- श्री श्री रवीशंकर वै - tokyo hindi1.pdfव श ख म ह क...

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वै शाख माह की पूरमा को बुद को जब बो ाप ह आ, ो ऐसा कहा जाा है क वे एक सपाह क मौन रहे। उनहोन एक भी शब नहीं बोला। पौरारक कथाय कही ह क सवर के सभी ेवा चिंा म पड़ रये। वे जाने थे कक करोड़ व म कोई वरला ही बुद के समान ान ाप कर पाा है। और वे अब िुप ह! ेवाओं न उनसे बोलने की वनी की। महातमा बुद ने कहा, ‘’जो जाने ह, वे मेरे कहने के बना भी जाने ह और जो नहीं जाने है, वे मेरे कहने पर भी नहीं जानरे। एक अंे आमी को काश का वन करना बेकार है। जजनहोन जीवन का अम ही नहीं िखा है उनसे बा करना वयथ है, इसललए मैन मौन ार ककया है। जो बह ही आतमीय और वयजर हो उसे कै से वय कया जा सका है? शब उसे वय नहीं कर सके। शास म कहा रया है क, “जहाँ शब का अं होा है वहाँ सतय की शुआ होी है’’। ेवाओं ने उनसे कहा, ‘’जो आप कह रहे ह वह सतय है परनु उनके बारे म सोि जो सीमारेखा पर ह, जनको पूरी रह से बो भी नहीं ह आ है और पूरी रह से अानी भी नहीं ह। उनके ललए आपके थोड़े से शब भी ेराायक हरे, उनके लाभाथ आप कु छ बोल और आपके दवारा बोला रया हर एक शब मौन का स जन करे रा’’। शब का उदे शय मौन बनाना है। यद शब के दवारा और शोर होने लरे ो समझना िादहए, वे अपने उदेशय को पूरा नहीं कर पा रहे ह। बुद के शब ननजशि ही मौन का स जन कर रे, यकक बुद मौन की नमून ह। मौन जीवन का सो है और रोर का उपिार है। जब लोर ोच होे ह ो वे मौन ार करे है। पहले वे चिलाे ह और किर मौन उय होा है। जब कोई ुखी होा है, ब वह अकेला रहना िाहा है और मौन की शर म िला जाा है। उसरह जब कोई शलमा होा है ो भी वह मौन का आय लेा है। जब कोई ानी होा है, ो वहाँ पर भी मौन होा है। अपने मन के शोर को ेख। वह कसके ललए है? न? यश? पहिान? जप? समबन के ललये? शोर ककसी िीज़ के ललए होा है; और मौन ककसी भी िीज़ के ललए नहीं होा है। मौन मूल है; और शोर सह है। www.batj.org 67 Durga Puja 2016 मौन - ी ी रवीशंकर

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  • वैशाख माह की पूर्णिमा को बुद्ध को जब बो्ध प्ाप्त हुआ, ्तो ऐसा कहा जा्ता है कक वे एक सप्ताह ्तक मौन रहे। उनहोनें एक भी शब्द नहीं बोला। पौरार्क कथायें कह्ती हैं कक सवरणि के सभी ्ेदव्ता चि्ंता में पड़ रये। वे जान्त ेथे कक करोड़ों वर्षों में कोई ववरला ही बुद्ध के समान ज्ान प्ाप्त कर पा्ता है। और वे अब िुप हैं!

    ्ेदव्ताओ ंनें उनसे बोलने की ववन्ती की। महातमा बुद्ध ने कहा, ‘’जो जान्त ेहैं, वे मेरे कहने के बबना भी जान्त ेहैं और जो नहीं जान्त ेहै, वे मेरे कहने पर भी नहीं जानेंरे। एक अ्ेंध आ्दमी को प्काश का व्णिन करना बेकार है। जजनहोनें जीवन का अम्ृत ही नहीं िखा है उनसे बा्त करना वयथणि है, इसललए मनैें मौन ्धार् ककया है। जो बहु्त ही आतमीय और वयज््तर्त हो उसे कैसे वय््त ककया जा सक्ता है? शब्द उसे वय््त नहीं कर सक्त।े शासत्ों में कहा रया है कक, “जहाँ शब्दों का अ्ंत हो्ता है वहाँ सतय की शुरुआ्त हो्ती है’’।

    ्ेदव्ताओ ंने उनसे कहा, ‘’जो आप कह रहे हैं वह सतय है परन्तु उनके बारे में सोिें जो सीमारेखा पर हैं, जजनको पूरी ्तरह से बो्ध भी नहीं हुआ है और पूरी ्तरह से अज्ानी भी नहीं हैं। उनके ललए आपके थोड़ ेसे शब्द भी पे्र्ा्दायक होंरे, उनके लाभाथणि आप कुछ बोलें और आपके दवारा बोला रया हर एक शब्द मौन का सजृन करेरा’’।

    शब्दों का उद्ेदशय मौन बनाना है। यद्द शब्दों के दवारा और शोर होने लरे ्तो समझना िादहए, वे अपने उद्ेदशय को पूरा नहीं कर पा रहे हैं। बुद्ध के शब्द ननजशि्त ही मौन का सजृन करेंरे, ्योंकक बुद्ध मौन की प्न्तमून्त णि हैं। मौन जीवन का सत्ो्त है और रोरों का उपिार है। जब लोर क्ोच्ध्त हो्ते हैं ्तो वे मौन ्धार् कर्ते है। पहले वे चिलला्ते हैं और किर मौन उ्दय हो्ता है। जब कोई ्दखुी हो्ता है, ्तब वह अकेला रहना िाह्ता है और मौन की शर् में िला जा्ता है। उसी ्तरह जब कोई शलमिं्दा हो्ता है ्तो भी वह मौन का आश्रय ले्ता है। जब कोई ज्ानी हो्ता है, ्तो वहाँ पर भी मौन हो्ता है।

    अपने मन के शोर को ्ेदखें। वह ककसके ललए है? ्धन? यश? पहिान? ्तजृप्त? समबन्धों के ललये? शोर ककसी िीज़ के ललए हो्ता है; और मौन ककसी भी िीज़ के ललए नहीं हो्ता है। मौन मूल है; और शोर स्तह है।

    www.batj.org 67Durga Puja 2016

    मौन

    - श्री श्री रवीशंकर

  • 68 www.batj.orgAnjali

    आखँों का रश्ता

    - स र्ता कुमारी

    उड़्ती-उड़्ती उसकी नज़रें उन आखँों से टकराईं और वहीं दििक रईं। उसकी प््तीक्ार्त, बेिैन ननराहें यहाँ-वहाँ उड़ना-किरना छोड़कर बस उन काली-कतथई-गे् सी आखँों में उलझी ्तो उलझी ही रह रईं। पाखी को होश नहीं और न जाने वह कब ्तक सममोदह्त सी उन आखँों में उलझी रह जा्ती अरर उन आखँों की सवालमनी सवयं ही उसके पास आकर उस सममोहन की जकड़न से उसे छुड़ा न ले्तीं।

    “्या आप मुझ ेजान्ती हैं?” उन आखँों...नहीं नहीं...उनकी सवालमनी ने पाखी से शब्दों से

    ही नहीं आखँों में छलक्त,े दहलोरें ले्त ेसवालों के साथ िाशनी में डूबे रुलाबजामुन से ये मीिे-मीिे शब्द बड़ ेअपनेपन से उस पर उड़ले द्दए। पाखी झेंप रई। उन आखँों की जानी-पहिानी मीिी सी कलशश ने कुछ पलों के ललए उसे सब कुछ भुला द्दया था। वह कौन है, यहाँ इस भीड़ भरे रेसटोरेंट में ्यों है और ्या कर रही? सब कुछ। पर खु्द को सँभाल्त ेहुए, अपनी झेंप लमटाकर उसने उसी ववनम्र्ता से उत्तर द्दया,

    “जी...जी नहीं! माि कीजजएरा...मैं नहीं जान्ती आपको।”“ओह! जजस ्तरह से आप मुझ ेइ्तनी ्ेदर से, इ्तने पयार

    और अपनेपन से ्ेदख रहीं थीं, मुझ ेलरा आप मुझ ेजान्ती हैं...और शाय्द मैं ही आपको पहिान नहीं पा रही।” उस 23-24 वर्णि की इकहरे ब्दन की साँवली-सलोनी सी लड़की ने थोड़ा ननराश हो्त ेहुए कहा। मानो उसे उममी्द थी कक कोई भूली-बबसरी कड़ी आज अिानक हाथ लर जाएरी।

