ram-lakshman-parshuram samvad poem class 10 cbse ppt

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राम लक्ष्मण परशुराम संवाद

तुलसीदास गोस्वामी तुलसीदास 1511 - 1623 एक महान कविव थे। उनका

जन्म सोरों शूकरक्षेत्र (वर्त!मान कासगंज जनपद) उत्तर प्रदेश में हुआ था। कुछ विवद्वान् आपका जन्म राजापुर में हुआ मानरे्त हैं। अपने जीवनकाल में उन्होंने १२

ग्रन्थ लिलखे। उन्हें संस्कृर्त विवद्वान होने के साथ ही विहन्दी भाषा के प्रलिसद्ध और सव!श्रेष्ठ कविवयों में एक माना जार्ता है। उनको मूल आदिद काव्य रामायण के रचयियर्ता

महर्षिषD वाल्मीविक का अवर्तार भी माना जार्ता है। श्रीरामचरिरर्तमानस वाल्मीविक रामायण का प्रकारान्र्तर से ऐसा अवधी भाषान्र्तर है जिजसमें अन्य भी कई कृविर्तयों से महत्वपूण! सामग्री समाविहर्त की गयी थी। रामचरिरर्तमानस को समस्र्त उत्तर भारर्त में

बडे़ भलिOभाव से पढ़ा जार्ता है। इसके बाद विवनय पवित्रका उनका एक अन्य महत्वपूण! काव्य है। त्रेर्ता युग के ऐविर्तहालिसक राम-रावण युद्ध पर आधारिरर्त उनके प्रबन्ध काव्य रामचरिरर्तमानस को विवश्व के १०० सव!शे्रष्ठ लोकविप्रय काव्यों में ४६वाँ

स्थान दिदया गया।

कविवर्ता का सारांशयह अंश रामचरिरर्तमानस के बाल कांड से लिलया गया है। सीर्ता

स्वयंवर मे राम द्वारा लिशव-धनुष भंग के बाद मुविन परशुराम को जब यह समाचार यिमला र्तो वे क्रोयिधर्त होकर वहाँ आर्ते हैं। लिशव-धनुष को

खंविडर्त देखकर वे आपे से बाहर हो जार्ते हैं। राम के विवनय और विवश्वायिमत्र के समझाने पर र्तथा राम की शलिO की परीक्षा लेकर अंर्तर्तः उनका गुस्सा शांर्त होर्ता है। इस बीच राम, लक्ष्मण और परशुराम के

बीच जो संवाद हुआ उस प्रसंग को यहाँ प्रस्रु्तर्त विकया गया है। परशुराम के क्रोध भरे वाक्यों का उत्तर लक्ष्मण व्यंग्य वचनों से देरे्त हैं।

इस प्रसंग की विवशेषर्ता है लक्ष्मण की वीर रस से पगी व्यंग्योलिOयाँ और व्यंजना शैली की सरस अभिभव्यलिO।

कविवर्तानाथ संभुधनु भंजविनहारा, होइविह केउ एक दास र्तुम्हारा।।

आयेसु काह कविहअ विकन मोही। सुविन रिरसाइ बोले मुविन कोही।।

सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरिरकरनी करिर करिरअ लराई।।

सुनहु राम जेविह लिसवधनु र्तोरा। सहसबाहु सम सो रिरपु मोरा।।

सो विबलगाउ विबहाइ समाजा। न र्त मारे जैहहिहD सब राजा॥

सुविन मुविनबचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरविह अवमाने॥

बहु धनुहीं र्तोरीं लरिरकाईं। कबहँु न अलिस रिरस कीन्हिन्ह गोसाईं॥

एविह धनु पर ममर्ता केविह हेरू्त। सुविन रिरसाइ कह भृगुकुलकेर्तू॥

रे नृप बालक काल बस बोलर्त र्तोविह न सँभार।

धनुही सम विर्तपुरारिर धनु विबदिदर्त सकल संसार।। 

भावाथ!- परशुराम के क्रोध को देखकर श्रीराम बोले - हे नाथ! लिशवजी के धनुष को र्तोडऩे वाला आपका कोई एक दास ही होगा। क्या आज्ञा है, मुझसे क्यों नहीं कहरे्त। यह सुनकर मुविन क्रोयिधर्त होकर बोले की सेवक वह होर्ता है जो सेवा करे, शत्रु का काम करके र्तो लड़ाई ही

