क किवता - inflibnetshodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/36491/12/12...243 उ...
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(क) किवता
हदी सािह य के इितहास संबंधी पु तक ‘ हदी सािह य के अ सी वष’ िशवदान
सह चौहान का एक अिभनव शोध एवं नवीन िवचार का प रणाम ह ै । लोग इसके
शीषक को पढ़कर ही कह दतेे ह क यह चौकाने वाली बात ह,ै परंतु अंत: थल को
पहचाने िबना ऐसी उि अ छी नह लगती । ‘ हदी सािह य के अ सी वष’ से अिभ ाय
ह,ै ‘ हदी सािह य का इितहास’ अ सी वष का ह ै। िन य ही उ ह ने यह अ सी वष का
समय िनि त बद ुसे माना ह ै। िशवदान सह चौहान ने सन् 1873 ई. से सन ्1959 ई.
के बीच के समय (अ सी वष) को हदी सािह य के अंतगत रख कर सािह य के इितहास
का पुनमू यांकन कया ह।ै हदी सािह य के अ सी वष का काशन सन् 1959 ई. म
आ। िशवदान सह चौहान ने हदी सािह य के इितहास को सन् 1873 ई. से आरंभ य
माना ह ैइसका उ र तब िमलता है जब हदी सािह य के इितहास के संदभ म ‘ हदी’
भाषा का िव तृत अ ययन करते ह । हदी सािह य के इितहास म तीन श द है- हदी,
सािह य और इितहास । इसम मुख है- ‘ हदी’ । य क सािह य का इितहास कसी भी
भाषा का हो सकता ह ै । जैसे- असमीया सािह य का इितहास, बंगला सािह य का
इितहास, तमील सािह य का इितहास, तेलगु सािह य का इितहास, मैिथली सािह य का
इितहास, अं ेजी सािह य का इितहास आ द । अत: इसम सव मुख ह ैभाषा और भाषा
के िबना सािह य िलखा ही नह जा सकता । हदी, हदु तानी या उद ू के वाद-िववाद
म न पड़ कर हदी सािह य के इितहास म यु ‘ हदी’ भाषा का अथ प करना
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उिचत होगा । ‘ हदी’ भाषा आरंभ से ही दो अथ म सािह य के इितहास म योग होत े
आ रहा ह ै। इस संदभ म डॉ. नगे के मत को देख सकते ह – “ ‘ हदी’ श द का योग
आज मु य प से तीन अथ म हो रहा है : (क) ‘ हदी’ श द अपने िव तृततम् अथ म
हदी दशे म बोली जानेवाली स ह बोिलय का ोतक ह ै। हदी सािह य के इितहास
म ‘ हदी’ श द का योग इसी अथ म होता ह,ै इसीिलए उसके अंतगत ज, अवधी,
डगल, मैिथली, खड़ी बोली आ द ाय: सभी म िलिखत सािह य का िववेचन कया
जाता ह ै। (ख) भाषािव ान म ाय: ‘पि मी हदी’ और ‘पूव हदी’ को ही हदी मानत े
रह े ह । ि यासन ने इसी अधार पर हदी- दशे क अ य उपभाषा को राज थान,
पहाड़ी, िबहारी कहा था िजसम ‘ हदी’ श द का योग नह ह,ै कतु अ य दो को हदी
मानने के कारण ‘पि मी हदी’ तथा ‘पूव हदी’ नाम दया था । इस कार इस अथ म
‘ हदी’ आठ बोिलय ( ज, खड़ी बोली, बंुदलेी, ह रयाणी, क ौजी, अवधी, बघेली,
छ ीसगढी) का सामूिहक नाम ह ै । (ग) ‘ हदी’ श द का संकुिचततम अथ ह ै – खड़ी
बोली सािहि यक हदी, जो आज हदी दशे क सरकारी भाषा ह,ै पूरे भारत क राज
भाषा ह,ै समाचारप और फ म म िजसका योग होता ह,ै जो हदी दशे म िश ा
का मा यम ह ैऔर िजसे ‘प रिनि त हदी’, ‘मानक हदी’ आ द नाम से भी अिभिहत
करते ह ।”1 िशवदान सह चौहान हदी के संकुिचत अथ अथात् खड़ी बोली हदी को ही
हदी का प र कृत प मानते ह । अत: िजसे हम हदी का संकुिचत अथ मानते ह, असल
म वही भारत क राजभाषा ह ै । सािहि यक िवकास के प म खड़ी बोली हदी का
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िवकास ब त बाद म आ, यही कारण है िशवदान सह चौहान ने हदी सािह य के
इितहास को अ सी वष ही माना ह ै।
कसी भी भाषा के सािह य के प का िवकास एकाएक नह होता, उसक
उ पित म अनेक िवचारधाराए ँ वािहत होती ह । युग-युग क भावना एवं िवचार
क पूंज सािह य म गुि फत होता ह,ै िजसके चलते अपने- अपने युग का सािह य अपनी
अलग िवशेषता से अपनी िवशेष पहचान बनाता ह ै। यही कारण है क एक युग के
सािह य से दसूरे युग का सािह य िभ होता ह,ै परंतु यह िभ ता सािह य क आ वादन
या रचना या म नह आती ह ै। युगीन िवशेषता एवं िवचारधारा म िभ ता
होने के कारण सािहि यक भाषा म भी यह िभ ता दखाई पड़ती ह ै। हदी सािह य के
इितहास म हदी भाषा के िवकास क या अ यंत ज टल ह ै । हदी सािह य क
उ पित को जानने के िलए हदी भाषा के ारंिभक व प को जानना आव यक ह ै ।
जब कोई जन भाषा ाकरण के िनयम म बंध कर आगे चलती है, तब वह सािह य क
भाषा का थान ले लेती ह ै। जैसा क हम जानते ह- सं कृत भाषा से हदी का ज म आ
ह ै । सं कृत भाषा दो प म बट गयी- वै दक सं कृत एवं लौ कक सं कृत । वै दक
सं कृत वेद और पुराण क भाषा बन कर रह गयी तथा लौ कक सं कृत जनमानस क
भाषा । जन भाषा का िवकास पाली, ाकृत, अप ंश के प म आ । अप ंश से
आयभाषा का िवकास आ । भाषा वै ािनक न ेअप ंष को अनेक भेदोपभेद माना ।
नेमी साधु ने इसे तीन भेद माना – उपनागर, आभीर और ा य । माक डेय ने भी इसे
तीन भाग म दखेा- नागर, उपनागर और ाचड़ । डॉ. याकोवी ने अप ंश को चार
भाग म बाँटा- पूव , पि मी, दि णी और उ री अप ंश । डॉ. तागारे ने इसका तीन
भेद माना है- दि णी, पि मी और पूव अप ंश । डॉ. नामवर सह इसके मा दो भेद
मानते ह- पि मी और पूव अप ंश । डॉ. भोलानाथ ितवारी अप ंश के िन िलिखत
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भेद मानते ह और साथ ही इससे िनगत आधुिनक भाषा को इस कार दखाते ह –
शौरसेनी अप ंश से पि मी हदी, राज थानी, गुजराती और पहाडी ; पैशाची या केकड़
ट अप ंश से लहदँा, पंजाबी ; ाचड़ अप ंश से सधी ; महारा ी अप ंश से मराठी ;
अधमागधी अप ंश से पूव हदी और मागधी अप ंश से िबहारी, बंगाली, उिड़या,
असमीया । आधुिनक आय भाषा से अनेक बोिलय का िवकास आ ह-ै िजसम मुख
प से पि मी हदी से पाँच खड़ी बीली (कौरवी), जभाषा, ह रयाणी (बंगा ),
बंुदलेी, कनौजी ; पूव हदी से तीन- अवधी, बघेली, छ ीसगढ़ी ; िबहारी से तीन
मैिथली, मगही, भोजपुरी ; राज थानी से चार- मारवाड़ी, जयपुरी, मेवाती, मालवी
तथा पहाड़ी से दो कुमायूँनी , गढ़वाली आ द बोिलय का िवकास आ ।
भाषा िवकासमान होती ह,ै इसिलए उसके आरंभ का कोई िनि त बद ु नह
दया जा सकता । अप ंश का वा तिवक िवकास कब आ इसका पता लगाना ब त
क ठन काय ह ैपरंतु उसका समय अनुमानत: संवत् 1000 िव मी से माना जाता है ।
आचाय रामचं शु ल हदी सािह य का इितहास का ारंभ संवत 1050 िव मी से
मानते ह । परंतु सम या तब उ पन होती ह,ै जब हदी भाषा का योग िभ प म
कया जाता ह।ै हदी सािह य के इितहासकार ने सन् 1000 ई. से लेकर सन् 1873 ई.
