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“ THIS BOOK IS DEDICATED TO MY ANCESTOR “ IS LATE SHRI SATYA NARAYAN SHRIVASTAVA भभभभभ भभभभभभभभभभ भभ भभ भभभभ भभभ भभभभभ भभभभभभभभभभ शशशशशशश शशशश शशशश शशशशशशशशशश 266/128, शशशशशश -26, शशशशशश शशश, शशशशश 8233410757 , 9660413212

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“ THIS BOOK IS DEDICATED TO MY ANCESTOR “IS

LATE SHRI SATYA NARAYAN SHRIVASTAVA

भगवान चि�त्रगुप्त जी के बारे में विवशेष जानकारिरयां

श्रीमती सुधा रानी श्रीवास्तव266/128, सेक्टर -26, प्रताप नगर, जयपुर

8233410757 , 9660413212

पूजन सामग्री:-

१. पूजा का समान - �ंदन , गुलाल , सिसंदूर ,फूल एब माला , धूप , अगरबत्ती , कपूर ,पीला �ावल ,दीपक, दीया , मौली , पान पत्ता - ११, राईइ ,हवन सामग्री ,पूजा सामग्री ,थाली-२ ,कटोरी-4,�म्म�-२ ,नारिरयल १ ,कलश (लोटा,कुम्भ)-1,सुखा नारिरयल (कोपुरु)-1 , , घी२. प्रसाद - मीठाई ओर फल ३. पं�ामृत - गाय का दूध -१ विकलो , ढही ५००ग्राम , घी-२५०ग्राम ,शक्कर १२५ ग्राम , शाहेद ७५ग्राम , ४. वस्त्र - सफेद कपडा १/२ याडF५. कलाम , दावात एबम कागज , कटा र

भगवान चि�त्रगुप् त पूजन विवधिधॐ नमो भगवते चि�त्रगुप् तदेवाय का आवाहन करते हुये धूप, दिदप, �न् दन, लाल पुष् प से पूजन करें श्रद्धानुसार नैवैद्य, खील, भुने �नें, धिमठाई, ऋतुफल का प्रसाद �ढायें। एक कलम विबना चि�री लेकर दवात में पविवत्र जल

चिSडकते हुये प्रभु को ध् यान करें।|| स् वास्थिVवा�न | |

ॐ गणना त् वां गणपवित हवामहे, विप्रयाणां त् वां विप्रयपत हवामहें विनधीनां त् वां विनधिधपते हवामहें वसो मम आहमजाविन गभFधामा त् वमजाचिस गभFधम ।

ॐ गणपत् यादिद पं�देवा नवग्रहा: इन् द्रादिद दिदग् पाला: दुगाFदिद महादेव् य:  इहागच् Sत स् वकीयां पूजां ग्रहीत भगवत: चि�त्रगुप् त देवस् य पूजमं विवध् नरविहतं कुरूत।

ध् यानतच् Sरी रान् महाबाहु:श् याम कमल लो�न:कम् वु ग्रीवोगूढ चिशर: पूणF �न् द्र विनभानन:।।

काल दण् डोस् त् वोवसो हस् ते लेखनी पत्र संयुत:। विन:मत् य दशFनेतस् थौ ब्रहमणोत् वयक् त जन् मन:।।लेखनी खड्गहस् ते �- मचिस भाजन पुस् तक:। कायस् थ कुल उत् पन् न चि�त्रगुप् त नमो नम:।।

मसी भाजन संयुक् तश् �रोचिस त् वं महीतले । लेखनी कदिठन हस् ते चि�त्रगुप् त नमोस् तुते।।चि�त्रगुप् त नमस् तुभ् यं लेखकाक्षर दायक । कायस् थ जावित मासाद्य चि�त्रगुप् त मनोस् तुते।।

योषात् वया लेखनस् य जीविवकायेन विनर्मिमंता । तेषा � पालको यस् भात्रत: शान्तिन्त प्रयच् S मे।।आवाहन

ॐ आगच् S भगवन् देव स् थाने �ात्र स्थिVरौ भव ।यावत् पूजं करिरष् याधिम तावत् वं सधिiधौ भव ।  ॐ भगवन् तं श्री चि�त्रगुप् त आवाहयाधिम स् थापयाधिम ।।

[ दोनो हाथ जोडकर प्रभु चि�त्रगुप् त जी से प्राथFना कीजिजये के हे प्रभु जब तक मैं आपकी पूजा करंू तब तक प्रभु आप यहां विवराजमान रविहये। ]

आसनॐ इदमासनं समपFयामी । भगवते चि�त्रगुप् त देवाय नम: ।।

[ हे प्रभु चि�त्रगुप् तदेव आपका सेवक आवके समक्ष यह आसन समर्पिपतं करता है, कृपया इसे स् वीकार करें ]पाद्य

ॐ पादयो: पादं्य समपFयामी । भगवते चि�त्रगुप् त देवाय नम: ।।[हे प्रभु चि�त्रगुप् त आपके �रण कमल धोने के चिलये मैं जल समर्पिपतं करता हंू इसे स् वीकार करें]

आ�मनॐ मुखे आ�मनीयं समपFयाधिम । भगवते चि�त्रगुप् ताय नम: ।।

[ हे देवाधिधदेव प्रभु चि�त्रगुप् त भगवान यह पविवत्र जल आ�मन के चिलये प्रस् तुत करता हंू इसे स् वीकार करें ] स् नान

ॐ स् नानाथF जलं समपFयाधिम । भगवते श्री चि�त्रगुप् ताय नम: ।।[ हे सनातन देव आप ही जल है, पृथ् वी है, अग्निग्न और वायु है यह सेवक जीवन रूपी जल आपके स् नान हेतु

समर्पिपंत करता है इसे स् वीकार करें ]वस् त्र

ॐ पविवत्रों वस् त्रं समपFयाधिम । भगवते श्री चि�त्रगुप् त देवाय नम: ।।[ हे देवादिददेव, विवज्ञान स् वरूप प्रभु चि�त्रगुप् त जी आपके �रणों में यह सेवक तुच् S वस् त्र भेंट करता है इन् हें स् वीकार

विकजिजयें ]पुष् प

ॐ पुष् पमालां � समपFयाधिम । भगवते श्री चि�त्रगुप् तदेवाय नम: ।।[हे परम उत् तम दिदव् य महापुरूष प्रभु चि�त्रगुप् त भगवान आपके श्री �रणों में यह सेवक सुगन्धिuत पुष् प अर्पिपंत करता

है इन् हे स् वीकार कीजिजयें ]धूप

ॐ धूपं माधापयाधिम । भगवते श्री चि�त्रगुप् तदेवाय नम:।।[हे अन् तFयामी देव आपके श्री �रणों में यह सेवक सुगन्धिuत धूप प्रस् तुत करता है, इसे स् वीकार कीजिजयें ]

दीपॐ दीपं दशFयाधिम । भगवते श्री चि�त्रगुप् त देवाय नम:  

हे देवादिददेव उत् तम प्रकाश से युक् त अंधकार को दूर करने वाला धृतएवं बत् ती युक् त दीप आपके श्री �रणों में प्रकाशमान है इसे स् वीकार कीजिजये।

नैवैद्य ॐ नैवैद्य समपFयाधिम । भगवते श्री चि�त्रगुप् त देवाय नम: ।।  

[हे प्रभु चि�त्रगुप् त जी आपके श्री �रणों में स् वादिदष् ट शुद्ध, मधुर फलों से युक् त नैवैद्य समर्पिपतं करता हंू, इन् हें स् वीकार कीजिजयें ]ताम् बूल- दक्षिक्षणा