    बा्त ्तो सि थी उनकी, वह इ्तने रौर से उनहें एकटक ्यों ्ेदखे जा रही थी, ्या जवाब ्ेद? कैसे ब्ताए कक वह उनकी आखँों में सि ही ककसी बबछड़ ेहुए का प्ता ्ेदख पा रही थी...कैसे कहे कक वह आखँें उसे अपनी बहु्त अपनी लरी थीं। पर वह ऐसा कुछ न कह पाई। उसे कोई उपयु््त जवाब नहीं सूझा ्तो वह बस िुप रह रई। उसके िेहरे को रौर से ्ेदख्ती वो आखँें और उनकी सवालमनी थोड़ा असमंजस में आ रईं। पाखी भी ्या करे वह ्तो ऐसी ही है, बिपन से, बहु्त अन्तमुणिखी। बहु्त करीबी लोरों से भी कभी खुलकर कुछ नहीं कह पा्ती ्तो अजनबी लोरों से ्या कहे।

    “मैं ् या थोड़ी ्ेदर आपके पास बिै सक्ती हँू? मेरा नाम कामना है।” उसने एक हाथ से उसके िीक सामने की कुससी खींि्त ेहुए और ्दसूरा हाथ मुसकरा्त ेहुए उसकी ओर बढा्त ेहुए पूछा। पाखी भी मुसकरा ्दी। उसने अपना प रिय ्ेद्त ेहुए उसका बढा हुआ हाथ थाम ललया,

    “हाँ...बबलकुल...मैं पाखी हँू!”“ओह कक्तना पयारा नाम है! पाखी... पा...खी...!” उसने प्तयक्

    ही उसका नाम रुन्त ेहुए कहा।“ककसी का इं्तजार कर रही हो? बस थोड़ी ्ेदर...न जाने ्यों

    ्तुमसे बड़ा मन कर रहा बा्त करने का। पलीज अनयथा म्त लेना।”“नहीं…नहीं अनयथा लेने जैसी कोई बा्त नहीं...आप पलीज

    बैदिए...मेरे कुछ सहपािी आने वाले हैं। रमन का जनमद्दन है ्तो वह लंि ्ेद रहा है हमें। मैं कुछ जया्दा ही पहले आ रई। आप बैदिए मुझ ेअचछा लरेरा।”

    पाखी के मन में एक अदभु्त सुख की मं्द बयार िलने लरी। इन चिर-प रचि्त आखँों का साथ वह भी इ्तने पास से। इस व््त उसे इससे अच्धक कुछ नहीं िादहए था। पर अपनी सोि पर वह खु्द ही झेंप रईं।वह संु्दर-सलोना िेहरा उसे ही ्ेदखे जा रहा था।

    “मैं भी अपने एक ्दोस्त का इं्तजार कर रही लंि पर...पर लर्ता है वह थोड़ा लेट हो रया...जब ्तक मेरे ्दोस्त या ्तुमहारे ्दोस्तों में से कोई आ नहीं जा्ता। हम थोड़ा रप-शप कर ले्त ेहैं। अरर...्तुमहें कोई ऐ्तराज न हो।”

    उसने अनं्तम वा्य थोड़ा रझझक्त ेहुए जोड़ा।“नहीं...नहीं! आप पलीज ऐसा न कहें। मुझ ेखु्द आपसे बा्त

    करके न जाने ् यों बहु्त अचछा लर रहा है। आप बदैिए आराम से!”

    पाखी ने भरसक उनहें आशवस्त कर्त ेहुए कहा। उसे डर था कहीं ये बबछड़ी हुई सी आँखें किर कहीं रुम न हो जाएँ।कामना खुश हो रई और मेज पर पाखी के िीक सामने वाली कुससी पर ननजशिं्त होकर बैि रई। बैि्ते ही उसकी बा्तों का वपटारा खुल रया। ्दनुनया-जहान की बा्तें वह इ्तने अपनेपन से पाखी से करने लरी मानो वो कई जनमों से एक-्दसूरे से प रचि्त हों। पाखी की पढाई-ललखाई, रुचियाँ, ्दोस्त, प रवार न जाने ् या-्या। पाखी कभी िौंक्ती, कभी मुसकरा ्ेद्ती, कभी मुग्ध िुपिाप बस उनहें सुन्ती, ्ेदख्ती रह्ती। स्ैदव की लम्तभार्ी पाखी का योर्दान हाँ...हँू...या एका्ध वा्य से अच्धक नहीं था। वह हैरान थी कैसे लसिणि आखँें ही नहीं यहाँ ्तो सवभाव में भी अदभु्त समरूप्ता थी। उसका मन इन आखँों से जुड़ ेसारे ्द्दणि भूलकर एक मीिी पहिान भरी ऊषमा से भर रया। आज कक्तने समय बा्द जसेै उसे सुकून लमला, वही हाव-भाव और एक्दम वही आखँें इनद्र्धनुर्ी रंरों से भरपूर। उसका मन िाह रहा था कामना बस यू ँही बैिी रहे, बा्तें कर्ती रही, उसकी ्दखु्ती रर-रर पर नरम मुलायम मलहम रख्ती रहे। इस पीड़ा से कहीं से भी, कैसे भी राह्त ्तो लमले। पर यह चिरकाल ्तक समभव नहीं था।

    “ओह अरवव्ंद आ रए।” कामना ने अपनी रज़वणि सीट की ओर ्ेदख्त ेहुए कहा।

    “पाखी ्तमु मझु ेअपना िोन नमबर ्दो न पलीज। हम कांटै्ट में रहेंरे। ्तुमसे बा्त करके बहु्त अचछा लरा...्ेदखो मैं ्तुमहें ्तुम ही कहँूरी, मुझसे ्तो ्तुम ्तीन साल छोटी ननकली।” कामना ने जब पूरे अच्धकार से कहा ्तो वह मुसकराए बबना रह न सकी।

    “बबलकुल...आप ्ुतम ही कदहए।” िोन नमबर के आ्दान-प््दान के बा्द वे अपने-अपने ्दोस्तों

    में मशरूल हो रईं, थोड़ी ही ्ेदर में पाखी के सारे ्दोस्त भी आ रए थे। बा्त आई-रई हो रई। पर कामना की वो आखँें पाखी का पीछा कर्ती ही रहीं हर पल। उन आखँों में पाखी को अपनी खोई खुलशयों के खजाने की िाभी पड़ी द्दख रही थी। वह बेिनै थी उन आँखों की सनेदहल ऊषमा पाने के ललए। रेसटोरेंट में अपना लंि कर्त ेहुए कामना की नजरें रह-रह कर पाखी की नजरों से लमल्ती रहीं थीं और जा्त ेहुए उसने हाथ को कान पर लरा्त ेहुए जल्द ही कॉल करने का इशारा ककया था। अपने ्दोस्तों से निरी हुई पाखी ने मुसकरा कर इशारे से हामी भर ्दी थी।

    कॉलेज से आने के बा्द अपनी वयस्त्ताओ ंसे ननपट कर रा्त में सोने से पहले पाखी ने वहाटसएपप ऑन ककया और नमबर सक्ॉल कर्त ेहुए कामना के नमबर पर वह अनायास ही दििक रई। उससे लमलने के बा्द से लरा्तार कुछ ्तरल सा उसके मन की बं्द ्दीवारों में िुपिाप बह रहा था। कभी राढा हो जा्ता ्तो कभी इ्तना प्तला की बाहर बह जाने के ललए उिान मारने लर्ता। पाखी पूरी ्ताक्त से इस उिान को ्दबाकर मन का ढ्कन कस कर बं्द कर ्ेद्ती और उस ्तरल को राढा बनाने में जुट जा्ती। इ्तना राढा की पतथर होकर यह दहल भी न सके। वपछले ्दो सालों में वह इस ्तरल को पतथर बनाने में सिल ्तो नहीं हो पाई पर हाँ इ्तना राढा बनाना ्तो सीख ही रई है कक इसके व््त-बेव््त के उिान और बहाव पर काबू पा सके। पर आज कामना से लमलने के बा्द वपछले ्दो साल में इ्तनी मेहन्त से बनाए उसके ्धैयणि के ्दरुणि में जसेै ककसी ने बे्द्ददी से कई सुराख कर द्दए, जजससे लाख कोलशश के बा्द भी रस- रस कर ये ्तरल उसकी अन्तरातमा लभरोए ्ेद रहा था। पाखी वहाटसएपप पर कामना के नमबर पर उसकी डडसपले वप्िर िपुिाप थोड़ी ्ेदर ्ेदख्ती रही। वही आखँें… आतमववशवास से भरपूर, अथाह सनेह छलका्तीं पर रहरी और ्तजे से भरी हुईं। वह ्धोखा नहीं खा सक्ती ये वही आखँें हैं जो होश सँभाल्त ेही से उसके अन्दर-बाहर िारों ओर मँडरा्ती रह्ती थीं। सो्त-ेजार्त,े हँस्त-ेरो्त,े हर बा्त में, हर समय और अिानक वो उसकी ्दनुनया से एक द्दन हमेशा के ललए रायब हो रईं। कैसे वह बावली सी उनहें हर जाने-अनजाने