तक हदी सािह य के इितहास म ‘ हदी’ भाषा के िलए लगभग 17 बोिलय (अवधी,
ज, मैिथली, मगही, भोजपुरी, राज थानी आ द) का योग कया ह,ै परंतु सन् 1873
ई. के बाद मा खड़ी बोली हदी का । इसी कारण िशवदान सह चौहान ने हदी
सािह य के इितहास का ारंभ सन् 1873 ई. से माना ह ै। उनका मानना ह ै– “उ ीसव
शता दी म दशे-काल क नई प रि थितय म ऐितहािसक दिृ से खड़ी बोली का
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पुनस कार अिनवाय हो गया, अ य भारतीय भाषा क तरह सं कृत- भाव हण
करके, िजससे आधुिनक खड़ी बोली हदी का िवकास आ । त कालीन प रि थितय म
हदी-उद ूके िववाद म चाह ेिजतनी अवांछनीय कटुता आई हो, दोन के प धर ने एक-
दसूरे के िव चाह ेिजस तरह इ तेमाल कया हो, यह मरण रखना चािहए क हमारे
रा ीय इितहास को िजस माग से चलकर वतमान तक प चँना पड़ा ह,ै उनम यह
अिनवाय था क खड़ी बोली पहले उद ूक श ल म िवकास करती और फर उसक दो
धराए ँहो जाती – एक उद ूतो दसूरी हदी क ।”2 हदी के सािह यकार ने सािह य का
इितहास िलखने म अनेक क ठनाईय को उ लेख कया ह,ै िजसम मुख ह ै–भाषा । डॉ.
रामिवलास शमा ने इसे प कया है- “ हदी सािह य का इितहास िलखने म दसूरी
क ठनाइ यह ह ै क हदी क अनेक बोिलय म समृ सािह य रचा गया ह ैऔर इनम से
कई एक – जैसे अवधी, ज और मैिथली- का सािह य कम से कम प रमाण म इतना
िवशाल ह, िजतना योरप और भारत क कई भाषा का आधुिनक सािह य न होगा ।
इस सािह य का िव तृत अ ययन कए िबना हदी सािह य का मब इितहास नह
िलखा जा सकता।”3 इस कार कहा जा सकता ह क सं कृित के िवकास के साथ ही
अनेक लोकभाषा म सािह य क रचना ई, परंतु खड़ी बोली ारंभ से लेकर
म यकाल तक इसका अपवाद बनी रही । स य तो यह ह ै क उ ीसव शता दी के बाद
‘ हदी’ श द खड़ी बोली के िलए ढ़ हो गया ।
सािहि यक भाषा के प म खड़ी बोली का िवकास उ ीसव शता दी म आ ।
भाषा-वै ािनक ने खड़ी बोली हदी का िवकास लगभग 1000 ई. से माना ह ै । यह
शौरसेनी अप ंश से िवकिसत ई ह ै । यह मेरठ, सहारनपुर, मुज फतपुर, िबजनौर,
रामपुर, मुरादावाद तथा द ली के कुछ िह से म बोली जाती ह ै। खड़ी बोली कसी एक
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जनपद क भाषा नह ह,ै यह कई जनपद या यह कह े क संपूण रा क भाषा ह ैतो
अित योि न होगी ।
राम साद िनरंजनी कृत ‘भाषायोगवािस ’ खड़ी बोली क पहली रचना ह,ै जो
सन् 1741 ई. म िलखी गई । इस संदभ म आचाय रामचं शु ल क दिृ प ह ै –
“िव म संवत् 1798 म राम साद िनरंजनी ने ‘भाषायोगवािश ’ नाम का ंथ साफ
सुथरी खड़ी बोली म िलखा । ये प टयाला दरबार म थे और महारानी को कथा बाँचकर
सुनाया करते थे। इनका ंथ देखकर यह प हो जाता ह ै क मुंशी सदासुख और
ल लूलाल से 62 वष पहले खड़ी बोली का ग अ छे प रमा जत प म पु तक आ द
िलखने म व त होती थी । अब तक पाई गई पु तक म यह योगवािश ही सबसे
पुराना ह ैिजसम ग अपने प र कृत प म दखाई पड़ता ह ै।”4 का भाषा के प म
खड़ीबोली का वि थत योग 19 व शता दी से ही होता ह ै। हदी सािह य के अनेक
इितहासकार ने खड़ी बोली प को आ दकाल और म यकाल म ढंूढ़ने का अथक यास
कया ह ै । सािह यकार कसी- कसी क किवता के कुछ श द के मा यम से यह िस
करना चाहते ह क खड़ी बोली के सािह य अ यंत ाचीन ह, परंतु स य तो यह ह ै क
खड़ी बोली के सािह य का िवकास नवीन ह ै । िशवदान सह चौहान ने खड़ीबोली के
सािह य को जब अ सी वष माना तब सािह यकार म हलचल मच गया और अनेक
ित याए ँसामने आय , िजसम कसी ने कहा क यह चौकान ेवली बात ह,ै तो कसी
ने घ टया मज़ाक माना । डॉ. ब न सह ने तो प कहा है क जो लोग हदी के
इितहास अ सी वष मानते ह वे इितहास बोध से युत ह । चौहान जी के िवचार को
कसी ने भी गहराई से सोचने क कोिशश नह क । डॉ. अमरे ि पाठी ने िलखा ह ै–
“ हदी सािह य के कुल इितहास को अ सी वष को िस करने क बात पर हदीवादी इस
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कदर मु कराते ह जैसे यह कोई घ टया मज़ाक हो । ऐसा लगता ह ैजैसे हदी सािह य के
इितहास को सातव सदी से आरंभ मानना एक वयंिस त य हो ।”5 अत: यह कहना
अनुिचत न होगा क हदी सािह य के इितहास का आरंभ 1873 ई. से मानने क जो
सम याएँ ह, वही सातव या यारहव सदी से मानने क भी । िशवदान सह चौहान का
मानना ह ै क इितहासकार ने तो सािह य के इितहास िलखते समय थ ही इधर-उधर
हाथ पैर मारते ह । उ ह ने िलखा ह ै– “हमारे इितहासकार ने खड़ी बोली हदी सािह य
का इितहास िलखते समय उसक ाचीनता िस करने के िलए िनरपवाद प से थ
ही इधर-उधर हाथ-पैर मारे ह ।”6 खड़ी बोली हदी श द का योग ब त चीन नह
ह।ै डॉ. भोलानाथ ितवारी ने भाषा-िव ान कोश म िलखा है – “खड़ी बोली श द ब त
ाचीन नह ह ै। इसका योग 1803 से पहले नह िमलता । इसके ारंिभक यो ा
म ल लूलाल, सदल िम और िगल ाइ ट उ ले य ह ।”7 इस तरह िशवदान सह
चौहान ने भी खड़ी बोली के संदभ म कहा ह ै क असल म खड़ी बोली प का िवकास
भारते द ु युग से माना जाना चिहए । हमेचं सूरी के ‘हमेचं श दानुसाशन’ म खड़ी