ॐ ताम् बूलं समपFयाधिम । ॐ दक्षिक्षणा समपFयाधिम।।  भगवते श्री चि�त्रगुप् तदेवाय नम:  

[ हे प्रभु चि�त्रगुप् तजी आपके श्री �रणों में ताम् बूल एवं दक्षिक्षणा समर्पिपतं करता हंू, इन् हें स् वीकार कीजिजयें ।]लेखनी दवात पूजन

लेखनी विनर्मिमंतां पूवF ब्रह्यणा परमेधिxना | लोकानां � विहताथाFय तस्माताम पूजयाम्ह्यम|| पुस्तके �र्चि�ंता देवी , सवF विवद्यान्न्दा भवः | मदगृहे धन-धान्यादिद- समृजिद्ध कुरु सदा ||

लेखयै ते नमस्तेस्तु , लाभकत्रय{ नमो नमः | सवF विवद्या प्रकाचिशन्ये , शुभदायै नमो नमः ||लेखनी दवात पर शुद्ध जल, रोली, �ावल, पुष् प जल आदिद अर्पिपंत करते हुये प्रभु चि�त्रगुप् त जी एवं धमFराज जी का

ध् यान कीजिजये :- 

श्री चि�त्रगुप्तजी

मनुष्यो के पाप-पुण्य का लेखा जोखा रखन ेवाल े| "एक दिदव्य देव शचि} जो चि�न्तान्त: करण में चि�वित्रत चि�त्रों को पढ़ती है,उसी के अनुसार उस व्यचि} के जीवन को विनयधिमत करती है, अचे्छ-बुरे कम� का फल भोग प्रदान करती है, न्याय करती है।उसी दिदव्य देव शचि} का नाम चि�त्रगुप्त है।" चि�त्रगुप्तजी कायVों के जनक हैं।कम� के अचे्छ बुरे फलों को भोगने के चिलए ही �ौरासी लाख योविनयां हैं। जिजस स्तर के कमF होंगे उसी स्तर का शरीर धिमल जायेगा। कम� का क्रमश सुधार करने के चिलए ही इतनी योविनयां बनार्इFइ हैं। कम� की अच्छार्इFइ बुरार्इFइ का विनणFय कौन करे ? यह शविकत तो ब्रह्मा जी स्वयं भी कताF और भो}ा हैं उनके के पास भी नहीं थी। अत: ब्रह्मा जी न ेदस हजार वषF की दीघF तपस्या की। समाधिध खुलते ही देखा, एक दिदव्य पुरुष सामने उपचिसथत है। वे आश्चयF में भरकर पूSन ेलगे – आप कौन हैं ? कहा से आये हैं ? इसी तथ्य को वेदों में कहा - ‘चि�त्रम उदगाद’ विवचि�त्र देव प्रगट हुए, ब्रह्मा जी के मुख से विनकल पड़ा ‘चि�त्रम’, आप महान आश्चयF हैं, विवचि�त्र हैं आप। मैं नहीं जानता आप ही बताइये आप कौन हैं ? मेरी सृविषट से आप पर ेहैं। आप सम्पूणF प्रकृवित से पार हैं। मेरी इस श्रेx कृवित (प्रकृवित) में आपकी विगनती नहीं है। आप प्रकृवित से पर ेहैं। देवानाम आप सभी देवताओं से दिदव्य हैं। दिदव्यताओं के स्रोत हैं। सौन्दयF के भी सौन्दयF हैं। प्रकाशों के भी प्रकाश। सूयF का प्रकाश आपके सामन ेविनरस्त है, जैसे तारे सूयF के सामने नहीं �मकते वैसे सूयF आपके समक्ष विनस्तेज है। न �न्दमा ही आपके सामने �मकता न तारक मण्डल। विवधुत की दीविपत आपके सामने तेज रविहत है, इस अविगन की तो कोर्इFइ विगनती ही नहीं। वस्तुत: आपके प्रकाश से ही ये सब प्रकाचिशत है। इनमें अपना प्रकाश नहीं है। इन सबके प्रकाशक आप हैं।श्री चि�त्रगुप्त बोले – मैं एकदेशीय नहीं हू विक कहीं बैकुण्ठ कैलास, काशी, मथुरा, अयोध्या आदिद में रहू, मैं तो इन सबमें सवF व्यापक हू, सवFत्र हू - इस धरती के कण-कण में इसके ऊपर सम्पूणF अन्तरिरक्ष में, जहा सूयाFदिद ग्रह घूम रहे हैं, इन ग्रहों से भी परे धौ लोक में, सवFत्र मैं विवराजमान हू। मैं सब के हृदय में विनवास करता हू, घट-घट में समाया हू प्रकृवित में देश काल दिदशा विवदिदशा में व्याप्त हू और इनसे परे भी हू। वेद बताते हैं -श्री चि�त्रगुप्त कथा में कहा है वह कायV है। काया में चिसथत है। उसे शरीर से बाहर वास्तविवक रुप में कोर्इFइ नहीं देख सकता। बाहर तो उसका माधियक रुप दिदखार्इFइ देता है। अवतरिरत रुप दिदखता है। जब वह भ}ों के पुकारने पर साकार बनता है। सगुण बनता है तब अपने धारिरत रुप में दिदखता है। उसका माया रविहत स्वरुप तो कायV है। हृदयV है, आत्मV है। काया देह और शरीर का वास्तविवक अथF एक ही नहीं है। शरीर तो वह है जो जीणF शीणF होता रहता है। देह वह है जिजसका दहन विकया जाता है। विकन्तु काया इनसे दिदव्य है।विवधाता बोले – आप कायV हैं। चि�त्रगुप्त हैं। हमारे पास �ौदह इविनद्रयां हैं। पा� कम{विनद्रयां और �ार अन्त: इविनद्रयां, जिजसको अन्त: करण �तुष्टय कहा है। अन्त: करण में मन विबु�द्व चि�त्त और अहंकार �ार विवभाग हैं।चि�त्त वह अनुभाग है जो हमारे प्रत्येक अनुभव, विव�ार, कायF और संवेदनाओं के चि�त्र खीं� लेता है। चि�त्रगुप्त वे दिदव्य देवता हैं जो इन चि�त्रों का गोपन करते हैं, संरक्षण करते हैं। जो इन चि�त्रों के स्वामी हैं, चि�त्रगुप्त हैं। इन चि�त्रमय खातों को देखकर ही प्राणी के कमा� को पढ़ते हैं तथा विनणFय करते हैं, दु:ख-सुख प्रदान करते हैं। इस प्रकार इस वेद मंत्र में भगवान चि�त्रगुप्त के दिदव्य स्वरुप का शाविबदक चि�त्र विकया है। इससे स्पष्ट हो जाता है विक चि�त्रगप्त स्वंय पर ब्रह्रा परमेश्वर हैं। ब्रह्मा जी के भी घ्यातव्य हैं, उपास्य हैं, आराध्य हैं। ब्रह्मा जी के पुत्र नहीं, उनके र्इFइश्वर हैं, उनमें व्यापक हैं। भगवान चि�त्रगुप्त पुकारने पर अवतरिरत होते हैं। कमF फलों के दाता हैं, अचे्छ बुरे कम� के विनणाFयक हैं। देव, दानव, यक्ष, विकiर, ब्रह्मा , विवष्णु, महेश सभी उनके न्याय के्षत्र में आते हैं।