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    आखँों का रश्तािेहरे पर खोज्ती रह्ती, उसे प्ता था कक वो आखँें ्तो यहीं इसी ्दनुनया में ककसी और िेहरे पर जड़ी कहीं न कहीं जल-बुझ रहीं हैं। पर वो उसे अब ्तक कहीं नहीं लमलीं थीं। पाखी ने ्धीरे से बबस्तर के लसराहने रखे रानू ्दी्दी की िोटो उिाई और धयान से कामना की डडसपले वप्िर से ्तुलना करने लरी। वह थोड़ी हैरान थी और साथ ही थोड़ी आशवस्त भी...हूबहू वही आखँें, ये ्तो ननससं्ेदह रानू ्दी्दी ही हैं कामना की आखँों से झाँक्ती। उसे पयार से सहला्ती, समझा्ती, मना्ती, ्धमका्ती, डरा्ती, रखजा्ती...कक्तना कुछ। नहीं...वह इन आखँों को पहिानने में ्धोखा नहीं खा सक्ती। कभी नहीं।

    रानू ्दी्दी, उसकी बड़ी बहन जो आयु में ्तो मात् िार साल ही बड़ी थीं उससे पर अपने प्भावशाली वयज््ततव से उसकी राजजणियन से कम नहीं समझ्ती थीं खु्द को। कहने को ्तो ्दोनों सरी बहनें थीं पर सवभाव में ज़मीन-आसमान का अं्तर था उनमें। जहाँ रानू ्दी्दी लबालब आतमववशवास से भरपूर, मे्धावी, ्तजे-्तराणिर, बहुमुखी प्न्तभा की ्धनी, अपनी अलह्दा सोि और वयवहार से ्दनुनया से अलर ही वयज््ततव की मालककन और अपने वविारों से समय से बहु्त आरे थीं। वहीं रानू बेह्द शां्त, सरल और सौमय सवभाव की थी। उसकी ्दनुनया अपनी बड़ी बहन रानू के आरे पीछे ही िूम्ती थी। उसकी हर जरूर्त, हर समसया, हर परेशानी का लसिणि और लसिणि एक ही इलाज था, रानू ्दी्दी।

    रानू ्दी्दी थीं भी उसके हर मजणि की ्दवा। बिपन में उसके टूटे रखलौने को जोड़ने वाले गलू से लेकर बड़ ेहोने पर ककसी को ्ेदखकर ्धड़क्त ेद्दल की रहसयमय पुकार का ममणि समझाने वाली ्तक। उनसे उसकी कोई बा्त छुपी नहीं थी। वही थीं जजनके सामने वह बोल्ती थी ्तो बस बोल्ती रह्ती थी। बाहर का कोई अरर रानू ्दी्दी के सामने िल्ती उसकी पटर-पटर सुन ले ्तो शाय्द बेहोश ही हो जाए कक ये रूँरी रुडड़या बोल्ती भी है वह भी इ्तना अच्धक। पर उसका यह रूप लसिणि और लसिणि उसकी रानू ्दी्दी के ललए था। ्दनुनया में «टॉमबॉय» की इमेज वाली उसकी रानू ्दी्दी उसके ललए टॉमबॉय न होकर उसकी मारणि्दशणिक, उसकी संरक्क, उसका आ्दशणि और उसकी परम लमत्...सब कुछ वह ही थीं। उनके सामने ही पाखी असली पाखी थी। उसे या्द है बिपन में रानू ्दी्दी की छोटी बहन होने के कार् कैसे रानू ्दी्दी की छाया हर व््त उसे अपने आरोश में ललए रह्ती थी। एक अदृशय रानू ्दी्दी की िा्दर उस पर ्तनी रह्ती थी। सकूल में बबना प रिय ही सब उसे ्ेदख्त ेही समझ जा्त ेथे कक वह रानू ्दी्दी की छोटी बहन है।

    “अरे हूबहू रानू जसैी है! ए ्ुतम रानू की छोटी बहन हो न!”वह हाँ में लसर दहला्ती और झेंप कर भार जा्ती। रानू ्दी्दी

    की बहन होने के िाय्ेद ही िाय्ेद थे। कक्तनी बार उसे ्लास मॉनीटर इसललए बना द्दया रया कक टीिर को लरा कक रानू की छोटी बहन है ्तो वह भी रानू की ्तरह ही जजममे्दार और हर बा्त में होलशयार होरी। उसे अपनी पहिान बनाने के ललए कभी खु्द खास जद्दोजह्द नहीं करनी पड़ी। रानू का लमनी रूप उसे अपनी जरह द्दला ही ्ेद्ता कई बार वह सि में जजस लायक हो्ती उससे कहीं जया्दा ही। हाँ कभी-कभी उसे रानू ्दी्दी की छाया होने पर परेशानी भी हो्ती जब उससे जरूर्त से अच्धक उममी्दें की जा्तीं लसिणि इसललए कक वह रानू की छोटी बहन है ्तो वह सि में इस अनावशयक ्दबाव से ्तनाव में आ जा्ती थी। उसका मूल सवभाव रानू ्दी्दी जसैा मुखर नहीं था और लोर अकसर यह भूल जा्त ेथे। ्तब वह कई बार रानू ्दी्दी से नाराज होकर लशकाय्त कर्ती कक यह ्तो उसके साथ अनयाय है। ्तब वो समझा्तीं, उसकी म्द्द कर्तीं, यहाँ ्तक की ऐसी अनयाय पू् णि उममी्द रखने वालों और ्तलुना करने वालों से उसे बिाने का प्यास कर्तीं, िर-बाहर, सकूल, हर जरह।

    वह जाने कैसे एक रक्ाकवि सी हर समय उसके आस-पास हो्तीं और वह उनके ललए काँि सी पार्दशसी हो्ती जजसमें अन्दर-बाहर का सब कुछ उनके सामने बबखरा हो्ता। पर कभी-कभी रानू ्दी्दी का बिपन से संरक्क बने रहने वाला रूप उसे अखर जा्ता। वह बड़ी हो रही थी पर रानू ्दी्दी उसे हमेशा छोटी बचिी ही समझ्तीं थीं। हर समय उसे समहालने, उसकी म्द्द करने को ्तयैार। उसका ककशोर मन कई बार ववद्रोह पर उ्तारू हो जा्ता। उसे या्द है कैसे एक बार जब वह उनहें सकूटी पर पीछे बैिाकर कॉलेज ले जाने की जज्द पर अड़ रई ्तो वह बेमन से मान ्तो रईं पर रास्त ेभर उनकी भयभी्त टोका-टाकी और िबराहट से ्तंर आकर रास्त ेमें ही उसने सकूटी रोक ्दी थी और परेशान होकर उनसे कहा था,

    “्दी्दी आपको ्या लर्ता है ड्ाइववरं लाइसेंस के ललए टेसट मैंने ऐसे ही पास कर ललया? आप कब ्तक मुझ ेछोटी बचिी ही समझ्ती रहेंरी, लसिणि िार साल ही ्तो छोटी हँू आपसे। आप को लर्ता है मैं खु्द से कुछ कर ही नहीं सक्ती।»

    उसने झललाहट से भरी आवाज में कहा था। बेिारी रानू ्दी्दी लसटवपटा कर रह रईं थीं। उनकी ऐसी ही बड़ी-बड़ी आखँों में बेिाररी का भाव ्तरै रया था।