बोली के कुछ श द िमल जाते ह । इसम खड़ी बोली के चीनतम प को दखेा जा
सकता ह ै – भ ला आ जु मा रया बिहिण महारा कंतु, ल ेजंतु वयंिसअह जइ भ गा
ध एतंु । इसम भ ला आ, मा रया, भ गा आ द खड़ी बोली के श द क अभास दतेे
ह। इसके बाद नरपित ना ह िवरिचत बीसलदेव रासो म खड़ी बोली के छुट-पुट श द
िमलते ह, परंतु असल म यह राज थानी भाषा म िलिखत ह ै । हदी सािह य के
इितहासकार ने अमीरखुसरो को खड़ी बोली का थम किव मानते ह, परंतु िशवदान
सह चौहान इसे िनराधार मानते ह । उनका मानना ह ै क अमीरखुसरो ने जो पहिेलयाँ,
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मुक रयाँ िलखी ह उसम खड़ी बोली के श द िमलते ह । वे खड़ी बोली के नह वि क
उदवूाल ने उ ह उद ूभाषा के आ द किव मानते ह ।
इस कार य -त नामदवे, कबीर, नानक, दाददूयाल, भूषण, देव, घनानंद
आ द किवय के का म खड़ी बोली के श द अनायास िमल जाते ह, परंतु उन लोग ने
वतं प से खड़ी बोली म का क रचना नह कया । िशवदान सह चौहान का
मानना ह ै- “फुटकर खड़ी बोली योग के उदाहरण गु नानक (सन् 1469-1539 ई.),
दाद ू(सन् 1544- 1603 ई.) और अंत म भूषण (ज म सन् 1613 ई.) क िशवा-बामनी म
कुछ थान पर और िमलते ह । इसके बाद इंशा अ ला खां (मृ यु 1818 ई.) क लगभग
1798-1803 ई. के बीच िलखी ‘रानी केतक क कहानी’ म ठेठ खड़ी बोली प के कुछ
गाने िमलते ह, कतु इन फुटकर उदाहरण से उ ीसव शता दी के उ राध से पहले
खड़ी बोली हदी क कसी अिवि छ परंपरा का सू नह खोजा जा सकता । छह-सात
सौ वष के बीच केवल इतने से उदाहरण अपवाद मा ह और हमारी इस थापना को
ही िस करते ह क हदी का सारा का सारा सािह य अधुिनक युग, या रा ीय जागरण
के युग क पैदावार ह ै ।”8 इस कार िशवदान सह चौहान ने खड़ी बोली ( हदी)
सािह य के इितहास का आरंभ ीधर पाठक से माना ह ै। उ ह ने िलखा ह ै- “त य के
आधार पर यह वीकार करना ही इितहास संगत होगा क हदी (खड़ी बोली) का का
सू पात व तुत: ीधर पाठक (सन् 1859- 1928 ई.) ने ही कया ।”9 भारतद ुह र ं ने
ग क रचना खड़ी बोली म और प क रचना जभाषा म क । भारतद ुके संदभ म
राम व प चतुवदी के िवचार को दखे सकते ह - “किवता म उनका सं कार ह,ै ग म
िवचार । एक के िलए जभाषा को वे पकड़े ए ह, और दसूरे के िलए खड़ी बोली को
अपनाते ह । फर भारतद ु के बाद खड़ी बोली ही हदी े क ापक का भाषा
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बनती ह ै।”10 यदिप भारतद ुखड़ी बोली के समथक थे । खड़ी बोली के संदभ म उ ह ने
‘कालच ’ म िलखा था- ‘ हदी नयी चाल म ढली’ । इस बात को आचाय रामचं शु ल
ने िलखा ह ै– “1930 म उ ह ने ‘ह र ं मैगजीन’ नाम क एक मािसक पि का िनकाली
िजसका नाम 8 सं या के उपरांत ‘ह र ं चं का’ हो गया । हदी ग का ठीक
प र कृत प पहले पहल इसी ‘चं का’ म कट आ । िजस यारी हदी को दशे ने
अपनी िवभूित समझा, िजसको जनता ने उ कंठापूवक दौड़कर अपनाया, उसका दशन
इसी पि का म आ । भारतद ुने नई सुधरी ई हदी का उदय इसी समय से माना ह ै।
उ ह ने ‘कालच ’ नाम क अपनी पु तक म नोट कया ह ै क ‘ हदी नई चाल म ढली’,
सन ्1873 ई. ।”11 शु ल जी ‘कालच ’ को पु तक मानते ह, दरअसल यह कोइ पु तक
नह बि क दिुनया क महान ऐितहािसक घटना क सूची ह ै। डॉ. ब न सह शु लजी
पर आ ेप लगाते इ कहते ह क – “लगता ह,ै शु ल जी ने ‘कालच ’ दखेा नह था ।
यह पु तक नह ह ै बि क िविभ ऐितहािसक घटना के कालांकन क सूची ह ै ।
भारतद ुने ‘ हदी नये चाल म ढली’ िलखा ह,ै न क ‘ हदी नई चाल म ढली’ । ‘चि का’
का काशन वष 1874 ह ै1873 नह । अत: भारतद ुक दिृ म ‘ह र ं मैगजीन’ का
काशन वष ही हदी के नये प म ढलने का वष ह ै ।”12 िशवदान सह चौहान ने
भारतद ुके इस बीज श द को आधर मानकर हदी सािह य के इितहास को अ सी वष
मानते ह । हदी सािह य के इितहास क वि थत िवकास म भारतद ु के समकालीन
किव ीधर पाठक हदी का परंपरा के आरंिभक किव ह । उनका का मा िश प
या प क दिृ से ही नह बि क िवषय-व तु क दिृ से भी परंपरागत जभाषा से
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सवथा िभ ह ै। - “ ीधर पाठक अपे या अिधक साम य के किव थे और उ ह ने हदी
म जो किवता क , वह केवल टेकनीक और प क दिृ से ही नह , िवचार-व तु क दिृ
से भी नवीन थी, परंपरागत जभाषा का से िभ तो थी ही, रा ीय जागरण के
आरंभ काल क ितिनिध भी थी ।”13 िशवदान सह चौहान ने हदी सािह य के संपूण
इितहास को आधुिनक ही माना ह ै । 19 व शता दी से पहले क सािह येितहास को
उ ह ने जनपदीय भाषा का इितहास माना ह ै। आलोचक क अपनी शि के साथ सीमा
भी िनि त होती ह।ै िशवदान सह चौहान क भी अपनी एक सीमा ह ै। वे कई जगह
पर अपनी ही मा यता पर खरे नह उतरते ह । छायावाद के संबंध म उनके िवचार को
दखे सकते ह । डॉ. अमर ि पाठी ने प िलखा ह ै– “आलोचक य जड़ता ब त कम
रही । छायावाद के मू यांकन म भी उनका यह गुण साफ दखायी पड़ता ह ै। छायावाद
क हद ूमहासभा से तुलना वाले िवचार के प रवतन कर हदी सािह य के अ सी वष म
उ ह ने हदी किवता के िवकास के काल-िवभाजन छायावाद को क म रखकर कया ।