करनी चाविहए। हे राम! सुनो, जिजसने लिशवजी के धनुष को र्तोड़ा है, वह सहस्रबाहु के समान मेरा शत्रु है। वह इस समाज को छोड़कर अलग हो जाए, नहीं र्तो सभी राजा मारे जाएगँे। परशुराम के वचन सुनकर लक्ष्मणजी मुस्कुराए और उनका अपमान कररे्त हुए बोले- बचपन में

हमने बहुर्त सी धनुविहयाँ र्तोड़ डालीं, विकन्रु्त आपने ऐसा क्रोध कभी नहीं विकया। इसी धनुष पर इर्तनी ममर्ता विकस कारण से है? यह सुनकर

भृगुवंश की ध्वजा स्वरूप परशुरामजी क्रोयिधर्त होकर कहने लगे - अरे राजपुत्र! काल के वश में होकर भी रु्तझे बोलने में कुछ होश नहीं है।

सारे संसार में विवख्यार्त लिशवजी का यह धनुष क्या धनुही के समान है?

लखन कहा हँलिस हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना।।

का छविर्त लाभु जून धनु र्तोरें। देखा राम नयन के भोरें।।

छुअर्त टूट रघुपविर्तहु न दोसू। मवुिन विबनु काज करिरअ कर्त रोसू।।

बोले लिचर्तइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेविह सुभाउ न मोरा।।

बालकु बोलिल बधउँ नहिहD र्तोही। केवल मुविन जड़ जानविह मोह।।

बाल ब्रह्मचारी अविर्त कोही। विबस्व विबदिदर्त छवित्रयकुल द्रोही।।

भुजबल भूयिम भूप विबनु कीन्ही। विबपुल बार मविहदेवन्ह दीन्ही।।

सहसबाहु भुज छेदविनहारा। परसु विबलोकु महीपकुमारा।।

मारु्त विपर्तविह जविन सोचबस करलिस महीसविकसोर।

गभ!न्ह के अभ!क दलन परसु मोर अविर्त घोर।।

भावाथ!- लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा- हे देव! सुविनए, हमारे जान में र्तो सभी धनुष एक से ही हैं। पुराने धनुष के र्तोड़ने में क्या हाविन-लाभ! श्री रामचन्द्रजी ने र्तो इसे नवीन के धोखे से देखा था। परन्रु्त यह र्तो छूर्ते ही टूट गया, इसमें रघुनाथजी का भी कोई दोष नहीं है। मुविन! आप विबना ही कारण विकसलिलए क्रोध करर्ते हैं? परशुरामजी अपने

फरसे की ओर देखकर बोले- अरे दुष्ट! र्तूने मेरा स्वभाव नहीं सुना। मैं रु्तझे बालक जानकर नहीं मारर्ता हूँ। अरे मूख!! क्या रू्त मुझे विनरा मुविन

ही जानर्ता है। मैं बालब्रह्मचारी और अत्यन्र्त क्रोधी हूँ। क्षवित्रयकुल का शतु्र र्तो विवश्वभर में विवख्यार्त हूँ। अपनी भुजाओं के बल से मैंने पृथ्वी को राजाओं से रविहर्त कर दिदया और बहुर्त बार उसे ब्राह्मणों को दे डाला। हे राजकुमार! सहस्रबाहु की भुजाओं को काटने वाले मेरे इस फरसे को देख। अरे राजा के बालक! र्तू अपने मार्ता-विपर्ता को सोच के वश न कर। मेरा फरसा बड़ा भयानक ह,ै यह गभy के

बच्चों का भी नाश करने वाला है।

विबहलिस लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी।।

पुविन पवुिन मोविह देखाव कुठारू। चहर्त उड़ावन फँूविक पहारू।।

इहाँ कुम्हड़बविर्तया कोउ नाहीं। जे र्तरजनी देन्हिख मरिर जाहीं।।

देन्हिख कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सविहर्त अभिभमाना।।

भृगुसुर्त समुजिझ जनेउ विबलोकी। जो कछु कहहु सहउँ रिरस रोकी।।

सुर मविहसुर हरिरजन अरु गाई। हमरें कुल इन्ह पर न सुराई।।

बधें पापु अपकीरविर्त हारें। मारर्तहँू पा परिरअ र्तुम्हारें।।

कोदिट कुलिलस सम बचनु रु्तम्हारा। ब्यथ! धरहु धनु बान कुठारा।।

जो विबलोविक अनुलिचर्त कहेउँ छमहु महामवुिन धीर।

सुविन सरोष भृगुबंसमविन बोले विगरा गंभीर।। 

भावाथ!- लक्ष्मणजी हँसकर कोमल वाणी से बोले- अहो, मुनीश्वर आप अपने को बड़ा भारी योद्धा समझर्ते हैं। बार-बार मुझे कुल्हाड़ी