संबंधिधत विहन्दू देवताआवास संयमनीपुरीमंत्र ॐ श्री चि�त्रगुप्ताय नमःअस्त्र-शस्त्र लेखनी

जीवनसाथी दक्षिक्षणा नदंिदनी , एरावती शोभावती

रामावतार के समय बाली को चिSप कर मारा तो कृष्णावतार में भील का बाण खाकर बदला �ुकाना पड़ा। तुलसी के शाप से सालग्राम को पत्थर बनना पड़ा। नारद के शाप से नाभी विवरह में भटकना पड़ा। सभी को भगवान चि�त्रगुप्त की न्याय तुला पर खरा उतरना पड़ता है।आइए, हम सभी कायV अपन ेकुलदेव भगवान चि�त्रगुप्त की आराधना कर अनन्त पुण्य प्राप्त करें।

श्री चि�त्रगुप्त जी की कथा विपतामह भीष्म से युधिधxर जी बोले आपकी कृपा से मैंने धमFशास्त्र सुने। ब्राहमण, क्षवित्रय, वैश्य और विवशेषकर शूद्रों के सब धमF आपने कहे। तीथF यात्रा विवधिध कही तथा मास नक्षत्र, वितचिथ वारों के जो व्रत आपने कहे उनमें यम दिदव्तीया का क्या पुण्य है? और यह व्रत विकस समय कैसे हो, यह मैं आपसे सुनना �ाहता हँू। भीष्म जी बोले, हे युधिधxर, यह तुमने बहुत अच्छी बात पूSी है। अत: मैं तुमसे यह कहंूगा। विवस्तारपूवFक धमFराज जी की यम दिदव्तीया को सुनो। कार्पितंक मास के शुक्ल पक्ष तथा �ैत्रमास की कृष्ण पक्ष की दिदव्तीया यम दिदव्तीया होती है।युधिधxरजी बोले, कार्पितंक एवं �ैत्र मास की यम दिदव्तीया में विकसका पूजन करना �ाविहए और कैसे करना �ाविहए ?भीष्मजी बोले, मैं तुम्हें वह पौराक्षिणक उत्तम कथा कहता हँू जिजसके सुनने मात्र से मनुष्य सभी पापों से Sूट जाता है इसमें संशय नहीं है। अगले सतयुग में जिजनकी नाक्षिभ में कमल है उन भगवान से �ार मुख वाल ेब्रहमाजी उत्पi हुए जिजन्हें भगवान न े�ारों वेद कहे। पदमनाक्षिभ नारायण बोले, हे ब्रहमाजी आप सम्पूणF स्रधिष्ट को उत्पi करने वाले, सब योविनयों की गवित हो। अत: मेरी आज्ञा से सम्पूणF जगत को शीघ्र र�ो। हे राजन, श्री हरिर के इन व�नों को सुन ब्रहमाजी न ेप्रफुस्थि�लत होकर मुख से ब्राहमणों को, भुजाओं से क्षवित्रयों को, जंघाओं से वैश्यों को तथा पैरों से शूद्रों का उत्पi विकया। इसके बाद देव, गuवF, दानव और राक्षस पैदा विकये। विपशा�, सपF, नाग, जल के जीव, Vल के जीव, नदी-पवFत और वृक्ष आदिद को पैदा कर मनुजी को उत्पi विकया।तत्प-श्चात दक्ष प्रजापवितजी को पैदा कर उनसे आगे की स्रधिष्ट उत्पi करने को कहा। दक्ष प्रजापवितजी से साठ कन्यायें उत्पi हुर्इFइं जिजनमें से 10 धमFराज जी को,13 कश्यप जी को और 27 �न्द्रमा जी को दीं। कश्यप जी से देव, दानव और राक्षस पैदा हुये तथा गuवF, विपशा�, गौ और पक्षिक्षयों की जात पैदा होकर अपन-ेअपन ेअधिधकारों पर स्थिVर हुर्इFइ। धमFराज जी न ेब्रहमा जी से आकर कहा – हे प्रभो! आपने मुझे लोकों के अधिधकार दिदये हैं विकन्तु सहायक के विबना मैं वहा कैसे ठहर सकता हँू । ब्रहमा जी बोले, हे धमFराज मैं तुम्हारे अधिधकारों में सहायता करंुगा। इतना कह ब्रहमाजी को Sोड़ ध्यान में लगे तथा देवताओं की हजार वषF तक तपस्या की। तपस्या के बाद श्याम रंग, कमल लो�न, कबूतर की सी गदFन वाल,े गूढ चिशर तथा �न्द्रमा के समान मुख वाल,े कलम-दवात और हाथ में पाटी चिलये पुरुष को, अपन ेसामन ेदेखकर ब्रहमाजी बोले, हे पुरुष तुम मेरी काया से उत्पi हुये हो, अत: तुम कायV कहलाओगे एवं गुप्त रुप से मेरे शरीर में Sुपे होने के कारण तुम्हारा नाम चि�त्रगुप्त रहेगा। तत्पश्चात चि�त्रगुप्त जी कोदिटनगर जाकर �ण्डीपूजा में लग गये। उपवास कर उन्होंने �ण्डीकाजी की भावना अपने हृदय में की। परम समाधिध से उन्होंने ज्वाला मुखी देवी जी का जप और स्त्रोतों से भजन-पूजन कर उपासना और स्तुवित की। उपासना से प्रसi होकर देवीजी न ेचि�त्रगुप्तजी को वर दिदया – हे पुत्र तुमने मेरा आराधन, पूजन विकया इसचिलये आज मैंने तुम्हें तीन वर दिदये। तुम परोपकार में कुशल, अपन ेअधिधकार में सदा स्थिVर और असीम आयु वाल ेहेावोगे। ये तीन वर देकर देवी अन्त्रध्यान हो गर्इFइ। तत्पश्चात चि�त्रगुप्तजी धमFराज जी के संग गये और वे आराधना करने योग्य अपने अधिधकार पर स्थिVर हुए। उस समय ऋविषयों में उत्तम सुशमाF ऋविष न,े जिजनको संतान की �ाह ना थी, ब्रहमा जी की अराधना की और उनकी प्रसiता से इरावती कन्या को पाकर चि�त्रगुप्तजी के चिलए दी। उसी समय चि�त्रगुप्त जी से उसका विववाह विकया। उस कन्या से चि�त्रगुप्तजी के संग आठ पुत्र उत्पi हुए, जिजनके नाम �ारु, सु�ारु,चि�त्र, मवितमान, विहमवान,चि�त्र�ारु,अरुण तथा आठवां अतीजिन्द्रय है।दूसरी जो मनु की कन्या दक्षिक्षणा विववाही गयी, उससे �ार पुत्र हुये जिजनके नाम भानु, विवभानु, विवश्वभानु और वीयFवान हैं। चि�त्रगुप्तजी के ये बारह पुत्र पृथ्वी पर फैले। �ारु मथुराजी को गए और माथुर कहलाये। सु�ारु गौड़ देश को गये इससे वे गौड़ कहलाये। चि�त्र भटट नदी को गये इससे वे भटनागर कहलाये। भानु श्रीविनवास नगर गये इससे वे श्रीवास्तव हुये। विहमवान अम्बा जी की आराधना कर अम्बा नगर गये जिजससे वह अम्बx हुये, मवितमान अपनी भायाF के साथ सखसेन नगर गये, इससे वे सक्सेना कहलाए। सूरसेन नगर को विवभानु गये जिजससे वे सूरजध्वज कहलाये। उनकी और भी संताने अनेकानेक Vानों पर जाकर वसी तथा अनेक उप जावित कहलाये। उस समय पृथ्वी पर सौराष्ट्र नगर में एक राजा था, जिजसका नाम सौदास था। वह महापापी, पराये माल को �ुराने वाला, परार्इFइ न्धिस्त्रयो पर बुरी नजर रखन ेवाला, महाक्षिभमानी और पाप करने वाला था। हे राजन उसन ेजन्म से लेकर थोड़ा सा भी धमF नहीं विकया। एक बार वह राजा अपनी सेना के साथ बहुत से विहरणों वाल ेजंगल में चिशकार करने गया, वहा उसने विनरंतर व्रत करने वाले एक ब्राहमण को देखा। वह ब्राहमण चि�त्रगुप्तजी और यमराज जी की पूजा कर रहा था। वह यमदिदव्तीया का दिदन था। राजा न ेब्राहमण से पूSा – महाराज आप क्या कर रहे हो? ब्राहमण न ेयम दिदव्तीया के व्रत को जिजसे वह कर रहा था, कह सुनाया। सुनकर राजा न ेवहीं उसी दिदन कार्पितंक मास में व्रत विकया। कार्पितंक मास के शुक्लपक्ष की दिदव्तीया के दिदन धूप तथा दीपादिद सामग्री से चि�त्रगुप्त जी के साथ धमFराज जी का पूजन विकया। व्रत करने के बाद राजा धन सम्पवितत से यु} अपने घर आया। कुS दिदन उसके मन का विवस्मरण हुआ और वह व्रत भूल गया, याद आने पर विफर व्रत विकया। तत्पश्चात काल संजोग से वह राजा सौदास मर गया और यमदूतों न ेद्रढ़ता से उसे बांध कर यमराज जी के पास पहुँ�ाया। यमराज जी न ेरंुधे मन से उसे अपने दूतों से विपटता देख चि�त्रगुप्त जी से पूSा विक इस राजा न ेक्या विकया? जो भी अच्छा या बुरा इसन ेविकया हो मुझे बताओ। धमFराज के ये व�न सुनकर चि�त्रगुप्तजी बोले, इसन ेबहुत से खोटे कमF विकये हैं, कभी देवयोग से एक व्रत विकया जो कार्पितंक मास के शुक्ल पक्ष की यम दिदव्तीया नाम की दिदव्तीया होती है, उस दिदन आपका और मेरा �न्दन, फूल आदिद सामग्री से एक बार भोजन के विनयम से और रावित्र जागरण कर पूजन विकया। हे देव, इस विवधिध से राजा न ेव्रत विकया इससे यह राजा नरक में डालने योग्य नहीं है। चि�त्रगुप्त का यह व�न सुनकर धमFराजजी न ेउसे Sुड़ा दिदया। इस यम दिदव्तीया के व्रत से वह उत्तम गवित को प्राप्त हुआ। बोचिलए भगवान चि�त्रगुप्त जी की जय।