हदी सािह य के इितहास लेखन के साथ भी ऐसा ही आ ।”14 वही पु षो म अ वाल
ने कहा ह ै– “ हदी सािह य का आरंभ 1873 से मानने क सम या अपनी जगह ह,ै ले कन
हदी सािह य का आरंभ सातव या यारहव सदी से मानने क भी अपनी सम याएँ ह ।
इन सम या से जूझने के िलए चौहानजी के िवचार सू मह वपूण और ासंिगक ह ।
इन िवचार सू को आप थान के प म भी ले सकते ह और िवचारो ेजक ितप के
प म भी ।”15 पहले उनक छायावाद संबंिध दिृ कोण उतना व थ नही थी, परंतु जब
वे किवता का िववेचन करते ह तब वे छायावाद को ही आधार मान कर किवता का
अ ययन-िव ेषण करते ह । और तो और जब उ ह ने संपूण हदी सािह य को आधुिनक
ही माना ह ैतब छायाबाद को आधार मानना िनराधार ह ै।
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िशवदान सह चौहान ने छायावाद को आधार मान कर किवता के उ व-िवकास
पर कास डाला ह ै। उ ह ने हदी किवता को तीन युग म बाँट कर देखा ह ै–
(क) पूव-छायावाद युग
(ख) छायावाद युग
(ग) उ र-छायावाद युग
पूव-छायावाद युग
सािह य क दिृ से हदी किवता के ारंिभक किवय म ीधर पाठक, नाथूराम
शंकर शमा और राय दवेी साद पूण उ लेखनीय ह । इनके अलावा अयो या सह
उप याय ‘ह रऔध’, गया साद शु ल ‘ ेही’, मैिथलीशरण गु , माखनलाल चतुवदी,
रामनरेश ि पाठी, गोपालशरण सह, िसयारामशरण गु , सुभ ाकुमारी चौहान,
जग ाथ साद ‘िम लद’, यामनरायण पांडे आ द के नाम पूव-छायावाद किव के प म
चौहान जी ने रखा ह ै।
भारतद ुयुग को इितहासकार ने नवजागरण काल नाम दया, असल म यह युग
भि काल और रीितकाल के िवषय-व तु से सवथा िभ ह ै । समाज के ापक
भावबोध से सटी ई इस किवता का ऐितहािसक मह व तो ह ै कतु उसम सामािजक,
सां कृितक, सािहि यक चता का ऐसा कोई संदभ नह ह,ै िजससे उस किवता का कोई
मह व थािपत हो सके । भारतद ुयुग-पूव किवता के िवपरीत खड़ी बोली किवता के
िवषय-व तु, प, भाव, भाषा के तर पर पुरानी कचुल उतार कर नया प धारण
करने का यास करती ह ै। किवता दरवार से िनकल कर सीधे जनता से संबंध थािपत
करती ह ै । पूव-छायावाद युग किवता क िवशेषता का उ लेख करते ए िशवदान
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सह चैहान ने िलखा है – “सुधारक, चारक और प कार होने के नाते भारतदकुालीन
लेखक को दन- ित दन अपने-अपने संपा दत प -पि का ारा हद ू समाज म
चिलत कुरीितय , धी मक िम याचार, छल-कपट, अिमर क वाथपरता, पा ा य
स यता के रंग म रंगे नए िशि त वग क अनुकरण वृि , पुिलस और कमचा रय क
लुट-खसोट अदालत म चिलत अ याय-अनीित, उद ूके ित सरकार के प पात, दशे
क सामा य दरुाव था, अकाल, महामारी के कोप, अं ेजी शासन आ थक-शोषण आ द
के संबंध म अपने िवचार कट कर के पाठक को सामियक के ित जाग क बनाना
होता था ।”16 प -पि का के ारा सािह यकर ने सामाज क हर प रि थित का
अकंन कया और उस समय लोग ने उन पि का को बड़ी ही चाव से पढ़ा करते थे ।
भारतद ु ह र ं , तापनरायण िम , बालकृ ण भ , बदरीनरायन चौदरुी ेमघन,
ीिनवास दास, राधाचरण गो वामी, बालगंगाधर ितलक, कृ णकांत मालवीय,
गणेशशंकर िव ाथ , महावीर साद ि वेदी, देवक नंदन ख ी, चं धर शमा गुलेरी,
अि बका साद गु , ई र साद शमा, काशी साद जयसवाल आ द ने मश: ह र ंद
मैगजीन और किववचन सुधा, ा ण, हदी दीप, आनंदकादि बनी, सदादश, भारतद,ु
हदी केसरी, मयादा, ताप, सर वती, सुदशन, समालोचना, इ द,ु मनोरंजन,
पाटिलपु का संपादन कया । इन पि का के मा यम से सामाज, सं कृित, सािह य
और भाषा का सं कार आ ।
ीधर पाठक (1859-1928 ई.) खड़ीबोली के थम समथ किव ह । उ ह ने
सर वती पि का का संपादन कया तथा इसी के मा यम से खड़ीबोली किवता क रचना
क । वे मौिलक रचनाकार के साथ ही साथ एक समथ अनुवादक भी थे । उनक मौिलक
रचनाए ँ ह – वना क, जगत स ाई सीर, क मीर सुषमा, दहेरादनू तथा भारत गीत
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आ द मुख ह । ीधर पाठक क मौिलक कृितय के समान ही उनक अनुवा दत कृितयाँ
भी सरल ह ै । उ ह ने मु यत: कािलदास का ऋतुसंहार और गो डि मथ के तीन
कृितया-ँ हरिमट (एकांतवासी योगी), डेजटड िवलेज (ऊजड़ ाम), द ेवलर ( ांत
पिथक) का सफल अनुवाद कया ह ै।
पाठकजी के का म दशेभि , राजभि , और समाज-सुधारक के वर मुख रत
ह ै। उ ह ने शहर क कृि मता एवं आडंबरपूण वातावरण का िच ण कया तथा गाँव के
सरल और िन कपट लोग के ित साहनभूित कट क ह ै। िशवदान सह चहौन ने प
िलखा है – “नाग रक समाज के कृि म और आडंवरपूण वातावरण क अपे ा य-
जीवन क सरलता के ित उसके मन का सहज अनुराग ह ै । उसने अपनी रचना म
ा य-जीवन और भ -समाज के िश ाचार से अनिभ और गवांर, कतु आ मीय,
सरल और स दय ामीण के अनेक िच अं कत कए ह ।”17 अथात् सीधी-सीधी खड़ी
बोली तथा जनसधारण के िलए िलखी गयी किवता से पाठकजी का सुधारवादी ि व
झलकता ह ै । दशेभि , राजभि और समार-सुधार आ द िवषय के अपे ा पाठकजी
क ितभा का िनखार कृित-िच ण म आ ह ै । ीधर पाठक एसे पहले किव ह,
िज ह ने कृित का वतं िच ण कया । उ ह ने कृत-िच ण क परंपरागत ढ़ी से
हटकर कृित के वतं प म िच ण कया, िजससे नयी प रपाटी का आरंभ आ । डॉ.