    “सॉरी छुटकी! सॉरी...! हाँ सि में मुझ ेप्ता नहीं ्यों इ्तनी िबराहट हो रही...्ूत कैसे सकूटी िला लेरी...अब िोंका की ्तब िोंका... बस यही द्दमार में नाि रहा। िलो अचछा अब मैं आखँें बं्द करके बिै जा्ती हँू....कुछ द्दखेरा नहीं ्तो डर भी नहीं लरेरा।» उनहोंने सवीकार कर्त ेहुए, रझझक्त ेहुए उसे मनाने की कोलशश की।

    “नहीं, मुझ ेनहीं िलाना अब...इ्तने डर के साथ आप पीछे बैिी रहेंरी ्तो प्का ही मैं कहीं न कहीं िोक ्दूँरी आज। आप ही िलाइए।”

    पाखी नहीं मानी ्तो नहीं मानी। उनका िेहरा कैसा उ्तर रया था। पाखी जान्ती थी उसके प्न्त उनका अथाह सुरक्ा भाव ही न िाह्त ेहुए भी उनसे ऐसा वयवहार करा रहा था। बिपन से उसे खरोंि भी लर जाए ्तो कैसा बौखला जा्तीं थीं। एक बार छुटपन में पड़ोस के एक लड़के ने खेल-खेल में नाराज होकर पाखी को ढकेल द्दया था, ्दीवार के कोने से उसके माथे पर िोट आ रई थी। रानू ्दी्दी ने ्ेदखा ्तो ये कह्त ेहुए कक «दहमम्त कैसे हुई उसकी मेरी बहन को हाथ लराने की» और रुससे में लाल हुई इनहीं आखँों से क्ो्ध की चिनरा रयाँ बरसा्तीं जाकर उस लड़के की मरमम्त कर आईं थीं। िर पर पापा ने रानू ्दी्दी की कसकर ्लास लराई थी ्तब। पर किर वो लड़का पाखी को ्ेदख्त ेही िबराकर पल में नौ ्दो गयारह हो जा्ता था। इस िटना की या्द आ्त ेही पाखी मुसकरा ्दी।

    उसकी ऐसी रानू ्दी्दी एक द्दन अिानक ही उसे छोड़कर हमेशा के ललए िली रईं। ्तब नहीं सोिा ्या उनहोंने कक उसकी पाखी का ्या होरा? या्दों की ररमाहट में ललपटी, रहरी सोि में डूबी पाखी ने एक रहरी साँस छोड़ी। ्तभी मोबाइल पर कामना का वहाटसएपप मसेैज िमक उिा,

    “सवीट ड्ीमस, सवीट रलणि! सो रई ्या? बहु्त रा्त हो रई। मैं अब फ्ी हुई। किर बा्त करँूरी ्तुमसे।आज ्तो रुड नाइट सवीटी।” पाखी उसके मसेैज को िूर्ती रही

    और सोि्ती रही कक ये ्या अजब रश्ता जुड़ रहा इस अनजान लड़की से, लसिणि एक आखँों के कार्...एक आँखों का रश्ता।

    “रुड नाइट कामना......्दी्दी।” पाखी ने बहु्त सोि्त ेऔर रझझक्त ेहुए मसेैज में ्दी्दी टाइप

    ककया।और उ्धर से उस पर ककसेज इमोदटकॉन की बौछार हो रई। “्तुम ्तो सि में ककसी मेले में बबछड़ी मेरी बहन ही हो। द्दल

    खुश कर द्दया छुटकी, जजयो मेरी डॉल।»“छुटकी!” पर ऐसे ्तो लसिणि और लसिणि रानू ्दी्दी बुला्तीं थीं उसे। और

    ्तब मन में ्तजेी से वपिल्त,े दहलोरें ले्त े्तरल में उिे ्तूिान को पाखी नहीं रोक पाई और वह आँखों के रास्त ेबह ननकला। उसने मोबाइल जसवि ऑि ककया और थोड़ी ्ेदर ्तरल को िोस बनाने की कोलशश छोड़ ्दी।

    सुबह उिी ्तो मन में एक ननशिय के साथ। नाश्त ेकी टेबल पर वह िुपिाप पापा को थोड़ी ्ेदर ्ेदख्ती रही, उनका लमजाज भाँपने की कोलशश कर्ती रही। खाने की टेबल पर अब कैसी जानलेवा िुपपी छाई रह्ती है रानू ्दी्दी के जाने के बा्द। वह हो्ती थीं ्तो खाने की टेबल पर भी िहाके रूँज्ते रह्ते थे। पापा का कड़ा अनुशासन मेज़पोश के नीिे रखसका कर वह ्दनुनया जहान की बा्तों का वपटारा खोले रह्तीं। बीि-बीि में पापा की रझड़ककयाँ, “रानू नाश्ता करो िुपिाप। खा्त ेसमय नहीं बोल्त ेइ्तना, कक्तनी बार समझाया है।” थोड़ी ्ेदर कहने को िुपपी और किर वही बा्तों का लसललसला, जजनमें वह पापा को भी िसीट ही ले्तीं। अब खाने की टेबल का भाँय-भाँय कर्ता सननाटा मानो मुँह चिढा्ता है सबका। कौन बोले? रानू ्दी्दी के अलावा िर में कोई भी बा्तूनी सवभाव का नहीं था। अब ्तो बीि-बीि में पलेट और िममि की बा्तिी्त की खनखन ही सुन जा्ती, वह ्तो िुप ही रह्त।े रानू ्दी्दी की शह पर िु्दक्त ेरहने वाली पाखी अब मशीन की ्तरह खाकर िुपिाप

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    आखँों का रश्ताटेबल से उि जा्ती। पर आज बहु्त सोि-समझ कर पाखी ने ्धीरे से एक सवाल पापा की पलेट पर रखसका द्दया।

    “पापा ्या ये समभव है कक ्दो बबलकुल अनजान लोरों की आखँें बबलकुल एक जसैी हों, यहाँ ्तक की क्द-कािी, िेहरा-मोहरा भी बहु्त लमल्ता-जुल्ता हो?»

    पापा के हाथ जहाँ के ्तहाँ रुक रए। उनहोंने इस अप्तयालश्त सवाल पर िौंक कर पाखी को ्ेदखा किर कुछ सोिकर बोले, “्या प्ता? पर नहीं हो सक्त ेयह भी यकीन से नहीं कहा जा सक्ता। होने को ्तो कुछ भी समभव है।पर ्तुम ये सवाल ्यों पूछ रही हो पाखी?”

    पाखी ने रझझक्ते हुए कल रेसटोरेंट में कामना से हुई मुलाका्त का पूरा ककससा सुना द्दया। पापा िुपिाप सुन्त ेरहे पर कुछ बोले नहीं। नाश्ता करके वह बबना कुछ बोले उसका लसर हौले से थपथपा कर उि रए। उनसे सकारातमक प्न्तकक्या न पाकर पाखी उनसे आरे कुछ भी न पूछ सकी। उसका ननशिय मन में ही कुलबुला्ता रह रया। उसने का्तर नजरों से माँ को ्ेदखा ्तो वह बस मुसकरा कर इ्तना ही बोलीं,

    “कभी कामना को िर बुलाओ, हम भी लमल लेंरे उससे।और आज कॉलेज के ललए ्ेदर नहीं हो रही ्या?»पाखी को माँ से थोड़ा हौसला लमला ्तो वह पूछ ही बिैी,“माँ ्या आपको नहीं लर्ता वो आँखें रानू ्दी्दी की हैं?»माँ दििक रईं किर वो उसके का्तर हो

    रहे िेहरे को मानो सांतवना ्ेद्ती हुई सी बोलीं, “्यों नहीं हो सक्तीं पाखी...पर बेटे आपको प्ता है कक पापा ्या सोि्त ेहैं इस बारे में...”

    “पापा की छोडड़ए आप ्या सोि्तीं हैं मममा?” “पाखी! बेटा मुझ ेभी पापा की बा्त बबलकुल िीक लर्ती है...

