल ‘भाव’ ठहराया है तर्था वात्सल्य को इसी प्रकार की ‘रतित’ माना है, &ो 0ायी भाव के तुल्य, उनकी दृयिष्ट में चवण�य नहीं है

सोमेश्वर भसिक्त एवं वात्सल्य को ‘रतित’ के ही तिवशेष रूप मानते हैं - ‘स्नेहो भसिक्तवा�त्सल्ययिमतित रतेरेव तिवशेष:’, लतेिकन अपत्य-स्नेह की उत्कXता, आस्वादनीयता, पुरुषार्थuपयोतिगता इत्यादिद गुणों पर तिवचार करने से प्रतीत होता है तिक वात्सल्य एक स्वतंत्र प्रधान भाव है, &ो 0ायी ही समwा &ाना चातिहए।

भो& इत्यादिद कतितपय आचाय� ने इसकी सत्ता का प्राधान्य स्वीकार तिकया है। तिवश्वनार्थ ने प्रसु्फX चमत्कार के कारण वत्सल रस का स्वतंत्र अस्तिस्तत्व तिनरूतिपत कर ‘वत्सलता-स्नेह’  को

इसका 0ायी भाव स्पष्ट रूप से माना है - ‘0ायी वत्सलता-स्नेह: पुत्रार्थालम्बनं मतम्’। हष�, गव�, आवेग, अतिनष्ट की आशंका इत्यादिद वात्सल्य के व्यक्षिभचारी भाव हैं। उदाहरण - ‘चलत देब्दि^ &सुमतित सु^ पावै। 

ठुमुतिक ठुमुतिक पग धरनी रेंगत, &ननी देब्दि^ दिद^ावै’  इसमें केवल वात्सल्य भाव वं्यजि&त है, 0ायी का परिरसु्फXन नहीं हुआ है।

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उदाहरण तिकलकत कान्ह घुXरुवन आवत। 

मतिनमय कनक नंद के आंगन तिबम्ब पकरिरवे घावत॥

(सूरदास)

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11. भसिक्त रसभरतमुतिन से लेकर पस्थिर्ण्यडतरा& &गन्नार्थ तक संस्कृत के तिकसी प्रमु^

काव्याचाय� ने ‘भसिक्त रस’ को रसशास्त्र के अन्तग�त मान्यता प्रदान नहीं की। जि&न तिवश्वनार्थ ने वाक्यं रसात्मकं काव्यम् के सिसOान्त का प्रतितपादन तिकया और ‘मुतिन-वचन’ का उल्लघंन करते हुए वात्सल्य को नव रसों के समकक्ष सांगोपांग 0ातिपत तिकया, उन्होंने भी 'भसिक्त' को रस नहीं माना। भसिक्त रस की सिसजिO का वास्ततिवक स्रोत काव्यशास्त्र न होकर भसिक्तशास्त्र है, जि&समें मुख्यतया ‘गीता’, ‘भागवत’, ‘शास्थिर्ण्यडल्य भसिक्तसूत्र’, ‘नारद भसिक्तसूत्र’, ‘भसिक्त रसायन’ तर्था ‘हरिरभसिक्तरसामृतसिसन्धु’ प्रभूतित ग्रन्थों की गणना की &ा सकती है।

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उदाहरण

राम &पु, राम &पु, राम &पु बावरे। 

घोर भव नीर- तिनयिध, नाम तिन& नाव रे॥

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भसिक्तकाल के प्रमु^ कतिव

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1. मीरा बाई मीराबाई कृष्ण-भसिक्त शा^ा की प्रमु^ कवयियत्री हैं। उनका