पद्म पुराण के अनुसार श्री चि�त्रगुप्तजी महाराज का परिरवार |श्री चि�त्रगुप्त जी के दो विववाह हुय,े पहली पत्नी सूयFदक्षिक्षणा / नंदिदनी जो सूयF के पुत्र श्राद्धदेव की कन्या थी, इनसे ४ पुत्र हुए । दूसरी पत्नी ऐरावती / शोभाववित धमFशमाF ( नागवन्शी क्षवित्रय)  की कन्या थी, इनसे ८ पुत्र हुए ।

माता सूयFदक्षिक्षणा / नदंिदनी ( श्राद्धदेव की कन्या ) के पुत्रों का विववरणक्रमांक नाम उपनाम राशि� नाम पत्नी का नाम उपासना देवी- अल गोत्र

1 भानु श्रीवास्तव धम�ध्वज पशि�नी देवी नमFदा 56 अल मठ2 विवभानू सूयFध्वज श्यामसंुदर मालती भद्रकाचिलनी3 विवश्वभानू बा�मीविक दीनदयाल देवी बि�म्ववती देवी �ाकम्भरी हंस4 वीयFभानू अxाना माधवराव देवी सिसंघध्वबिन देवी �ाकम्भरी 5 अल हषF

माता ऐरावती / शोभाववित (धमFशमाF की कन्या ) के पुत्रों का विववरणक्रमांक नाम उपनाम राशि� नाम पत्नी का नाम उपासना देवी- अल गोत्र

1 �ारु माथुर धुरंधर पंकजाक्षी देवी दुर्गाा� 84 अल सोमर2 सु�ारु गौड़ धम�दत्त मंधिधया देवी �ाकम्�री 32 अल गौतम3 चि�त्र ( चि�त्राख्य ) भटनागर भद्रकाधिलनी देवी जयंती 84 अल देवी जयंती4 मवितभान ( हस्तीवणF ) सक्सेना कोकले� देवी �ाकम्भरी 106 अल माण्डव5 विहमवान ( विहमवणF ) अम्बx सरंधर देवी भुजंर्गााक्षी अम्�ा माता 190 अल दालभ्य6 चि�त्र�ारु विनगम सुमंत अ�र्गांधमबित देवी दुर्गाा� 43 अल कश्यप7 चि�त्र�रण कणF दामोदर देवी कोकलसुता देवी लक्ष्मी 360 अल हरिरत8 �ारुण कुलशे्रx सदानंद देवी मंजुभाबि+णी देवी लक्ष्मी 75 अल कश्यप

अत: कायस्थ की १२ �ाखाए ंहैं  - श्री धि7त्ररु्गाप्त जी को महा�धि:मान क्षत्रीय के नाम से सम्�ोधिधत बिकया र्गाया है । इनकी दो �ादिदयाँ हुईं, पहली पत्नी सूय�दशिक्षणा/नंदनी जो ब्राह्मण कन्या थी, इनसे 4 पुत्र हुए जो भान,ू बिवभानू, बिवश्वभानू और वीय�भान ूकहलाए। दूसरी पत्नी एरावती/�ोभावबित नार्गावन्शी क्षबित्रय कन्या थी, इनसे 8 पुत्र हुए जो 7ारु, धि7त7ारु, मबितभान, सु7ारु, 7ारुण, बिहमवान, धि7त्र,और अबितन्द्रिन्द्रय कहलाए।| जिजसका उ�लेख अविह�या, कामधेनु, धमFशास्त्र एवं पुराणों में भी दिदया गया है | श्री चि�त्रगुप्तजी महाराज के बारह पुत्रों का विववाह नागराज बासुकी की बारह कन्याओं से सम्पi हुआ, जिजससे विक कायVों की नविनहाल नागवंश मानी जाती है और नार्गापं7मी के दिदन नाग पूजा की जाती है | माता सूयFदक्षिक्षणा / नदंिदनी ( श्राद्धदेव की कन्या ) के �ार पुत्र काश्मीर के आस -पास जाकर बसे तथा ऐरावती / शोभाववित के आठ पुत्र गौड़ देश के आसपास विबहार, उड़ीसा, तथा बंगाल में जा बसे | बंगाल उस समय गौड़ देश कहलाता था, पद्म पुराण में इसका उ�लेख विकया गया है |