    हम ्यों ककसी के जीवन में हस्तक्ेप करें? बेटे ये ्तो ्तुमहारी ्दी्दी की इचछा थी...इसललए... नहीं ्तो...ये आखँें भी ्तो कब का लमट रई हो्तीं और ्तब ्तुमहें ऐसे भटकाव नहीं हो्ता... और वसेै भी ये कभी प्ता नहीं िलेरा और उसकी ज़रुर्त भी नहीं है! उन बा्तों से ्तुमहें रानू ्दी्दी अब नहीं लमलेंरी बेटा...सब्र करो पाखी। हमारे पास कोई िारा नहीं है अब।”

    माँ की ्द्दणि में डूबी आवाज से पाखी को अिसोस होने लरा कक उसने ये बा्त ्यों छेड़ी।

    “्तमुहें कामना अचछी लरी, बबलकुल रान ूजसैी द्दख्ती है ्तो उसे बेशक हमसे भी लमलवाओ पर बेटा मरृमरीचिका के पीछे न भारो पाखी।” उसका उ्तरा िेहरा ्ेदखकर उनहोंने उसे समझाने की कोलशश की।पाखी ने मानो माँ को ्तसलली ्ेदने के ललए एक िीकी मुसकान बबखेर ्दी।

    पाखी की अब रोज ही कामना से या ्तो िोन पर या वहाटसएपप पर लमबी-लमबी बा्तिी्त हो्ती। पाखी हैरान थी कक वह कैसे इ्तने कम समय में कामना से आशियणिजनक रूप से खुल रई थी। वह उसे ्दी्दी ही बुला्ती थी। कामना उसी के कॉलेज में रसिणि सकॉलर थी। जब भी उनहें समय लमल्ता वह अकसर कॉलेज में लमल भी ले्तीं। कामना उसे «मेरी छुटकी” कहकर कसकर रले से लरा ले्ती और पाखी के अन्दर का ्तरल जोर-जोर दहलोरें लेने लर्ता। वह उसकी काली,कतथई और सलेटी रंर के अजब िालमेल वाली आखँों वही बबलकुल उसकी रानू ्दी्दी जसैी आखँों में अपना खोया सुख किर से जीने लर्ती। उन आखँों के सामने वह किर से पार्दशसी होकर अपना अन्दर-बाहर सब बबखेर ्ेद्ती। जहाँ पयार था, समझाइश थी और कभी-कभी रझड़ककयाँ भी थीं।

    ऐसे ही एक द्दन पाखी ने ब्ताया कक उसके माँ-पापा भी कामना से लमलना िाह्ते हैं। कामना सहर्णि ्तैयार हो रई, एक रवववार माँ ने लंि पर उस बुला ललया। कक्तने द्दनों बा्द खाने की टेबल पर वर्षों पहले की रौनक लौट आई थी। कामना के रंर-रूप, क्द-कािी, हाव-भाव और सवभाव में रानू से अदभु्त सामय्ता थी। उसे ्ेदख पाखी के माँ-पापा भी थोड़ ेहैरान थे। उसका बा्ूतनी सवभाव, बा्त-बा्त पर उसकी रखलरखलाहट िर का कोना-कोना रमका रहा था। जाने कक्तने समय बा्द िर की ्दीवारें खुलकर हँस रहीं थीं। पाखी ने माँ-पापा की आखँों में भी कामना के ललए वही पहिान ्ेदखी जो उसने खु्द उससे पहली मुलाका्त में महसूस की थी। ककिन में ्दरवाजे के पीछे माँ को िुपके से अपनी भीरी आखँें पोंछ्त ेहुए भी उसने ्ेदख ही ललया।

    खाने के बा्द वे ्दोनों पाखी के कमरे में आकर रपपें मारने लरीं। पाखी के बेड के बरल में रखी रानू की फे्म की हुई ्तसवीर पर नजर पड़्त ेही वह िौंक रई। ्तसवीर उिाकर वह बड़ी ्ेदर ्तक रौर से उसे ्ेदख्ती रही। पाखी ने उसे रानू ्दी्दी के बारे में खास कुछ नहीं ब्ताया था इसललए कामना को िीक से कुछ प्ता नहीं था लसवाय इसके कक उसकी एक बड़ी बहन थी। वह असमंजस में थी। उसके िेहरे पर कई रंर एक साथ आ-जा रहे थे। उसे पाखी का अपने प्न्त अदभु्त लराव का कार् अब साि-साि समझ में आ रहा था। उस द्दन रेसटोरेंट में उसका अपलक उसे पयार और का्तर्ता से ननहारना...रहसय की पर्तें ्धीरे-्धीरे उ्धड़ रहीं थीं। उसका खु्द का पाखी के प्न्त अजब झुकाव, उसे हर व््त बार-बार ्ेदखने की इचछा, इन आखँों के अबूझ पर्दों के पीछे बं्द थीं। ये आखँें... ये िेहरा…

    “ये मेरी रान ू्दी्दी हैं कामना ्दी्दी! कक्तनी सनु्दर है न...!» इस अजीब िपुपी को ्तोड़ने की ररज से पाखी ने कामना का धयान भरं करना िाहा। “कक्तनी सुन्दर आखँें हैं न इनकी एक बार इनमें झाँक लो ्तो बस इनहीं के हो जाओ...और आप कक्तना लमल्तीं हैं उनसे...आप भी वसैी ही सुन्दर हैं...बबलकुल वसैी ही आखँें हैं आपकी भी...!” पाखी ने रझझक्त ेहुए ये भी कह ही द्दया।

    “हाँ सिमिु...बहु्त सनु्दर...बहु्त ही सनु्दर!” कामना ने बु्दब्ुदा्त ेहुए कहा। “्दी्दी की इचछा थी कक उनके बा्द उनके अरं ्दान कर द्दए जाएँ, इसललए उनकी आखँें, ककडनी, लीवर आद्द सब ्दान कर द्दया रया था” पाखी ने ्धीरे से रझझक्त ेहुए रहसय की पर्तें उ्ेधड़ी। “ओह कब?” कामना ने िौंक कर पूछा। “्दो साल पहले उनकी डथे के बा्द!” ये कहकर पाखी ने ्तजेी से बा्त ब्दल ्दी, साि था वह इस बारे में और कुछ ब्ताने में सहज नहीं थी।

    पर रानू की ्तसवीर ्ेदखने के बा्द कामना अिानक ही िुप सी हो रई। पाखी उससे ्दनुनया-जहान की बा्तें कर्ती रही, हँस्ती रही पर साि था कक कामना उसके साथ होकर भी साथ नहीं थी, वह ककसी और ही सोि में रुम हो रई थी। माँ ने िाय के ललए बुलाया ्तो पाखी उसे डाइननरं टेबल पर खींि लाई। माँ ने ्या नहीं रखा था िाय के साथ, समोसे, ढोकला, पनीर के पकोड़,े बेसन के लडडू और भी बहु्त कुछ।

    “माँ इ्तना कुछ, कामना ्दी्दी का पेट िट जाएरा आज।”“अरे ऐसे कैसे िट जाएरा...!” माँ हँस ्दीं। वह आज ननहाल थीं उसे ्ेदखकर। रानू की पसं्द

    की हर िीज वह कामना को रखलाना िाह्ती थीं। रानू खाने की बहु्त शौकीन थी और उनहें यकीन था कक जरूर कामना को भी ये सब पसं्द होरा और ये सि भी था। कामना सब भूलकर खाने में मरन हो रई थी और उसकी रखलरखलाहट किर से िर का कोना-कोना रमका रही थी। माँ और पाखी उसे ्ेदख-्ेदख ककसी और ही ्दनुनया में जी रही थीं। माँ की आखँें कामना को ्ेदख मानो अपनी खूबसूर्त बेटी की आखँों में झाँककर पहले की खुलशयाँ बटोर रहीं थीं। पाखी यह सब महससू रही थी, िपुिाप अपने वजू्द में ये माहौल सोख रही थी। कुछ साल पहले इसी खाने की टेबल पर डडनर कर्ते समय रानू ्दी्दी ने मानो ककला ि्तह करने वाले अ्ंदाज में ब्ताया था कक उनहोंने अपने मरने के बा्द अपने सारे जरूरी अंर, आँखें, ककडनी, लीवर, द्दल आद्द सब ्दान करने के ललए रजजसटे्शन करवा कर डोनर काडणि ले ललया है। उनकी एक सहेली जो उनके साथ ही एम बी बी एस के अंन्तम साल में थी, उसके साथ लमलकर उनहोंने इस महान काम को अंजाम ्ेद द्दया था और यह सब ब्ता्त ेहुए खुशी से िूली नहीं समा रही थीं। उसकी बा्तें सुनकर ्दा्दी स्दमे में आ रईं थीं और नाराज होकर बोली थीं, “कैसी पारल है रानू, ये सब ्या कर्ती रह्ती है और ्यों कर्ती रह्ती है। अभी इ्कीस बरस की भी हुई नहीं और मरने की बा्तें...मुझ बूढी पर भी ्दया नहीं आ्ती। जरूरी अंर ननकल रए ्तो मरने के बा्द मुज््त कैसे लमलेरी लड़की। आतमा भटक्ती रह्ती है मरने वाले की। अ्ल कहाँ है ्तरेी?”