ब न सह ने िलखा ह ै– “ ीधर पाठक पहले ि ह िज ह ने कृित के वतं िच ण
क ओर लोग का यान आकृ कया, याल और लावनी जैसे ामीण लय को
सािहि यक प दया, का म उस परो स ा का समावेश कया जो छायावादी का
क एक िवशेषता मानी जाती ह ै। इसिलए इस धारा के वतन का ेय उ ही को दया
जाता ह ै।”18 डॉ. नगे ने माना है क पाठकजी क सवािधक सफलता उनके कृित-
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िच ण से िमली ह ै। उ ह ने प िलखा ह ै– “सावािधक सफलता कृित-िच ण म ा
ई ह ै । त कालीन किवय म इ ह ने सबसे अिधक मा ा म कृित-वणन आ ह ै ।
प रणाम क दिृ से ही नह , गुण क दिृ से भी वह सव े ह ै । इ ह ने ने ढ़ी का
प र याग कर कृित का वतं प म मनोहारी िच ण कया ह ै।”19 पाठकजी ने कृित
का िच ण नवीन दिृ कोण से कया । उ ह ने कृित को उ ीपन प म ही नह ,
नैितकता का उपदशे दनेे के िलए नवीन प रधान म कट कया । उ ह ने का को
जीवन के अिधक समीप लाया तथा का म जनजीवन का ही अिधक िच ण कया ।
भाषा का प र कार उनके मौिलक रचना से ही नह , बि क अनु दत कृितय म उ ह ने
अिधक सफलता ा क ।
खड़ी बोली के थम महाकिव अयो या सह उप याय ‘ह रऔध’ (सन् 1865-1947
ई.) छायावाद-पूव किवय म मुख ह । ‘ह रऔध’ ने अनेक छोटे-बड़े का क रचना
क , िजसम मुख ह- रिसक रह य, ेमा बुवा रिध, ेम पंच, ेमामेबु वण,
ेमामेबु वाह, ेम पु पहार, उ ोधन, का ोपवन, ि य वास, कमवीर, ऋतु मुकुर,
प सुन, प मोद, चोखेचौपद,े वैदिेहक बनवास, चुभते चौपद,े रसकलश आ द ।
‘ि य वास’ सन ् 1914 ई. म िलिखत खड़ी बोली हदी का थम महाका ह ै ।
‘ि य वास’ म त कालीन सुधरवादी दिृ कोण उभरकर सामने आया ह ै । इसम राधा-
कृ ण न तो भि कालीन आ मा-परमा मा ह ैऔर नह रीितकालीन रसीले छैल-छिबले,
अिपतु वे िनतांत मानव ह । िशवदान सह चौहान ने िलखा ह ै– “ि य वास म कृ ण
अपने शु -मानव प म, िव -क याण-काय म िनरत एक जननेता के प म अं कत
कए गए ह ।”20 कृ ण का ि व वतं ता आंदोलन से जुड़े उन यागमयी ि व
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का तीक ह,ै िजसका जीवन रा िहत म सम पत ह ै । ‘ि य वास’ क कथाव तु पर
आचाय रामचं शु ल ने िलखा ह ै – “इसक कथाव तु एक महाका या अ छे
बंधका के िलऐ भी अपया ह ै।”21 इसपर होकर चौहानजी ने यह कहा क –
“का -व तु केवल कृ ण के वास- संग तक ही सीिमत नह ह ै। य द और भी सू मता
से देखा जाय तो बंध-रचना और यथाथ िच ण क प ित का मनोरम प ि य वास
म आ ह ै– सीधे-सीधे एक छोर से दसूरे छोर तक योरेवार कहानी के वणन करने
क अपे ा क ीय संग से आगे-पीछे हटकर मृित और कां ा के योग से जो कहानी कही
जाती ह,ै वह अिधक मनौवै ािनक भी होती ह ैऔर जीवन के िविभ अंतसबंध और
अंतसू को भी उ ा टत करने म अिधक समथ होती ह।ै”22 यह ठीक ह ै क ि य वास
क कथा-व तु उतनी िवशद नह ह,ै िजतनी क िव ान ने माना है । कृ ण का ज से
मथुरा का वास और फर लौट कर आने का संि वणन इसम िमलता ह ै। यह छोटी
सी घटना मा परंपरागत या ढ़ी त नह ह,ै बि क इस संि कथानक के मा यम
से त कालीन सम या पर दिृ पात कया गया ह,ै जो इसक मह वपूण िवशेषता ह ै।
ि य वास म व णत राधा उन मानवतावादी तमाम आदश क संबाहक ह,ै जो
त कालीन नारी समाज क वतं ता सं ाम से जुड़ जाने क सबल ेरणा थी । िशवदान
सह चौहान ने िलखा ह ै– “अयो या सह उप याय ने भी हदी को एक नई राधा दी –
आधुिनक युग क बु नारी के रंग म रंगी । व तुत: ि य वास म उ ह ने समय से पहले
ही रा -जीवन क एक क ीय सम या क पूव झलक द ेदी है और उसका आदशवादी,
अत: थूल समाधान भी उपि थत कया ह ै।”23 ह रऔधजी ने जभाषा तथा खड़ी बोली
दोन म रचनाए ँक ह ै। उ ह ने रसकलश क रचना जभाषा म क ह ै।
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मैिथलीशरण गु (सन् 1886-1964 ई.) ने ि वेदीजी के आदश एवं मा यता
को आधार मान कर सािह य क रचना क । उ ह ने अपनी समसामियक नैितक,
धा मक, रा ीय आकां ा को वाणी दकेर खड़ी बोली का को युगीन चेतना से जोड़ा
ह ै । गु जी क थम पु तक रंग म भंग रा ीय चेतने क वह अिभ ि ह,ै जो उ हे
अ य किवय से अलगाती ह ै । मैिथलीशरण गु के मुख का - ंथ ह ै– रंग म भंग,
जय थवध, भारत-भारती, कसान, शकंुतला, पंचवटी, अनध, हद,ू ि पथगा, शि ,
गु कुल, िवकट भट, ापर, पलासी का यु , िस राज, जयभरत, साकेत और यशोधरा
आ द । भारत-भारती म गु जी ने हदु के अतीत के गौरव गान क अपे ा वतमान क
हीनाव था का िच ण कया ह ै । चौहानजी ने प िलखा है – “गु जी ने भी भारत-
भारती म हदु के अतीत वैभव और गौरव क अपे ा म वतमान हीन-दशा का वणन
करके हद ूजनता को उ बु करना चाहा । का क मम-बोिधनी रसा मकता न रहने
पर भी यह पु तक उस समय हद ूयुवक म ब त लोकि य ई ।”24 गु जी के ारंिभक
दौर म सां दाियक सं णता और अं ेजी रा य के ित शंसा के भाव िमलते ह । परंतु
आगे चल कर गु जी क दिृ ापक एवं उदार मानवीय हो गयी । उ ह ने का क
रचना जनसधारण को क म रख कर क ह।ै सं कृित और सामाज का इितवृ ा मक
िच ण करना ही उनका ल य नह रहा, बि क नैितक मू य का उ ाटन उनके का के
िवषय रह े । िशवदान सह चौहान ने िलखा ह ै – “सं दाियक संक णता और समाज
सुधार क भावना से आगे बढ़कर इनका मानव- ेमी दय दिलत-पीिड़त कसान-मजदरू
के आतनाद या शंखनाद या दोन को सुनने म समथ ए ह ै।”25
‘साकेत’ मैिथलीशरण गु का नायीका धान महाका ह ै। इसक कथाव तु का
क राम और सीता न होकर उम ला और ल मण ह । इसम उपेि ता उम ला के महान
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याग का उ ाटन किव ने कया ह ै । इसके िजतने भी पा ह सभी मानवीय गुण से