माता सूयFदक्षिक्षणा / नदंिदनी के पुत्रों का विववरण1 - भानु ( श्रीवास्तव ) -  उनका राशि� नाम धम�ध्वज था | धि7त्ररु्गाप्त जी ने श्री श्रीभानु को श्रीवास (श्रीनर्गार) और कान्धार के इलाके में राज्य स्थाबिपत करने के धिलए भेजा था| उनका बिववाह नार्गाराज वासुकी की पुत्री पशि�नी से हुआ | उस बिववाह से श्री देवदत्त और श्री घनश्याम नामक दो दिदव्य पुत्रों की उत्पधित्त हुई | श्री देवदत्त को कश्मीर का एवं श्री घनश्याम को धिसन्धु नदी के तट का राज्य मिमला | श्रीवास्तव 2 वर्गाY में बिवभान्द्रिजत हैं यथा खर एवं दूसर| कुछ अल इस प्रकार हैं - वमा�, धिसन्हा, अघोरी, पडे, पांबिडया,रायजादा, कानूनर्गाो, जर्गाधारी, प्रधान, �ोहर, रजा सुरजपुरा,तनद्वा, वैद्य, �रवारिरया, 7ौधरी, रजा संडीला, देवर्गान इत्यादिद|2 - विवभानू ( सूयFध्वज ) - उनका राशि� नाम श्यामसुंदर था | उनका बिववाह देवी मालती से हुआ | महाराज धि7त्ररु्गाप्त ने श्री बिवभानु को

काश्मीर के उत्तर के्षत्रों में राज्य स्थाबिपत करने के धिलए भेजा | 7ूंबिक उनकी माता दशिक्षणा सूय�देव की पुत्री थीं,तो उनके वं�ज सूय�देव का धि7न्ह अपनी पताका पर लर्गााये और सूय�ध्व्ज नाम से जाने र्गाए | अंततः वह मर्गाध में आकर �से|3 - विवश्वभानू ( बा�मीविक ) - उनका राशि� नाम दीनदयाल था और वह देवी �ाकम्भरी की आराधना करतेथे | महाराज धि7त्ररु्गाप्त जी ने उनको धि7त्रकूट और नम�दा के समीप वाल्मीबिक के्षत्र में राज्य स्थाबिपत करने के धिलए भेजा था | श्री बिवश्वभानु का बिववाह नार्गाकन्या देवी बि�म्ववती से हुआ | यह ज्ञात है की उन्होंने अपने जीवन का एक �ड़ा बिहस्सा नम�दा नदी के तट पर तपस्या करते हुए बि�ताया | इस तपस्या के समय उनका पूण� �रीर वाल्मीबिक नामक लता से ढका हुआ था | उनके वं�ज वाल्मीबिक नाम से जाने र्गाए और वल्लभपंथी �ने | उनके पुत्र श्री 7ंद्रकांत रु्गाजरात में जाकर �से तथा अन्य पुत्र अपने परिरवारों के साथ उत्तर भारत में रं्गार्गाा और बिहमालय के समीप प्रवाधिसत हुए | आज वह रु्गाजरात और महाराष्ट्र में पाए जाते हैं | रु्गाजरात में उनको "वल्लभी कायस्थ" भी कहा जाता है |4 - वीयFभानू (अxाना) - उनका राशि� नाम माधवराव था और उन्हीं ने देवी सिसंघध्वबिन से बिववाह बिकया | वे देवी �ाकम्भरी की पूजा बिकया करते थे| महाराज धि7त्ररु्गाप्त जी ने श्री वीय�भान ुको आधिधस्थान में राज्य स्थाबिपत करने के धिलए भेजा | उनके वं�ज अष्ठाना नाम से जाने र्गाए और रामनर्गार- वाराणसी के महाराज ने उन्हें अपने आठ रत्नों में स्थान दिदया | आज अष्ठाना उत्तर प्रदे� के कई न्द्रिजले और बि�हार के सारन, धिसवान , 7ंपारण, मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी,दरभरं्गाा और भार्गालपुर के्षत्रों में रहते हैं | मध्य प्रदे� में भी उनकी संख्या ध्यान रखने योग्य है | वह ५ अल में बिवभान्द्रिजत हैं |