    “्दा्दी…!!” रानू ्दी्दी हँस हँस कर बेहाल हो रही थीं।“आतमा....भटक्ती....!” “आतमा को भी लीवर, ककडनी की ्दरकार हो्ती है ् या ्दा्दी।” हँस्त-ेहँस्त ेउसकी आखँों में आसँू आ रए थे।“्दा्दी आप एक डॉ्टर पो्ती की ्दा्दी हैं...आपको ऐसी बा्तें

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    नहीं सोिनी िादहए।”“रानू! मुझ बूढी के सामने उसकी पो्ती का अपने मरने की

    बा्त सोिना िीक है ्या?” रानू ्दी्दी नननहाल और ्दद्दहाल ्दोनों ्तरि इस पीढी का

    पहला बचिा थीं, कहना न होरा कक प रवार में उनकी अहलमय्त ् या थी। प्ैदा हो्त ेही उनहोंने प्ता नहीं कक्तने नए रश्त ेएक साथ पै्दा कर द्दए थे। ्दा्दा-्दा्दी, नाना-नानी, िािा, बुआ, मौसी, मामा...न जाने कक्तने रश्त ेऔर बड़ी हो्त-ेहो्त ेअपने सवभाव से हर ककसी को एक अटूट मोहपाश में बाँ्ध्ती रईं थीं। ्दा्दी की बा्त से उनहें एहसास हुआ कक ये नेकी का काम ककसी के द्दल पर िोट भी कर सक्ता है। वह ्दा्दी को समझाने और मनाने लरीं और किर ्दनुनया जहान की ढेरों बा्तें और उ्दाहर् ब्ताने लरीं। सब उनकी बा्त सुन्त ेरहे और वो सबको हमेशा की ्तरह यकीन द्दलाने में सिल रहीं कक यह बहु्त नेक काम है और हर इंसान को इंसाननय्त के ना्त ेऐसा करना ही िादहए। न्तीजा हर कोई उनके इस न्शके्दम पर िलने को उ्तावला होने लरा।

    “और ्दा्दी कौन हम मरे ही जा रहे अभी...जब कभी मरेंरे ्तब हमारे ्दान ककए अरं ्दसूरों की जजन्दरी सँवारेंरे। पर अभी ्तो आपको पड़्दा्दी बनाने की जजममे्दारी भी ्तो पूरी करनी है हमें!” उसने श्ैतानी से कहा था।

    “श्ैतान! सु्धरेरी नहीं कभी ये।» ्दा्दी हँस्त ेहुए बोलीं थीं। पर इसके एक साल बा्द ही एक सड़क ्दिुणिटना में रानू ्दी्दी

    ्दा्दी से ककया अपना वा्दा अ्धूरा छोड़ रईं। ्दिुणिटना में उनके लसर पर िा्तक अ्ंदरूनी िोट आई थी जजसका न्तीजा असप्ताल पहँुिने के पहले ही उनकी साँसों की डोर टूट रई। आशियणिजनक रूप से उनके सारे अरं सही सलाम्त थे इसललए उनकी इचछानुसार वो सारे अरं ्दसूरों में प्तयारोवप्त करने के ललए ्दान कर द्दए रए। ्दा्दी ये

    स्दमा सहन नहीं कर पाईं और एक महीने के अ्ंदर ही वह अपनी लाड़ली पो्ती के पास िली रईं।

    पीछे कलप्ता मन, बबलख्ता द्दल और ्तार-्तार सपने ललए सब जजन्दरी का साथ ननभाए जा रहे थे। उनके जाने के बा्द पसरा सननाटा आज कामना के आने से टूटा था। वही िंिल शरार्ती आँखें और बा्तें माँ-पापा और पाखी को पुराने खुशहाल समय में लौटा ले रईं थीं। कामना संर कुछ पलों के ललए वो अपनी रानू के साथ खुलकर जी रहे थे। कामना के िेहरे से साि था कक आज नई बा्तें जानकार वह भी इस जजममे्दारी को समझ रही थी, ककसी के जीवन में रंर भरने वाली उस परी को सचिी श्रद्धांजलल ्ेद रही थी, उसी के िर में उसी के रूप में जीकर।

    िर जा्ते हुए कामना ने रेट पर वव्दा करने आई पाखी के िेहरे को अपनी ्दोनों नरम हथेललयों में ले्ते हुए कहा,» ये आँखें ्यों ्तुमहें ्ेदख्ते ही ननहाल हो जा्तीं थीं, आज समझ में आया। ्तुमहारी ्दी्दी जज़न्दा है छुटकी ऐसी ही ककनहीं आँखों में, मेरे जैसी ककसी कामना की आँखें बनकर। ्तुमहारी ्दी्दी जैसा ही पयार उमड़्ता है मेरी आँखों से ्तुमहारे ललए।» िकक्त पाखी को रले लरा्त ेहुए कामना आरे कह्ती जा्ती है, « जान्ती हो पाखी ्दो साल पहले मेरी आखँों का काननणिया ट्ांसपलांट ककया रया था, मेरी बुझी आखँों की लौ किर से जरमराने के ललए, ्तमुहारी ्दी्दी या उन जसैी सोि रखने वाले ककसी उ्दार और महान आतमा के दवारा ककये रए नेत््दान की ही ब्दौल्त यह समभव हो पाया था!» पाखी का लसर सहला कामना उसे पयार भरी आखँों से ्ेदख्त ेआरे बढ रई। पाखी िर के रेट पर सुनन खड़ी रह रई। कोई सुन पा्ता ्तो सुन्ता, वह बु्दबु्दा रही थी। “्तुम जज़न्दा हो ्दी्दी। ्तुम जसेै लोर कभी नहीं मर सक्त।े”

    - सुनील शमाणि

    अनाथ शशैव

    उन ननहें सजल नेत्ों के मात् एक दृजषटपा्त में,्दशणिन हुए मुझ ेशशैव के किोर्ता की रा्त में।सवयं ्तो पाया था उसे कोमल कृन्त,परं्तु ननरा्धार न है इस की ववकृन्तिक्ु साजननधय की प्व्तणिक वो शयाम रेखाएँउस वतृ्ताकार आनन में थीं रहरा्तीं,सुख आकांक्ा से संज्ाशूनय,धवनन्त मूक सं्ेदश थीं ब्तला्तीं।उस असीम्ता में मेरे ह्र्दय ने ककया प्शन ्धार्िवर्णि्त कर्ता है ्तुझ ेजो उरल ्ेद वो कार्,ढँूढा पाया ्तो बस पा्ता ही रयाएक कषट अकेलेपन का आ्ता ही रया।एक अनकहा भँवर हो उिा सजीवऔर अनकहे ही हो रया ननजसीवपा्ता हँू िे्तन्ता में अपने समक्सरस दृर का एक मूक कक्।समभव्त: उसी मूक कक् से हुई यह धवनन धवनन्तयही है जीवन की भंचरमा का एक और रर््तश्रव् हुआ मुझ ेउस धवनन में एक शोकना्दननराश्रय प््ताडड़्त यही है वह शशैव अनाथ।

  • लकड़ी की शान्दार िमक्ती मेज़ पर खाना लरा्त ेसमय िाँ्दी जड़ी अपनी पसं्दी्दा िॉपजसटक को क़रीने से सजा्ती हुई लम्दोरी ने साकुरा को पूरे लाड़ से पुकारा “साकुरा... साकुरारारारारा..खाना ्तयैार है! ्ेदखो आज मैंने ्तुमहारी पसं्द की आजी फुराई बनाई है।“