ओत- ोत ह । राम आ द ई रीय प क प र पना न होकर आम जनता के अिधक
करीब ह ै। यही कारण ह ै क रामचं शु ल ने उ ह अनाड़ी कहा । आचाय शु लजी ने
िलखा है – “ कसी पौरािणक या ऐितहािसक पा के परंपरा से िति त व प को
मनमान ढंग पर िवकृत करना हम भारी अनाड़ीपन समझते ह ।”26 शु लजी को यह बात
ि य वास के संबंधम याद नह आयी, चौहानजी ने इस संग म इस कार िलखा है –
“आचाय शु ल ने ‘साकेत’ क आलोचना करते ए एकाएक सू - प म एक भयंकर
पुराण पंथी बात कही ह,ै जो न जाने य ‘ि य वास’ के संग म कहना वे भूल गए ।”27
असल म गु जी ने साकेत म पारंप रक राम को सामा य मानव के प म िचि त कया
ह,ै य क मानवता से भरा मानव ही ई र व का अिधकारी ह ै। इनके राम होकर
भी मनु य ह और मनु य होकर भी । इसके संपूण पा इ र नह बि क सामा य
मानव ह । िशवदान सह चौहान का मानना ह ै– “साकेत के राम वा मी क के लोक-
ितिनिध, वीर-च र और तुलसी के मयादा पु षो म लीलावतारीराम से िभ ह । वे
एक सामा य मानव ह और अपनी मानवता के उ कष ारा ही इ र व के अिधकारी ह ।
भरत, उम ला, कैकेयी, सुिम ा आ द सभी सामा य मानव ाणी ह ।”28 अत: इनके राम
मानवता के िलए ही अवतीण होते ह। साकेत म त कालीन सामािजक और राजनीितक
िच ण अित सजीव प म कया गया ह ै।
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छायावाद यगु
छायावादी का -धारा अपने ज म काल से ही िववाद के क म रही ह ै। आचाय
महावीर साद ि वेदी और आचाय रामचं शु ल ने छायावाद का -धारा पर पा ा य
का भाव माना ह ै। परीणाम व प ब त दन तक इस का धारा को ‘रोमा टीिस म’
का हदी पा तरण समझा जाता रहा । बाद म अनेक आलोचक और अनुसंधानकता
ने इन सभी ांितय का िनराकरण करके यह िस कया ह ै क छायावादी का -धारा
न आयाितत ह ै और न अपनी युगीन प रि थितय एवं युग-बोध से कटी ई । यह
का -धारा इसी दशे क ह ै। िशवदान सह चौहान ने िलखा ह ै– “आचाय ि वेदी और
आचाय रामचं शु ल जैसे आलोचक ने भी छायावादी किवय पर पा ा य किवता का
अनुकरण करने का आरोप लगाया था । बाद म छायावादी किवता को मा यता ा हो
गई तो हदी आलोचक ने यह वीकार कर िलया क छायावादी किवता हमारे दशे क
रा ीय जागृित क हलचल म ही पनपी और फली-फूली ह ैऔर इसक मु य ेरण रा ीय
और सां कृितक ह।ै यह दसूरी थापना स य के अिधक समीप ह ै।”29 अथात् चौहानजी
छायावादी का -धारा पर ‘रोमांटीिस म’ का भाव नह मानते ह । छायावादी
सािह य, कला और भाव े म एक आंदोलन ह,ै िजसक धान भावना, आधुिनक युग
क औ ोिगकता से े रत ि वाद ह ै । छायावाद हदी क मौिलक एवं वतं
िवचारधारा ह ै । यह हमारे दशे क राजनीितक और सामािजक चेतना क दने ह ै ।
चौहानजी ने इसे रा ीय चेतना से जोड़ा ह ै। उनका मानना ह ै क – “हमारे दशे म िजस
समय ि भावना का ज म आ उस समय रा ीय चेतना का भी उदय आ । इसिलए
ि भावना का ारंभ से ही रा ीय आजादी क भावना से गठबंधन हो गया और नई
छायावादी किवता का ि वाद असामािजक पथ पर न भटक कर रा ीय नवजीवन
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क उदा आकां ा का गंभीर मम-वेदना लेकर मुख रत आ ।”30 इस समय सामािजक,
आ थक, प रि थितय से कह मह वपूण भूिमका रा ीय राजनीितक प रि थितय क
रही । रा ीय प रदृ य म गाँधी का आिवभाव और उनके नेतृ व से रा म होने वाले
बदलाव का प रदृ य सामने आया । यह बदलाव मा राजनीित म ही नह समाज म भी
दखेा जाता ह ै । छायावाद के उदय के अनेक कारण ह । हदी सािह य कोश म प
िलखा गया ह ै– “छायावाद म यवग य चेतना के िव ोह के दसूरा नाम ह ै। उस िविश
काल क प रि थितय और िवचार-धारा ने िविवध प म जीवन और का को
भािवत कया था । पूँिजवाद का िवकास और ि वाद का ज म, व छंदतावादी
वृि य का उदय, थम महायु का भाव, राजनीित के े म महा मा गाँधी का
आंदोलन और संपूण समाज म वतं ता- ेम का जागरण, नयी पीढ़ी पर पि मी स यता
का रंग चढ़ाना तथा अं ेज रोमाि टक किवय से भािवत होना, किव रिव के ित
ा, बंगाल म -समाज का आंदोलन और राजा राममोहन राय के ांितकारी
िवचार, वामी दयानंद सर वती का कणका ड़ी वै णव-धम के िव आंदोलन – इन
िविभ सां कृितक प रि थितय ने िमल-जुलकर छायावाद का ज म दया ।”31
छायावादी का धारा पर अनेक मत मतां का भाव रहा । िशवदान सह चौहान ने
भी इस बात का समथन करते ए प िलखा ह ै– “छायावादी किवता म िविवध भाव-
संवेदना और दिृ कोण क अिभ ंजना ई ह ै।एक ही किव क िभ -िभन किवता
म उ लास, उ साह, िनराशा और अवसाद से पूण वैयि क अनुभूितय क िववृि देखने
को िमलती ह ै। चीन वेदांत-दशन, बौ -दशन, वामी िववेकानंद, रामकृ ण परंमहंस,
महा मा गांधी, मा स और अर वद के दाशिनक िवचार और िस ांत का उनक आ म-
चतन पर भाव पड़ा ।”32 छायावादी किवता म मानवतावादी दिृ कोण िविवध प
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म अिभ आ ह ै । ाचीन सं कृित और पा ा य सािह य के भाव से छायावादी
किवता ने ज म िलया । रा ीय जागरण म उसे पनपने का अवसर िमला । अत:
छायावादी किवता पर िववेकानंद, महा मा गाँधी, टैगोर और अर वद के दशन का गहरा
भाव पड़ा । डॉ. ब न सह ने अपनी मह वपूण आलोचना मक पु तक ‘आधुिनक हदी
आलोचना के बीज श द’ म छायावाद के सार का सू म िववेचन और न ददलुारे
वाजपयी, शु ल, नगे और नामवर सह के िवचार को प करते ए िलखा ह ै -
“न ददलुारे वाजपेयी शु लजी से ती मतभेद रखते ए कह -न-कह आ या मवाद के
समथक हो जाते ह, य िप उनका पूरा आ ह ह ै क छायावाद रह यवाद नह ह ै। डॉ.