माता ऐरावती / शोभाववित के पुत्रों का विववरण1- �ारु ( माथुर  )- वह गुरु मथुरे के चिशष्य थे | उनका राचिश नाम धुरंधर था और उनका विववाह देवी पंकजाक्षी से हुआ | वह देवी दुगाF की आराधना करते थे | महाराज चि�त्रगुप्त जी न ेश्री �ारू को मथुरा के्षत्र में राज्य Vाविपत करने के चिलए भेजा था| उनके वंशज माथुर नाम से जाने गाये |उन्होंने राक्षसों (जोविक वेद में विवश्वास नहीं रखते थे ) को हराकर मथुरा में राज्य Vाविपत विकया | इसके पश्चात् उनहोंने आयाFवतF के अन्य विहस्सों में भी अपने राज्य का विवस्तार विकया | माथुरों न ेमथुरा पर राज्य करने वाले सूयFवंशी राजाओं जैसे इक्ष्वाकु, रघु, दशरथ और राम के दरबार में भी कई पद ग्रहण विकये | माथुर 3 वग� में विवभाजिजत हैं यथा देहलवी,ख�ौली एवं गुजरात के कच्छी | उनके बी� 84 अल हैं| कुS अल इस प्रकार हैं- कटारिरया, सहरिरया, ककराविनया, दवारिरया,दिद�वारिरया, तावाकले, राजौरिरया, नाग, गलगोदिटया, सवाFरिरया,रानोरिरया इत्यादिद| इटावा के मदनलाल वितवारी द्वारा चिलग्निखत मदन कोश के अनुसार माथुरों न ेपांड्या राज्य की Vापना की जो की आज के समय में मदुरै, वित्रविनवे�ली जैसे के्षत्रों में फैला था| माथुरों के दूत रोम के ऑगस्टस कैसर के दरबार में भी गए थे |2- सु�ारु ( गौड़) - वह गुरु वचिशx के चिशष्य थे और उनका राचिश नाम धमFदत्त था | वह देवी शाकम्बरी की आराधना करते थे | महाराज चि�त्रगुप्त जी न ेश्री सु�ारू को गौड़ के्षत्र में राज्य Vाविपत करने भेजा था | श्री सु�ारू का विववाह नागराज वासुकी की पुत्री देवी मंधिधया से हुआ | गौड़ 5 वग� में विवभाजिजत हैं : 1. खरे 2. दुसरे 3. बंगाली 4. देहलवी 5. वदनयुविन | गौड़ कायV को 32 अल में बांटा गया है |गौड़ कायVों में महाभारत के भगदत्त और कसिलंग के रुद्रदत्त प्रचिसद्द हैं |3- चि�त्र ( चि�त्राख्य )  ( भटनागर ) - वह गुरू भट के चिशष्य थे |उनका विववाह देवी भद्रकाचिलनी से हुआ था | वह देवी जयंती की अराधना करते थे | महाराज चि�त्रगुप्त जी न ेश्री चि�त्राक्ष को भट देश और मालवा में भट नदी के तट पर राज्य Vाविपत करने के चिलए भेजा था | उन्होंने चि�त्तौड़ एवं चि�त्रकूट की Vापना की और वहीं बस गए | उनके वंशज भटनागर के नाम से जाने गए | भटनागर 84 अल में विवभाजिजत हैं | कुS अल इस प्रकार हैं- दासविनया, भतविनया, कु�ाविनया, गुजरिरया,बहचिलवाल, मविहवाल, सम्भा�वेद, बरसाविनया, कन्मौजिजया इत्यादिद| भटनागर उत्तर भारत में कायVों के बी� एक आम उपनाम है |4- मवितभान ( हस्तीवणF ) ( सक्सेना ) - माता �ोभावती (इरावती) के तेजस्वी पुत्र का बिववाह देवी कोकले� से हुआ | वे देवी �ाकम्भरी की पूजा करते थे | धि7त्ररु्गाप्त जी ने श्री मबितमान को �क् इलाके में राज्य स्थाबिपत करने भेजा | उनके पुत्र एक महान योद्धा थे और उन्होंने आधुबिनक काल के कान्धार और यूरेशि�या भूखंडों पर अपना राज्य स्थाबिपत बिकया | 7ूंबिक वह �क् थे और �क् साम्राज्य से थे तथा उनकी मिमत्रता सेन साम्राज्य से थी, तो उनके वं�ज �कसेन या सकसेन i कहलाये| आधुबिनक इरान का एक भार्गा उनके राज्य का बिहस्सा था| आज वे कन्नौज, पीलीभीत, �दायूं, फरु� खा�ाद, इटाह,इटावाह, मैनपुरी, और अलीर्गाढ में पाए जातेहैं| सक्सेना 'खरे' और 'दूसर' में बिवभान्द्रिजत हैं और इस समुदाय में 106 अल हैं |कुछ अल इस प्रकार हैं-जोहरी, हजेला, अधोधिलया, रायजादा, कोदेधिसया, कानूनर्गाो,�रतरिरया, बि�सारिरया, प्रधान, कम्थाबिनया, दर�ारी, रावत, सहरिरया,दलेला, सोंरेक्षा, कमोन्द्रिजया, अर्गाोधि7या, धिसन्हा, मोरिरया, इत्यादिद| 5- विहमवान ( अम्बx ) - उनका राशि� नाम सरंधर था और उनका बिववाह देवी भुजंर्गााक्षी से हुआ | वह देवी अम्�ा माता की अराधना करते थे | बिर्गारनार और कादिठयवार के अम्�ा-स्थान नामक के्षत्र में �सने के कारण उनका नाम अम्�ष्ट पड़ा | श्री बिहमवान की पां7 दिदव्य संतानें हुईं : श्री नार्गासेन , श्री र्गायासेन, श्री र्गायादत्त, श्री रतनमूल और श्री देवधर | ये पाँ7ों पुत्र बिवशिभन्न स्थानों में जाकर �से और इन स्थानों पर अपने वं� को आरे्गा �ढ़ाया | इनका बिवभाजन : नार्गासेन २४ अल , र्गायासेन ३५ अल, र्गायादत्त ८५ अल,रतनमूल २५ अल, देवधर २१ अल में है | अंततः वह पंजा� में जाकर �से जहाँ उनकी पराजय धिसकंदर के सेनापबित और उसके �ाद 7न्द्ररु्गाप्त मौय� के हाथों हुई| अम्�ष्ट कायस्थ बि�जातीय बिववाह की परंपरा का पालन करते हैं और इसके धिलए "खास घर" प्रणाली का उपयोर्गा करते हैं | इन घरों के नाम उपनाम के रूप में भी इस्तेमाल बिकये जाते हैं | ये "खास घर"(न्द्रिजनसे मर्गाध राज्य के उन र्गााँवों का नाम पता 7लता है जहाँ मौय�काल में तक्षशि�ला से बिवस्थाबिपत होने के उपरान्त अम्�ष्ट आकर �से थे) | इनमें से कुछ घरों के नामहैं- भीलवार, दुमरवे, �धिधयार, भरथुआर, बिनमइयार, जमुआर,कतरयार पव�बितयार, मंदिदलवार, मैजोरवार, रुखइयार, मलदबिहयार,नंदकुधिलयार, र्गाबिहलवार, र्गायावार, �रिरयार, �रबितयार, राजरृ्गाहार,देढ़र्गावे, को7र्गावे, 7ारर्गावे, बिवरनवे, संदवार, पं7�रे, सकलदिदहार,करपट्ने, पनपट्ने, हरघवे, महथा, जयपुरिरयार ...आदिद|6- चि�त्र�ारु ( विनगम) -  - उनका राशि� नाम सुमंत था और उनका बिववाह अ�रं्गाधमबित से हुआ | वह देवी दुर्गाा� की अराधना करते थे | महाराज धि7त्ररु्गाप्त जी ने श्री धि7त्र7ारू को महाको�ल और बिनर्गाम के्षत्र(सरयू नदी के तट पर) में राज्य स्थाबिपत करने के धिलए भेजा | उनके वं�ज वेदों और �ास्त्रों की बिवधिधयों में पारंर्गात थे न्द्रिजससे उनका नाम बिनर्गाम पड़ा |आज के समय में कानपुर, फतेहपुर, हमीरपुर,

�ंदा, जलाओं,महो�ा में रहते हैं | वह 43 अल में बिवभान्द्रिजत हैं | कुछ अल इस प्रकार हैं- कानूनर्गाो, अक�रपुर, अक�रा�ादी, घतामु्परी,7ौधरी, कानूनर्गाो �ाधा, कानूनर्गाो जयपुर, मंु�ी इत्यादिद|7- चि�त्र�रण ( कणF ) - उनका राशि� नाम दामोदर था एवं उनका बिववाह देवी कोकलसुता से हुआ | वह देवी लक्ष्मी की आराधना करते थे और वैष्णव थे | महाराज धि7त्ररु्गाप्त जी ने श्री 7ारूण को कण� के्षत्र (आधुबिनक कना�टक) में राज्य स्थाबिपत करने के धिलए भेजा था | उनके वं�ज समय के साथ उत्तरी राज्यों में प्रवाधिसत हुए और आज नेपाल, उड़ीसा एवं बि�हार में पाए जाते हैं | उनकी बि�हार की �ाखा दो भार्गाों में बिवभान्द्रिजत है : 'र्गायावाल कण�' – जो र्गाया में �से और 'मैधिथल कण�' जो मिमधिथला में जाकर �से | इनमें दास, दत्त, देव, कण्ठ, बिनधिध,मल्लिल्लक, लाभ, 7ौधरी, रंर्गा आदिद पदवी प्र7धिलत है| मैधिथल कण� कायस्थों की एक बिव�े+ता उनकी पंजी पद्धबित है | पंजी वं�ावली रिरकॉड� की एक प्रणाली है | कण� 360 अल में बिवभान्द्रिजत हैं | इस बिव�ाल संख्या का कारण वह कण� परिरवार हैं न्द्रिजन्हों ने कई 7रणों में दशिक्षण भारत से उत्तर की ओर पलायन बिकया | इस समुदाय का महाभारत के कण� से कोई सम्�न्ध नहीं है |8- �ारुण [श्री अबितन्द्रिन्द्रय] ( कुलशे्रx )- उनका राशि� नाम सदानंद है और उन्हों ने देवी मंजुभाबि+णी से बिववाह बिकया | वह देवी लक्ष्मी की आराधना करते हैं | महाराज धि7त्ररु्गाप्त जी ने श्री अबितन्द्रिन्द्रय (न्द्रिजतेंदिद्रय) को कन्नौज के्षत्र में राज्य स्थाबिपत करने भेजा था| श्री अबितयेंदिद्रय धि7त्ररु्गाप्त जी की �ारह संतानों में से अधिधक धम�बिनष्ठ और सन्यासी प्रवृधित्त वाली संतानों में से थे | उन्हें 'धमा�त्मा' और 'पंबिडत' नाम से जाना र्गाया और स्वभाव से धुनी थे | उनके वं�ज कुलश्रेष्ठ नाम से जाने र्गाए |आधुबिनक काल में वे मथुरा, आर्गारा, फरू� खा�ाद, इटाह, इटावाह और मैनपुरी में पाए जाते हैं | कुछ कुलश्रेष्ठ जो की माता नंदिदनी के वं� से हैं, नंदीर्गाांव - �ंर्गााल में पाए जाते हैं |नोट - कुS विवद्वानों के अनुसार वीयFभानू (वा�मीविक ) और विवश्वभानू (अxाना ) इरावती माता के पुत्र तथा चि�त्र�ारू (विनगम ) और अतीजिन्द्रय (कुलश्रेx) नदंिदनी माता के पुत्र मान्य है | इसका एक मात्र प्रमाण कुS घरो में विवराजिजत श्री चि�त्रगुप्त जी महाराज का चि�त्र है। आजकल चिसन्हा, वमाF,प्रसाद...आदिद टाइदिटल रखन ेका प्र�लन दूसरी जावितओं में भी देखा जाता है|