दिदखार्ते हैं। फँूक से पहाड़ उड़ाना चाहर्ते हैं। यहाँ कोई कुम्हडे़ की बविर्तया (बहुर्त छोटा फल) नहीं है, जो र्तज!नी (अंगूठे की पास की) अँगुली को देखर्ते ही मर जार्ती हैं। कुठार और धनुष-बाण देखकर ही मैंने कुछ

अभिभमान सविहर्त कहा था। भृगुवंशी समझकर और यज्ञोपवीर्त देखकर र्तो जो कुछ आप कहर्ते हैं, उसे मैं क्रोध को रोककर सह लेर्ता हँू। देवर्ता, ब्राह्मण, भगवान के भO और गो- इन पर हमारे कुल में वीरर्ता नहीं

दिदखाई जार्ती है। क्योंविक इन्हें मारने से पाप लगर्ता है और इनसे हार जाने पर अपकीर्षिर्तD होर्ती है, इसलिलए आप मारें र्तो भी आपके पैर ही पड़ना

चाविहए। आपका एक-एक वचन ही करोड़ों वज्रों के समान है। धनुष-बाण और कुठार र्तो आप व्यथ! ही धारण कररे्त हैं। इन्हें देखकर मैंने कुछ

अनुलिचर्त कहा हो, र्तो उसे हे धीर महामुविन! क्षमा कीजिजए। यह सुनकर भृगुवंशमभिण परशुरामजी क्रोध के साथ गंभीर वाणी बोले।

कौलिसक सुनहु मंद यहु बालकु। कुदिटल कालबस विनज कुल घालकु।।

भानु बंस राकेस कलंकू। विनपट विनरंकुस अबुध असंकू।।

काल कवलु होइविह छन माहीं। कहउँ पुकारिर खोरिर मोविह नाहीं।।

रु्तम्ह हटकहु जौं चहहु उबारा। कविह प्रर्तापु बलु रोषु हमारा।।

लखन कहेउ मुविन सुजसु र्तुम्हारा। रु्तम्हविह अछर्त को बरनै पारा।।

अपने मँुह रु्तम्ह आपविन करनी। बार अनेक भाँविर्त बहु बरनी।।

नहिहD संर्तोषु र्त पुविन कछु कहहू। जविन रिरस रोविक दुसह दुख सहहू।।

बीरब्रर्ती र्तुम्ह धीर अछोभा। गारी देर्त न पावहु सोभा।। 

सूर समर करनी करहिहD कविह न जनावहिहD आपु।

विबद्यमान रन पाइ रिरपु कायर कथहिहD प्रर्तापु।।

भावाथ!- हे विवश्वायिमत्र! सुनो, यह बालक बड़ा कुबुजिद्ध और कुदिटल है, काल के वश होकर यह अपने कुल का घार्तक बन रहा है। यह सूय!वंश रूपी पूण! चन्द्र का कलंक है। यह विबल्कुल उद्दण्ड, मूख! और विनडर है। अभी क्षण भर में यह काल का ग्रास हो जाएगा। मैं पुकारकर कहे देर्ता हूँ, विफर मुझे दोष नहीं देना। यदिद रु्तम इसे बचाना चाहरे्त हो, र्तो हमारा प्रर्ताप, बल और क्रोध बर्तलाकर इसे मना कर दो। लक्ष्मणजी ने कहा- हे मुविन! आपका सुयश आपके रहरे्त दूसरा कौन वण!न कर सकर्ता है? आपने अपने ही मँुह से अपनी करनी अनेकों बार बहुर्त प्रकार से वण!न की है। इर्तने पर भी संर्तोष न हुआ हो र्तो विफर कुछ कह डालिलए। क्रोध

रोककर असह्य दुःख मर्त सविहए। आप वीरर्ता का व्रर्त धारण करने वाले, धैय!वान और क्षोभरविहर्त हैं। गाली देरे्त शोभा नहीं पारे्त। शूरवीर

र्तो युद्ध में शूरवीरर्ता का प्रदश!न कररे्त हैं, कहकर अपने को नहीं जनारे्त। शत्रु को युद्ध में उपस्थिस्थर्त पाकर कायर ही अपने प्रर्ताप की

डींग मारा कररे्त हैं।

रु्तम्ह र्तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोविह लाविग बोलावा।।