नगे ने इसे दिमत भावना क अिभ ि कहा ह ै। नामवर सह इसे रह यवाद से
अलगाकर सामािजक प र े य म प रभािषत करते ह । व तुत: छायावाद अपने
अंत वरोध म एक सश का ा दोलन ही नह , एक नूतन जीवन-दिृ और न तर
का भाषा के िनमाण का मह वपूण काल था ।”33 अत: छायावाद हदी किवता के एक
िवशेष युग म पूववत युग के िवरोध म फू टत एक िवशेष भावा मक दिृ कोण, एक
िवशेष दाशिनक अनुभूित और एक िवशेष शैली ह,ै िजसम कृित को मानवीय प म
तुत कया जाता ह ै।
छायावादी किवता क किवय का मुख िवशेषता - वैयि कता का धा य,
मानवतावादी दिृ कोण, स दय भावना, ेम भावना, नवीन मू य क अिभ ि ,
रह यवादी भावना, वेदना और िनराशा, रा ीयता एवं दशे ेम, क पना क अितशयता,
कृित-िच ण िव मय क भावना, सामािजक, धा मक, राजनीितक और सािहि यक
ढ़ीय से िव ोह तथा उ मु ेम क वृि , तीका मक शैली और मानवीकरण
अलंकार आ द मुख ह । छायावादी का ि वादी चेतना से फु टत ह ै ।
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छायावादी किवय ने ि वादी चेतना को मूल प म वीकार कया ह ै। उनका का
न तो समाज का िवरोध करता ह ैऔर न यथाथ से पलायन । डॉ. वासुदेव सह ने प
िलखा ह ै– “क य क दिृ से छायावादी किवय ने वैयि क अिभ ि पर जोर दया
ह।ै उ ह ने िनजी अनुभूित को वाणी दी ह ै। उनके वर म वेदना अथवा दखु का ाधा य
रहा, अनुभूित के साथ ही भावुकता और क पना क धानता रही ह ै । इन किवय न े
कृित वणन को नया आयाम दया ह ै । शैली क दिृ से इस का का िश प िवधान
िनतांत प रव तत हो गया ह ै। इन किवय ने छंद के बंधन को अ वीकार कर दया और
किवता म ला िणकता, तीक िवधान, िवशेषण िवपयय, मानवीकरण आ द पर िवशेष
बल दया ।”34 छायावादी किव अपने प रवेश के बा थूल- प का वणन करने के
बदले उस प रवेश का उसके मन पर जो भाव पड़ा ह,ै उसक अिभ ि करता ह ै ।
छायावादी किव जड़ सामािजकता से उबकर कृित क ओर जाता है । कृित उसके
वतं और व छंद मनोभाव के िलए उ ेरक का काम करती ह ै।
छायावाद का आरंभ कब से होता ह ैइसको लेकर िव ान म एकमत नह है ।
आचाय रामचं शु ल ने आधुिनक काल को तीन उ थान म बाँटा ह ैतथा तृतीय उ थान
का आरंभ उ ह ने सं. 1975 िव. अथात् सन् 1918 ई. से माना ह ै । इसी काल खंड़ से
उ ह ने छायावाद का ारंभ माना ह ै । नामवर सह ने सन् 1920 ई. म ‘ ीशारदा’ म
कािशत मुकुटधर पांडेय क ‘ हदी म छायावाद’ नामक शीषक िनबंध से छायावाद का
ारंभ माना ह ै । राम व प चतुवदी सन् 1918 ई. म कािशत ‘ साद’ क रचना
‘झरना’ से छायावाद क शु आत मानते ह । ब न सह ने भी मुकुटधर पांड़ेय के ‘ हदी
म छायावाद’ नामक लेख से छायावाद का ारंभ माना ह ै । जो सन् 1920 ई. म
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‘ ीशारदा’ नामक पि का म कािशत आ था । इस तरह कसी िनि त बद ु से
छायावाद क शु आत मानना अ यंत क ठन ह ै। िशवदान सह चौहान ने सन् 1918 ई.
के पहले छायावाद क शु आत माना ह ैऔर अंत के िवषय म उनका प मत ह ै क
छायावादी किवता आज भी िलखी जाती ह ै। उ ह ने इस बात को करते ए िलखा ह ै–
“सािह य क कसी वृि का आ द और अंत कसी िनि त तारीख से बांध दनेा अ यंत
क ठन काम ह ै। इसिलए यह न समझ लेना चािहए क यु क समाि पर सन् 1918 ई.
म सहसा छायावादी का -धारा फूट पड़ी और दसूरा महायु शु होते ही सन् 1939 म
हठात िवलीन हो गई । छायावादी किवताएँ सन् 1918 से पहले ही शु हो गई थ और
सन1्939 के बाद भी होती रह । सच तो यह ह ै क अब भी रची जा रही ह ै।”35 अंतत:
हम कह सकते ह क सन् 1920 ई. म मुकुटधर पांडेय ने जबलपुर से िनकलने वाली
पि का ‘ ीशारदा’ म छायावाद िवषय पर चार लेख छापे, िजसम छायावाद पर
गंभीरता पूवक िवचार कया गया था । उस समय से ही छायावाद पर आचाय महावीर
साद ि वेदी, आचाय रामचं शु ल, आचाय न ददलुारे वाजपेयी, डॉ. नगे और
नामवर सह ने छायावाद को प रभािषत करने क कोिशश क , परंतु एक ही भाव को
िभ -िभ श द म कया गया ह ै।
छायावाद के चार मुख त भ ह – जयशंकर साद, सूयकांत ि पाठी ‘िनराला’,
सुिम ान दन पंत और महादवेी वमा ।
जयशकंर साद (सन् 1889-1937 ई.) छायावाद के वतक किव ह । ारंभ म
सादजी ने जभाषा म किवताए ँ िलखी । उनक जभाषा क किवता का सं ह
‘िच धारा’ नाम से कािशत आ । खड़ी बोली म क णालय, महाराणा का मह व,
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कानन-कुसुम, ेम-पिथक, झरना, आँसू, लहर, कामायनी आ द मुख ह । उनक
आरंिभक रचना पर ि वेदी युग के क य और िश प का पया भाव ह ै। सन् 1918
ई. म उनका का ‘झरना’ कािशत आ । इस का म साद क छायावादी वृित
पहली बार कट ई । डॉ. नगे ने िलखा ह ै– “‘झरना’ के पूव क सभी रचनाए ँि वेदी
युग के अंतगत िलखी गयी थ । सादजी क आरंभीक शैली ब त कुछ अये या सह
उप याय क सं कृतग भत शैली से िमलती जुलती ह,ै जो थूल और बिहमुखी है ।
छायावादी वृि य के दशन सबसे पहले ‘झरना’ म होते ह ।”36 िशवदान सह चौहान
ने भी ‘झरना’ को एक ौढ़ रचना माना ह ै। ‘झरना’ के थम काशन सन् 1918 ई म
मा 24 किवता का सं ह था तथा बाद म सन्1927 और 31 किवताए ँजोड़ी गयी ।
चौहानजी का मानना ह ै क मैिथलीशरण गु , बदरीनाथ भ और मुकुटधर पांडेय क
इस काल क गीता मय रचनाएं अपे या अिधक नई प ित क थ । उसम
व छंदतामयी भाव तथा िच ातमक भाषा का अिधक योग है । इसका भव सादजी
पर पड़ा ह ै। चौहानजी ने िलखा ह ै– “ सादजी ने भी पीछे नई प ित अपनाई और सन्
1918 म अनका 24 किवता का सं ह ‘झरना’ के नाम से कािशत आ । ‘झरना’ क
किवता को छायावाद क दशा म पहला यास ही समझना चािहए । उनम न ौढ़ता
थी, न कोई िविश नया वर ही, जो उस समय क चिलत किवता से उ ह अ यतम
बना दतेा । इसीिलए संभवत: सन् 1927 म ‘झरना’ का दसूरा सं करण िनकला िजसम
31 नई किवताए ंजोड़ी गई, िजनम छायावादी का -व तु और शैली क िविश ताए ँ
थ ।”37 चौहानजी ने सादजी का पहली ौढ़ छायावादी रचना ‘आँसू’ को माना ह ै ।
‘आँसू’ का रचना काल सन् 1925 ई. ह ै। इसका संशोिधत एवं प रव त सं करण सन्
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1933 ई. म कािशत आ । आँसू िवरह का ह ै । इसे किव ने मि त क क घिनभूत
पीड़ा कहा ह।ै डॉ. ब न सह ने िलखा ह ै– “आँसू मानवीय िवरह का ह ै। इसम ि य