श्री चि�त्रगुप्त �ालीसामंगलम मंगल करन, सुन्दर बदन विवशाल। सोहे कर में लेखनी, जय जय दीन दयाल।।

सत्य न्याय अरु पे्रम के, प्रथम पूज्य जगपाल। हाथ जोड़ विवनती करु, वरद हस्त धरु भाल।।

चि�त्रगुप्त बल बुजिद्ध उजागर, वित्रकालज्ञ विवधा के सागर। शोभा दक्षिक्षण पवित जग वविनदत, हसमुख विप्रय सब देव अनजिन्दत।।शान्त मधुर तनु सुन्दर रुपा, देत न्याय सम द्रधिष्ट अनूपा। क्रीट मुकुट कुन्डल धुवित राजे, दविहन हाथ लेखनी विवराजे।।

वाम अंग रिरजिद्ध चिसजिद्ध विवराजे, जाप यज्ञ सौ कारज साजे। भाव सविहत जो तुम कह ध्यावे, कोदिट जन्म के पाप नसावे।।साधन विबन सब ज्ञान अधूरा, कमF जोग से होवे पूरा। वितन्ह मह प्रथम रेख तुम पार्इFइ, सब कह मविहमा प्रकट जनार्इFइ।।न्याय दया के अदभुत जोगी, सुख पावे सब योगी भोगी। जो जो शरण वितहारी आवे, वुधिधवल, मनवल, धनवल पावे।।

तुम व्रहमा के मानस पूता, सेवा में पाषFद जम दूता। सकल जीव देव कमFन में वांधे, वितनको न्याय तुम्हारे कांधे।।तुम तटV सब ही की सेवा, सब समान मानस अरु देवा। विनर्पिवंध्न प्रवितविनधिध ब्रहमा के, पालक सत्य न्याय बसुधा के।।

तुम्हारी मविहमा पार न पावे, जो शारद शत मुख गुण गावें। �ार वेद के रक्षक त्राता, मयाFदा के जीवन दाता।।ब्रहमा र�ेऊ सकल संसारा, चि�त्त तत्व सब ही कह पारा। वितन चि�त्तन में वासु तुम्हारा, यह विवधिध तुम व्यापेऊ संसारा।।

चि�त्त अद्रश्य रहे जग माही, भौवितक दरसु तुम्हारो नाही। जो चि�त्तन की सीमा माने, ते जोगी तुम को पह�ाने।।हमविह अगम अवित दरसु तुम्हारा, सुगम करहु विनज दया अधारा। अब प्रभु कृपा करहु एविह भांवित, सुभ लेखनी �े दिदन राती।।

गुप्त चि�त्र कह पे्ररण कीजै, चि�त्रगुप्त पद सफल करीजै। आए हम सब शरण वितहारी, सफल करहु साधना हमारी।।जवेिह जवेिह जोविन भभें जड़ जीवा, सुधिमरै तहां तुम्हारी सीवा। जीवन पाप पुण्य तै ऊ�ी, पूजन उपासना सौ सीं�ौ।।जो-जो कृपा तुम्हारी पावें, सो साधन को सफल बनावें। सुधिमरन करें सुरुचि� बड़भागी, लहै मनोरथ गृही विवरागी।।अष्ट चिसजिद्ध नव विनधिध के दाता, पावें कमFजोग ते ताता। अंधकार ते आन ब�ाओं, मारग विवधिधवत देव बताओं।।

शाश्वत सतोगुणी सतरुप, धमFराज के धमF सहूत। मचिस लेखन के गौरव दाता, न्याय सत्य के पूरण त्राता।।जो जो शरण वितहारी आबे, दिदव्य भाव चि�त्त में उपजाबे। मन बुधिध चि�त्त अविहमवित के देवा, आरत हरहु देउ जन सेवा।।श्रमतजिज विकमविप प्रयोजन नाही, ताते रहहु गुपुत जग माही। धमF कमF के ममFकज्ञाता, प्रथम न्याय पद दीन्ह विवधाता।।

हम सब शरण वितहारिर आये, मोह अरथ जग में भरमाये। अब वरदान देहु एविह भांवित, न्याय धमF के बने संधावित।।दिदव्य भाव चि�त्त में उपजावें, धमF की सेवा पावे। कमFजोग ते जग जस पावें, तुम्हरिर मविहमा प्रकट जनावें।

यह �ालीस भविकतयु}, पाठ करै जो कोय। तापर कृपा प्रसiता, चि�त्रगुप्त की होय।।

श्री चि�त्रगुप्त वंदना :-पंकज समान सूचि�-संुदर मृदुल तन,पंकज समान मुख-दृग रतनोर है |

साम दंड,भेद,पत्र लेखनी दवात,न्याय विनती, आयुधादी विनत्य कर धारे है |

वंदन करत जोविह,सुर,नर,मुविन सब,चि�त्र-रविव,धमFराज नाम,सो उबारे है |

ब्रह्मा-वंशज,सुधीन्द्र गुण,ज्ञान विवधिध,,ध्यावत ही पाप-पंुज नाशत हमारे है I :- तुलसीदास

श्री चि�त्रगुप्त जी स्तुबितजय चि�त्रगुप्त यमेश तव, शरणागतम शरणागतम।

जय पूज्य पद पद्मेश तव, शरणागतम शरणागतम।।जय देव देव दयाविनधे, जय दीनबuु कृपाविनधे।कम{श तव धम{श तव, शरणागतम शरणागतम।।

जय चि�त्र अवतारी प्रभो, जय लेखनी धारी विवभो।जय श्याम तन चि�ते्रश तव, शरणागतम शरणागतम।।

पुरुषादिद भगवत अंश जय, कायV कुल अवतंश जय।जय शचि} बुजिद्ध विवशेष तव, शरणागतम शरणागतम।।