    ब्रैड के िूरे में ललपटी भुनी हुई आजी मछली साकुरा को बहु्त पसं्द थी और वो अपने खास अ्ंदाज़ में उस पर नींबू वाला सॉस डालकर खा्ती थी। कभी कभी ्तो लम्दोरी के ्दाँ्तों में खटटापन िर ले्ता उसे ्ेदखकर। पर जब साकुरा खाने के बा्द सं्तुजषटभरा िटकारा लरा्ती ्तो लम्दोरी के भी्तर हर बार माँ जार उि्ती और वो आखँो में नौ महीने भर साकुरा को ननहारने लर्ती। उसे लर्ता कक रभणिनाल अभी कटी नहीं है।

    जापानी वसं्त को ्ेदखने ्दनुनया भर से लोर आ्त ेहैं और िरैी के िूलों यानी साकुरा से ल्ेद बबन पत्तों वाले पेड़ों को अिरज से ्ेदख्त ेहैं। जब मािणि के अ्ंत में इनहीं रखल्त ेिूलों के बीि नसणि ने लम्दोरी के हाथों में एक जी्त ेजार्त ेरुलाबी िूल को रखा और वो उसकी हथेललयों पर कुनमुनाया ्तब उसके मुँह से भीरा सा एक शब्द ननकला था साकुरारारारा.. और किर उसके कई साल खुशबू से भर रए थे।

    साकुरा बिपन से ही िंिल और बहु्त होलशयार थी। हर बा्त जल्दी से सीख्ती और अपनी हरक्तों पर खुलकर हँस्ती। नानी और माँ ्दोनों को सारा द्दन उलझाए रख्ती थी।

    लम्दोरी ने इस बार थोड़ी बेिैनी से किर आवाज़ लराई। “साकुरा बेटा..आ जाओ न, मैं खाने पर ्तमुहारा इं्तज़ार कर रही हँू।”

    ‘............’कोई जवाब न पाकर लम्दोरी समझ रई थी कक माँ वाला

    हथकंडा अब काम नहीं आएरा। भले ही वो आजी फुराई बना ले या कुछ और कर ले पर अब साकुरा खाना खाने बाहर नही आएरी।

    बहु्त जज़द्दी है। अड़ रई ्तो बस अड़ रई। 12 साल की उम्र में ही अजीब सा बड़पपन द्दखा्ती है और कभी-कभी रहसय सी बन जा्ती है। लम्दोरी थोड़ी ्ेदर इं्तज़ार कर्ती रही और किर िुपिाप उसके कमरे में रई। जाकर ्ेदखा ्तो उसका कमरा सनूा था, अिानक लम्दोरी को या्द आया कक साकुरा ्तो नलसिंर होम रई है। डॉ्टर ने फोन पर ब्ताया था कक साकुरा को थोड़ी ्ेदर में िर भेज ्देंरे। उफ़फ ्या हो रया है उसे। कैसे भूल रई। अिानक उसे लरा कक वो बहु्त बीमार हो रई है, उसे अलज़ाइमर जैसा कोई रोर हो रया है शाय्द। लेककन जो भूलना िादहए वही सब ्यों नहीं भुला पा्ती। लम्दोरी खाने की मेज़ पर आकर ननढाल सी बैि रई। उसे या्द आया कक ऐसे ही एक द्दन ्दबे पाँव साकुरा के कमरे में रई थी ्तो साकुरा चथरक रही थी, बबना ककसी संरी्त के। जब साकुरा की नज़र उस पर पड़ी ्तो उसने कं्ेध झुमाकर अपने कुलहे निाए और बाँ्ध ्तोड़्ती न्दी सी गसुसे में बाहर भार रई। उसे ्ेदख लम्दोरी का रोयाँ-रोयाँ काँप उिा था। रूह कहीं और पहँुि रई थी उसकी। उफ़फ ये कौन है, उसकी साकुरा ्तो नहीं। जापानी खून नस-नस से शालीन और सभय। किर ये कौन झाँक रहा है उसकी बेटी के भी्तर से। अपनी बेटी में एक अलर ही ्ेदश द्दखाई ्ेदने लरा था उसे। ये कौन सा जवार है जो बेटी के शरीर से बार-बार बाहर आना िाह्ता है।

    लम्दोरी अकेली ही खाना खाने लरी और बी्त ेद्दनों में खो रई।

    उस द्दन उसे यक़ीं नही हुआ था जब टीिर ने िर पर लशकाय्त भरा ई-मेल भेजा था। कैसे कर सक्ती है साकुरा ऐसा। कैसी सनक है। ्दाँ्तों के बीि बलेड नछपाकर रखना और किर अपनी ्लास के लड़के को डराना। कभी ककसी की िोटी खीँि लेना ्तो कभी ककसी का सामान नछपा ्ेदना।..्यों कर रही है वो ऐसा। कक्तनी बार माफी माँरनी पड़ी थी लम्दोरी को। साकुरा का वयवहार उसके पूरे वजू्द पर सवाललया ननशान लरा ्ेद्ता था। बालों को रहरा हरा

    और नीला रंर ललया था, सामने के बालों की एक लट में मो्ती वपरोकर पीछे खींि रबर लरा ले्ती। जो पॉककट मनी लमल्ती उसे इनहीं सब में खिणि कर्ती।

    एक बार लम्दोरी साकुरा के साथ वपयानो शो ्ेदखने रई। पर साकुरा कुछ ही ्ेदर में ऊँिने लरी और बाहर जाने की जज़्द करने लरी। लम्दोरी ने गसुसे में उसे बाहर भेज द्दया और आ्ेध मन से वपयानो के सुरों में शांन्त ्तलाशने लरी। कुछ ्ेदर बा्द बाहर जाकर ्ेदखा ्तो साकुरा ने अपना एक अलर ही मजमा लरा ललया था। सड़क पर प््दशणिन कर्त ेएक कलाकार के साथ कं्ेध पर छोटा ड्म रखकर बजाने लरी। लोर शांन्त से खड़ ेहोकर सुन रहे थे और कुछ वहाँ रखी सी.डी. खरी्द रहे थे।

    साकुरा का वयवहार हर िढ्त ेद्दन के साथ बबरड़्ता जा रहा था। कुछ समय बा्द लम्दोरी को इस वयवहार का ववज्ान समझने के ललए मनोवजै्ाननक के पास जाना पड़ा। उसने ब्ताया कक वसेै ्तो साकुरा सामानय है लेककन शाय्द उसके जीवन में वप्ता की कमी ही इस उद्ंदड्ता का कार् है। लम्दोरी के सामने किर एक सवाल आन खड़ा हुआ। साकुरा के पै्दा होने के कई साल बा्द ्तक लम्दोरी ्दहश्त में रही। उसे डरावने सपने आ्ते और वो रा्त को ही साकुरा को उसके बबस्तर से उिाकर अपने साथ सुला ले्ती। कसकर पकड़ ले्ती उसे। कोई उसकी ्दौल्त उससे छीन न ले। िबराई सी रह्ती थी कक ककसी द्दन साकुरा अपने पापा के बारे में सब कुछ पूछने की जज़्द करेरी ्तो कैसे ब्ता सकेरी पूरी कहानी। लम्दोरी झटके से किर टेबल पर लौटी। ककसी ्तरह कुछ कौर खाकर वो अपने कमरे में पहँुिी और बडै के पास सजी छोटी सटडी टेबल पर पड़ ेउस कागज़ को िूरने लरी, जजस पर ललखा था कक पजशिम एलशया के कुछ समूह ्तो्यो में नतृय प्स्तुन्त के ललए आ रहे हैं और एक महीने की वकणि शोप का भी इं्तज़ाम है। बचिे सकूल की ओर से रोज़ डाँस सीखने जा सक्ते हैं। लेककन अलभभावकों की सहमन्त िादहए।