क संुदर दहे-यि का आकषण ह,ै आ लगन-प ररंभण क मधुर मृितयाँ ह, ेमज य
पीड़ा ह,ै दखुानुभूित ह ै। पर यह सब यूटोिपया ह,ै मानिसक ह,ै व ज य है ।”38 इसी
तरह आचाय रामचं शु ल ने आँसू पर आ ेप लगाते ए कहा ह ै क वेदना का कोई एक
िन द भूिम न होने से सारी पु तक का कोई एक समि वत भाव नह िन प होता।
ठीक उसके बाद ही शु लजी ने यह माना है क साद क आँसू अपनी सरलता,
रंजनका रणी क पना, ंजनिच का बड़ा ही अनुठा िव यास, भावना क सुकुमार
योजना के चलते ब त लोग को अक षत कया । यह दोहरी दिृ शु लजी का य ह ै।
शु लजी ने इस पर िनयितवादी होने का आ ेप लगाया जो िनराधार है । डॉ. नगे ने
इसे िव -क याण भावना से जोड़ते ए, बताया ह ै क यह का िनयितवादी या
िनरासावादी का नह , वह मानव समाज के िलए क याण क भावना से प रपूण ह ै।
उ ह ने इसका िववेचन ब त ही संतुिलत ढंग से कया, जो इस कार ह ै– “किव ने
आरंिभक ि गत वेदना को भूलकर अंत म ‘आँसू’ को िव -क याण क भावना के
साथ संब कर दया ह ै। िजस कार रा ीय सां कृितक धारा के किवय म वाथ का
िनषेध कर समाज (भारतीय समाज) के क याण के भाव क ित ा दखायी दतेी ह,ै
उसी कार छायावादी किव भी ि गत वेदना से ऊपर उठकर क णा या िव
क याण क भावना क अिभ ि करने लगते ह । ‘आँसू’ का क आि मक और अंितम
मनोभूिम म इतना ावधान दखाई दतेा ह ै क आचाय रामचं शु ल –जैसे मेधावी
आलोचक ने उस पर आ ेप करते ए कहा है – ‘कहने का ता पय यह ह ै क वेदना क
कोई एक िन द भूिम न होने से सारी पु तक का कोई एक समि वत भाव नह िन प
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होता । ‘ कतु यान दनेे क बात यह ह ै क ‘आँसू’ एक मृित-का ह ै– किव ने अतीत
जीवन क अनुभूितय को मृित के मा यम से दद भरी अिभ ि दी है । यही कारण है
क ‘आँसू’ क भावभूिम थायी नह िवकासशील ह ै। उसम किव का अतीत (जो मृित
पथ पर आता ह)ै ही नह , उसका वतमान भी संयु ह ै । ... छायावादी का
िनराशावादी का नह ह,ै वह मानव समाज के िलए क याण क कामना से अलंकृत
ह।ै”39 चौहानजी ने आँसू का संबंध रा ीय आंदोलन से जोड़ा ह ै । रा ीय आंदोलन के
ोभ के बदौलत लोग म िनराशा छा गयी, िजसक अिभ ि आँसू म आ ह ै। उ ह ने
िलखा ह ै– “आँसू’ क रचना उन दन ई थी, जब दशे म रा ीय आंदोलन का जोर
था, कतु पूँजीवादी संसार एक भयंकर आ थक संकट म फंसा आ था और उस संकट से
बाहर िनकालने का, श ीकरण और यु का माग अपनाए बगैर, उसे और कोई माग न
सूझता था । इस आ थक संकट ने भारतीय जनता और भारतीय उ ोग-धंध को भी
अपने लपेट म लेकर एक िनराशा, अिनि तता और ोभ का वातावरण पैदा कर दया
था । सन् 1930-32 का रा ीय आंदोलनइस ोभ का प रणाम था, कतु साद के ‘आँसू’
ने िनराशा और अिनि तता को अ यंत मा मकता के साथ ित बिबत कया ।”40 इस
तरह आँसू म युगीन प रि थितय का सु दर िच ण िमलता ह ै। उनका अपना ेम-वेदना
इतनी ापक प म प रिणत होती ह ै क वह भाव मा किव का ही नह रहता, बि क
संपूण स दय क हो जाती ह ै । आँसू म मृितज य मनोदशा का िच ण, ि यतम के
अलौ कक प स दय का िन पण, ेम-वेदना क मम पश अिभ ि और िथत
िव के ित हा दक सहानुभूित का वणन आ ह ै।
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‘कामायनी’ (1935 ई.) सादजी क अंितम और सव े कृित ह ै। यह छायावादी
शैली म िलखा गया आधुिनक काल का सव े महाका ह ै। इसम मानवीय जीवन क
सम अिभ ि ई है । कामायनी म मनु, ा और इड़ा क पौरािणक कहानी के
मा यम से सादजी ने आधुिनक युग के मनु य के बौि क, भावना मक िवकास और
वैष य क कहानी िचि त क ह ै। कामायनी म तीक का धा य ह ै। इसके मुख पा
मनु, ा और इड़ा मश मन, दय और बुि के तीक ह । िशवदान सह चौहान का
मानना ह ै– “कामायनी क कथा एक पौरािणक वृ पर आधा रत ह,ै कतु यह वृ तो
एक पक ह ै िजसके मा यम से सादजी ने मनु य के बौि क और भावा मक िवकास
और आधुिनक जीवन के आंत रक वैष य क वा तिवकता को ही िच मयी भाषा म
ित बिबत करने का िवराट आयोजन कया है । का के मुख पा मनु, इड़ा और
ा पौरािणक से अिधक तीका मक ि ह । मनु आज के आ मचेतन ि वादी
ि के तीक ह । इड़ा आधुिनक पूंजीवादी समाज के वग-भेद और शोषण क
मा यता पर आधा रत बुि -त व क तीक है और ा मनु य क सहज मानवीय
भावना , नैितक-मू य और सौहा ता से से यु मानव दय के आ थाशील ा-त व
क तीक ह ै । इन तीन पा के मा यम से सादजी ने आधुिनक पूंजीवाद- णीत
स यता और उसके सम त अंत वरोध और असंगितय का ऊहापोह िववेचन कया
ह।ै”41 सादजी ने मनु को चंचल मन के प म, ा को िव ास समि वत रागा मक
वृि के प म और इड़ा को ावसायाि मकता बुि के प म िचि त कया ह ै। ा
मनु को रागा मकवृि के कारण ही मानवक याण का माग िनदिशत करती ह,ै जब क
इड़ा वसायाि मक बुि के कारण कमजाल म फँसाकर अंितम ल य तक नह
प चँाती। सादजी ने इन तीन के सम वय पर जोर दया ह ैतथा इन तीन को मश
इ छा, ान और या के प दान कया ह ै। सादजी क एक पंि को देख –
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“ ान दरू कुछ या िभ ह,ै इ छा य पूरी हो मन क
एक दसूरे से न िमल सक, यह िवडंबना ह ैजीवन क ।42”
आचय रामचं शु ल ने कामायनी का मु य उ े य आनंद क ाि माना ह ै ।
आनंद समर ता से ही ा हो सकता ह ै । कामायनी क अंितम पंि म समर ता क
क पना साद क इसी आनदं का प रणाम ह ै। उ ह न ेिसखा ह ै–
“समरस थे जड़ या चेतन, संुदर साकार बना था,
चेतनता एक िवलसती, आनंद अखंड घना था ।”43
िशवदान सह चौहान ने भी आनंद क ाि म समरस और सामंज य का
मह वपूण भूिमका मानी ह,ै जो कामायनी म मनु के चंचल मन को सामंज य ा
करती ह ै। उ ह ने प िलखा है – “मनु ने ा का याग करके इड़ा क सहायता से
िजस स यता का िनमाण कया वह अपनी सम त ी-संप ता के बावजूद ास- त हो
गई, य क उसम वग-भेद, आतंक-दमन, स ावाद, शोषण-दा र , कृि मता और
अहमंवाद का बोलवाला हो गया । इस स यता का वंस होने पर मनु का दय पुन:
ा क ओर वृ आ । ा उ ह इस धरती के जन-रव, वैष य, वग-भेद और
अह म यता के दिूषत वातावरण से दरू कैलाश पवत के समरस और सामनंज यपूण
आनंद-लोक म ले जाती ह ै ।”44 इस तरह साद ने कामायनी म आधुिनक जीवन क
मुख सम या का समाधान इस तरह कया ह ै क य द हम अपने जीवन म आनंद ा
करना ह,ै तो सबसे �