जय विवज्ञ मंत्री धमF के, ज्ञाता शुभाशुभ कमF के।जय शांवितमय न्यायेश तव, शरणागतम शरणागतम।।तव नाथ नाम प्रताप से, Sुट जायें भय त्रय ताप से।

हों दूर सवF क्लेश तव, शरणागतम शरणागतम।।हों दीन अनुरागी हरिर, �ाहे दया दृधिष्ट तेरी।

कीजै कृपा करुणेश तव, शरणागतम शरणागतम।।

श्री चि�त्रगुप्त जी की आरती-1 श्री बिवरंधि7 कुलभू+ण, यमपुर के धामी। पुण्य पाप के लेखक, धि7त्ररु्गाप्त स्वामी॥ सीस मुकुट, कानों में कुण्डल अबित सोहे।

श्यामवण� �शि�- सा मुख, स�के मन मोहे॥ भाल बितलक से भूबि+त, लो7न सुबिव�ाला। �ंख सरीखी र्गारदन, र्गाले में मशिणमाला॥ अध� �रीर जनेऊ, लं�ी भुजा छाजै। कमल दवात हाथ में, पादुक परा भ्राजे॥

नृप सौदास अनथ�, था अबित �लवाला। आपकी कृपा द्वारा, सुरपुर पर्गा धारा॥

भधि: भाव से यह आरती जो कोई र्गाावे। मनवांधिछत फल पाकर सद्गबित पावे॥

श्री चि�त्रगुप्त जी की आरती-2 ओम् जय चि�त्रगुप्त हरे, स्वामी जय चि�त्रगुप्त हरे।

भ}जनों के इस्थिच्छत, फल को पूणF करे।। विवघ्न विवनाशक मंगलकताF, सन्तन सुखदायी।

भ}ों के प्रवितपालक, वित्रभुवन यश Sायी।। ओम् जय...।। रूप �तुभुFज, श्यामल मूरत, पीताम्बर राजै।

मातु इरावती, दक्षिक्षणा, वाम अंग साजै।। ओम् जय...।। कष्ट विनवारक, दुष्ट संहारक, प्रभु अंतयाFमी।

सृधिष्ट सम्हारन, जन दु: ख हारन, प्रकट भये स्वामी।। ओम् जय..।।कलम, दवात, शंख, पवित्रका, कर में अवित सोहै।

वैजयन्ती वनमाला, वित्रभुवन मन मोहै।। ओम् जय...।। विवश्व न्याय का कायF सम्भाला, ब्रम्हा हषाFये।

कोदिट कोदिट देवता तुम्हारे, �रणन में धाये।। ओम् जय...।। नृप सुदास अरू भीष्म विपतामह, याद तुम्हें कीन्हा।

वेग, विवलम्ब न कीन्हौं, इस्थिच्छत फल दीन्हा।। ओम् जय...।।दारा, सुत, भविगनी, सब अपने स्वाV के कताF।

जाऊँ कहाँ शरण में विकसकी, तुम तज मैं भताF।। ओम् जय...।।बuु, विपता तुम स्वामी, शरण गहूँ विकसकी।

तुम विबन और न दूजा, आस करँू जिजसकी।। ओम् जय...।। जो जन चि�त्रगुप्त जी की आरती, पे्रम सविहत गावैं।

�ौरासी से विनक्षिश्चत Sूटैं, इस्थिच्छत फल पावैं।। ओम् जय...।। न्यायाधीश बैंकंुठ विनवासी, पाप पुण्य चिलखते।

'नानक' शरण वितहारे, आस न दूजी करते।। ओम् जय...।।

भारत के विवक्षिभi भागों मे कायVों की उप जावितयां –उत्तर भारत - माथुर , श्रीवास्तव , सक्सेना , अVाना , विनगम ,भटनागर , कुलश्रेx ,सूरज्ध्वाज गौड़ , अम्बस्ट , कणF ,बा�मीकी |

दक्षिक्षण भारत - मुदचिलयार , नायडू , विप�लै ,, नायर , राज , मेनन , रमण , राव , कारनाम , लाल , कार्णिणंक , रेड्डी , प्रसाद |बंगाल - सेन , कर , दास , पाचिलत , �न्द्र , शाहा , भद्रधर , नंदी , घोस , मस्थि�लक , मुंशी , दे पाल , रे , गुहा , बैद्ध , नाग , सोम , चिसन्हा , रक्षिक्षत , अंकुर , नंदन , नाथ , विवश्वाश , सरकार , �ौधरी , वेमFन , बासु , बोस , भावा , दत्ता , कंुडू , धिमत्र , धर , सभFन , भद्र |पंजाब - राय , भख्शी , दत्त , चिसन्हा |महाराष्ट्र - ठाकरे , पठारे , देशमुख , चि�तविनश , कोट्विनश , फत्नीश , दिदघे , धारकर , प्रधान , प्रभू , चि�त्रे , मठेरे , करोडे़ , दिदघे , शूले , राजे , शगले , मोविहते , तुगारे , फदसे , आप्टे , गदक्री , कुलकण­ , सराFफ , बैद्य , जयब्रत , दलवी , �ौबल , मोकाशी |गुजरात - �ंद्रसेनी , प्रभू , मेहता , ब�लभी , बास्थि�मकी , सुर्य्ध्वाध्वाFज |उडीसा - पटनायक , पातास्कर , मोहंती , कानूनगो , बोविहयार , दास |आसाम - बरुआ , �क्रवत­ , पुरकायV , बैद्य , �ौधरी , हजारिरका , मेघी , �ाविहला , बोरबोरा , दास |

भगवान चि�त्रगुप्त के बारे में विवशेष जानकारिरयां *        भगवान चि�त्रगुप्त का वणFन ऋग्वेद से ही है |*        ऋग्वेद में भगवान चि�त्रगुप्त इंद्र के विप्रय सखा एवं धन को देन ेवाल ेदेवता हैं |*        भगवान चि�त्रगुप्त को ही कायV, विवचि�त्र, चि�त्र, �ैत्र, पंविडत एवं चि�त्रक कहा जाता है | ( ऋग्वेद एवं पुराण)*        सूयF, यम तथा भगवान चि�त्रगुप्त ब्रह्मा के पुत्र हैं | ( गरुण पुराण)*        सभी सनातनी मनुष्यों के श्राद्ध में यमराज तथा चि�त्रगुप्त की आराधना की जाती है | ( गरुण पुराण)*        भगवान चि�त्रगुप्त 9 ग्रहों में से केतु ग्रह के अधिधदेवता हैं | ( मत्स्य पुराण)*        ब्रह्मा की आज्ञा से यमलोक में यमराज (धमFराज ) तथा चि�त्रगुप्त ( धमाFधिधकारी / न्यायाधीश ) के रूप में Vाविपत हैं | ( पद्म पुराण एवं भविवष्य पुराण)*       ब्रह्मा के आज्ञा से चि�त्रगुप्त प्रत्येक मनुष्य के आयु, भाग्य तथा दुभाFग्य को विनधाFरिरत करते हैं | ( पद्म पुराण )*         भगवान चि�त्रगुप्त यमलोक में रहकर प्रत्येक प्राक्षिणयों का न्याय चिलखते हैं तथा उसे न्यायानुसार दण्ड देते हैं | जिजसका पालन यमराज द्वारा कराया जाता है | ( चिशव पुराण एवं ब्रह्म पुराण)

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“ THIS BOOK IS DEDICATED TO MY ANCESTOR “IS

LATE SHRI SATYA NARAYAN SHRIVASTAVA