    लम्दोरी के मन में ्दसूरे ्ेदश से जुड़ा एक डर था। इसललए साकुरा को ्दरू ्ेदश के बुरे हाला्त ब्ता्ती रह्ती और ऐसी कफलमें द्दखा्ती जजनमें गरीबी की वे्दना भरी हो्ती। मदहलाओ ंके रखलाफ हो्ते अपरा्धों के बारे में सुन्ती और अपनी बचिी के बारे में सोिकर काँप उि्ती। नहीं..नहीं.. वो अपनी बेटी को कहीं नहीं जाने ्ेदरी। लेककन साकुरा को कैसे समझाए कक जब उसकी ्लास के बाकी बचिे आराम से डाँस सीखने जा सक्ते हैं ्तब वो ्यों नहीं। ्या कहे लम्दोरी? अपने डर को ककन शब्दों में आकार ्ेद? ्तलाक जापानी समाज में कोई बड़ी बा्त ्तो नहीं। मदहलाएँ आराम से रह रही हैं। हर ्तरह का सहयोर लमल्ता है और सममान में भी कोई कमी नही है। किर यहाँ ्या डर है। डर है उस जोश का, जो कभी-कभी उसे साकुरा में नज़र आ्ता है। माँ-बेटी के बीि सवालों ने अपना लस्का जमा ललया है। एक छोर साकुरा थामे खड़ी है और ्दसूरा लम्दोरी। साकुरा ने ्तो नानी को ही माँ मान ललया है बस। अपने कमरे में बं्द रह्ती है हर समय। कक्तने द्दन हो रए सकूल नहीं रई। ज़बर्दस्ती की ्तो अपने पैर पर बलेड से कई जरह काट ललया। लम्दोरी काँप रई.. खून की हर एक बँू्द में उसने खु्द को बह्ते ्ेदखा था। शुक् है कक जान-पहिान के डॉ्टर ने बा्त समभाल ली। लम्दोरी अभी भी उस कागज़ को िूर रही थी। टेबल पर रखे उस कागज़ से रे्त झड़ने लरी। कमरा एक मरृमरीचिका से भर रया। उस मेज़ पर या्दों के टीले ही टीले उभर आए। उसे लरा वो उनहीं टीलों में ्दब जाएरी और कुछ िुटी-िुटी सी लससककयाँ उसे अपने मन में सुनाई ्ेदने लरीं।

    केस रया बालमां आवो जी, प्धारो महारे ्ेदस......सारंरी, ्तबला और खड़्ताल एक ्दसूरे का सुर संभाल्त े

    माहौल में रंर िोल रहे72 www.batj.orgAnjali

    वपजंरा

    - नीलम मलकाननया

  • हैं। कालबेललया की ्धुन पर राजसथान चथरक रहा है और साथ ही वो भी।

    एक समूह के साथ लम्दोरी िूमने रई थी भार्त। अलर-अलर जरह जा्ते हुए और यूनेसको की ववशव सांसकृन्तक ्धरोहरों को ्ेदख्त ेहुए उनका समूह पाँिवे द्दन जयपुर के जजस हॉटेल में रुका था उनहोंने कालबेललया नाइट का आयोजन करवाया था। जापान में जज़ै, बलैी डाँस और दहप हॉप को ही नाि की ्दनुनया समझने वाली 14 साल की लम्दोरी हैरान आँखों से ्ेदख्ती रही रे्तीली चथरकन को। जब साढे पाँि कफट लमबे उस ककशोर ने अपने ब्दन को ्दहुरा कर लोहे के रोल िेरे के बीि से ननकाला ्तब सभी ने हैरान होकर ्ताललयाँ बजाईं। रोल पलेट पर जब ्दो ्तलवारों पर उसका लंबा िौड़ा शरीर चथरका ्तब ्तो जसेै सभी की सांसे अटक रईं। लम्दोरी का ककशोरमन उस पल ककसी सामुराइ को खोजने लरा। पुनजणिनम पर आ्धा र्त कई कहाननयाँ उसके शरीर में खून के साथ एक पूरा ्दौरा कर आईं। भरैव लसहं नाम के इस ककशोर नट की समूह में अपनी ववशरे् जरह थी और हाल ही में एक हा्दसे में अपने वप्ता को खो ्ेदने वाले भरैव पर सभी लाड़ लुटा रहे थे। लम्दोरी को उसका नट होना अगें्ज़ी की नॉट जसैा लरा और वो प रिय की ककसी रेशमी राँि की ्तलाश में भरैव की भूरी आखँों की रहराई में उ्तर्ती रही।

    ्तो्यो के वयस्त इलाके़ के एक बहु्त मँहरे शराबखाने यानी इज़ाकाया में रोशनी की महीन सी िा्दर बबछी है। कोने में छोटा सा रोल पलेटफॉमणि बना है जजस पर खड़ी प्तली ्दबुली लड़की हाथ में माइक थामे दहबारी लमसोरा का ‘कावानो नारारे नो योउ नी’ राना रा रही है। लसररेट के छलले हवा में अिखेललयाँ कर रहे हैं और बीि-बीि में जापानी शराब साके भी लड़खड़ा्त ेलोरों के रूप में अपनी उपजसथन्त ्दशाणि्ती है। लम्दोरी भरैव को री्त का भाव ब्ता रही है कक हाला्त कैसे भी हों जीवन में न्दी की ्तरह बस बह्त ेरहो। किर वो िॉपजसटक से िावल खाना लसखा्ती है और हर बार जब िावल मुँह में जा्त-ेजा्त ेवावपस कटोरे में चरर जा्त े्तब भरैव रखलसया जा्ता और वो खुलकर हँस्ती। कई बार ऐसा हुआ। राजसथान की हथकढ शराब ्तो भरैव छोटी उम्र से ही झले्ता आ रहा था पर साके पिा पाना इ्तना आसान नहीं लरा। भैरव ने कटोरा पकड़ा और हाथ से खाना शुरू कर द्दया, इस बार रखलसयाने की बारी लम्दोरी की थी।

    जापान में लोकनतृय के एक आयोजन में राजसथान के कालबेललया समूह को भी आमंबत््त ककया रया था और भरैव लसहं को साथ लाने का खास अनुरो्ध ककया रया था ्योंकक जो समूह इज्डया में भैरव के कर्तब ्ेदख िुका था वो अपने साचथयों को भी ये द्दखाना िाह्ता था कक सपेरों के ्ेदश में वानर प्जान्त अपने सु्धरे हुए रूप में ककस ्तरह हैरान कर ्ेदने वाले कर्तब द्दखा्ती है।

    जापान का एक अलाभकारी संरिन ्दनुनया के हर दहससे में िैले जजजपसयों पर शो्ध करवा रहा था। ्तथयों से उजारर हुआ कक संसार में जहाँ भी आज जजपसी हैं उनकी जड़ ेभार्त के राजसथान में ही हैं। सद्दयों पहले अपनी रिरी और री्त ले जजपसी रे्त के संसार से रवाना हुए थे और किर हवाओं के रास्त ेखुशबू से हर ्तरफ िैल रए। कहीं समसया बने ्तो ककसी ्ेदश में मनोरंजन। लम्दोरी की माँ इस संरिन के स्दसय की प रचि्त थीं और इसी ललए जब भी इस ्तरह का कोई आयोजन हो्ता लम्दोरी के ललए अलर संसकृन्त के साथ ही अलर ्ेदश के उस रिीले नौजवान को समझने का भी मौक़ा हो्ता जो ककसी पॉप सटार की ्तरह लंबे बाल ्तो रख्ता ही था पर नई उरी मूँछों की रोबबली छब जजसे िेि बना्ती थी। जब वो बा्त कर्त ेसमय लम्दोरी को एक्दम हवा में उछाल रो्द में जकड़ ले्ता ्तब वो अपने ्दोस्तों के बीि राजकुमारी हो जा्ती। माँ की आखँें या ्तो ये ्ेदख नहीं सकीं या किर सोिा होरा कक जीवन को समझने का ये भी एक ्तरीक़ा है।

    मीिे झूि की रफ़्तार समय से वपछड़ रई और लम्दोरी के शरीर में आया ब्दलाव माँ ने ्तुरं्त भाँप ललया था। िौथा महीना था और माँ ने सोि ललया था कक ्दो बचिों की ना्दानी के िल इस ्तीसरे बचिे की भेंट नहीं िढाई जाएरी। मतृयु की ्दारु् आहट ने जजस लसद्धाथणि को बुद्ध बनाया उनहीं के रिे बौद्ध ्धमणि ने, अनुयायी माँ को जीवन का सममान करना लसखाया। समयिक् ककसी की परवाह ककए बबना अपनी रफ़्तार से िल्ता रहा।

    आनन फानन में भैरव को ्तो्यो बुलाया रया और लसटी ऑकफस में जाकर नोदटस द्दया। एक कागज़ का टुकड़ा और पयार को खेल समझ्त े्दो िढ्त ेजीवन पन्त पजतन बन रए। बहु्त कोलशश की

    रई कक भरैव को कुछ काम लसखाया जाए, उसे जापानी समु्दाय में उिने बिैने लायक बनाया जाए पर जंरली ि