&न्म १५०४ ईस्वी में &ोधपुर के पास मेड्ता ग्राम मे हुआ र्था कुड्की में मीरा बाई का नतिनहाल र्था। उनके तिपता का नाम रत्नसिसंह र्था। उनके पतित कंुवर भो&रा& उदयपुर के महाराणा सांगा के पुत्र र्थे। तिववाह के कुछ समय बाद ही उनके पतित का देहान्त हो गया। पतित की मृत्यु के बाद उन्हे पतित के सार्थ सती करने का प्रयास तिकया गया तिकन्तु मीरां इसके सिलए तैयार नही हुई | वे संसार की ओर से तिवरक्त हो गयीं और साधु-संतों की संगतित में हरिरकीत�न करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगीं। कुछ समय बाद उन्होंने घर का त्याग कर दिदया और तीर्था�Xन को तिनकल गईं। वे बहुत दिदनों तक वृन्दावन में रहीं और तिmर द्वारिरका चली गईं। &हाँ संवत १५६० ईस्वी में वो भगवान कृष्ण तिक मरू्गित ंमे समा गई । मीरा बाई ने कृष्ण-भसिक्त के सु्फX पदों की रचना की है।

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&ीवन परिरचय

कृष्णभसिक्त शा^ा की किहंदी की महान कवयियत्री हैं। उनकी कतिवताओं में स्त्री पराधीनता के प्रती एक गहरी Xीस है, &ो भसिक्त के रंग में रंग कर और गहरी हो गयी है।मीरांबाई का &न्म संवत् 1504 में &ोधपुर में कुरकी नामक गाँव में हुआ र्था। इनका तिववाह उदयपुर के महाराणा कुमार भो&रा& के सार्थ हुआ र्था। ये बचपन से ही कृष्णभसिक्त में रुसिच लेने लगी र्थीं तिववाह के र्थोडे़ ही दिदन के बाद उनके पतित का स्वग�वास हो गया र्था। पतित के परलोकवास के बाद इनकी भसिक्त दिदन- प्रतितदिदन बढ़ती गई। ये मंदिदरों में &ाकर वहाँ मौ&ूद कृष्णभक्तों के सामने कृष्ण&ी की मूर्गितं के आगे नाचती रहती र्थीं। मीरांबाईका कृष्णभसिक्त में नाचना और गाना रा& परिरवार को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कई बार मीराबाई को तिवष देकर मारने की कोसिशश की। घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान होकर वह द्वारका और वृंदावन गईं। वह &हाँ &ाती र्थीं, वहाँ लोगों का सम्मान यिमलता र्था। लोग आपको देतिवयों के &ैसा प्यार और सम्मान देते र्थे। इसी दौरान उन्होंने तुलसीदास को पत्र सिल^ा र्था :-

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स्वस्तिस्त श्री तुलसी कुलभूषण दूषन- हरन गोसाई। बारकिहं बार

प्रनाम करहूँ अब हरहँू सोक- समुदाई।। घर के स्व&न हमारे &ेते सबन्ह उपायिध बढ़ाई। साधु- सग अरु भ&न करत माकिहं देत कलेस महाई।। मेरे माता- तिपता के समहौ, हरिरभक्तन्ह सु^दाई। हमको कहा उसिचत करिरबो है, सो सिलब्दि^ए समwाई।।

मीराबाई के पत्र का &बाव तुलसी दास ने इस प्रकार दिदया:- &ाके तिप्रय न राम बैदेही। सो नर तजि&ए कोदिX बैरी सम &द्यतिप

परम सनेहा।। नाते सबै राम के मतिनयत सुह्मद सुसंख्य &हाँ लौ। अ&ंन कहा आबँ्दि^ &ो mूXे, बहुतक कहो कहां लौ।।

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पदबसौ मोरे नैनन में नंदलाल।

मोहतिन मूरतित, सांवरी सूरतित, नैना बने तिबसाल।मोर मुकुX, मकराकृत कंुुडल, अस्र्ण तितलक दिदये भाल।

अधर सुधारस मुरली रा&तित, उर बै&ंती माल।छुद्र घंदिXका कदिX तX सोक्षिभत, नूपुर सबद रसाल।मीरां प्रभु संतन सु^दाई, भगत बछल गोपाल।

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