सुनर्त लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारिर धरेउ कर घोरा।।

अब जविन देइ दोसु मोविह लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू।।

बाल विबलोविक बहुर्त मैं बाँचा। अब यहु मरविनहार भा साँचा।।

कौलिसक कहा छयिमअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिहD न साधू।।

खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही।।

उर्तर देर्त छोड़उँ विबनु मारें। केवल कौलिसक सील र्तुम्हारें।।

न र्त एविह कादिट कुठार कठोरें। गुरविह उरिरन होरे्तउँ श्रम थोरे।।

गायिधसूनु कह हृदयँ हँलिस मवुिनविह हरिरअरइ सूझ।

अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहँु न बूझ अबूझ।।

भावाथ!- आप र्तो मानो काल को हाँक लगाकर बार-बार उसे मेरे लिलए बुलारे्त हैं। लक्ष्मणजी के कठोर वचन सुनरे्त ही परशुरामजी ने अपने भयानक फरसे को

सुधारकर हाथ में ले लिलया और बोले - अब लोग मुझे दोष न दें। यह कड़वा बोलने वाला बालक मारे जाने के ही योग्य है। इसे बालक देखकर मैंने

बहुर्त बचाया, पर अब यह सचमुच मरने को ही आ गया है। विवश्वायिमत्रजी ने कहा- अपराध क्षमा कीजिजए। बालकों के दोष और गुण को साधु लोग नहीं विगनरे्त। परशुरामजी बोले - र्तीखी धार का कुठार, मैं दयारविहर्त और क्रोधी और यह

गुरुद्रोही और अपराधी मेरे सामने- उत्तर दे रहा है। इर्तने पर भी मैं इसे विबना मारे छोड़ रहा हू,ँ सो हे विवश्वायिमत्र! केवल रु्तम्हारे प्रेम)से, नहीं र्तो इसे इस कठोर कुठार से काटकर थोडे़ ही परिरश्रम से गुरु से उऋण हो जार्ता। विवश्वायिमत्रजी ने हृदय में

हँसकर कहा - परशुराम को हरा ही हरा सूझ रहा है (अथा!र्त सव!त्र विवजयी होने के कारण ये श्री राम-लक्ष्मण को भी साधारण क्षवित्रय ही समझ रहे हैं), विकन्रु्त यह फौलाद की बनी हुई खाँड़ ह,ै रस की खाँड़ नहीं है जो मँुह में लेरे्त ही गल जाए। खेद ह,ै मुविन अब भी बेसमझ बने हुए हैं, इनके प्रभाव को नहीं समझ रहे हैं।

कहेउ लखन मुविन सीलु रु्तम्हारा। को नहिहD जान विबदिदर्त संसारा।।

मार्ता विपर्तविह उरिरन भए नीकें । गुर रिरनु रहा सोचु बड़ जीकें ।।

सो जनु हमरेविह माथे काढ़ा। दिदन चलिल गए ब्याज बड़ बाढ़ा।।

अब आविनअ ब्यवहरिरआ बोली। र्तुरर्त देउँ मैं थैली खोली।।

सुविन कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा।।

भृगुबर परसु देखावहु मोही। विबप्र विबचारिर बचउँ नृपदोही।।

यिमले न कबहँु सुभट रन गाढे़। विद्वज देवर्ता घरविह के बाढे़़।।

अनुलिचर्त कविह सब लोग पुकारे। रघुपविर्त सयनहिहD लखनु नेवारे।।

लखन उर्तर आहुविर्त सरिरस भृगुबर कोपु कृसानु।

बढ़र्त देन्हिख जल सम बचन बोले रघुकुलभानु।।

भावाथ!-लक्ष्मणजी ने कहा- हे मुविन! आपके प्रेम को कौन नहीं जानर्ता? वह संसार भर में प्रलिसद्ध है। आप मार्ता-विपर्ता से र्तो अच्छी र्तरह उऋण हो

ही गए, अब गुरु का ऋण रहा, जिजसका जी में बड़ा सोच लगा है। वह मानो हमारे ही मत्थे काढ़ा था। बहुर्त दिदन बीर्त गए, इससे ब्याज भी बहुर्त बढ़ गया होगा। अब विकसी विहसाब करने वाले को बुला लाइए, र्तो मैं रु्तरंर्त

थैली खोलकर दे दँू। लक्ष्मणजी के कड़वे वचन सुनकर परशुरामजी ने कुठार संभाला। सारी सभा हाय-हाय! करके पुकार उठी। लक्ष्मणजी ने

कहा- हे भृगुशे्रष्ठ! आप मुझे फरसा दिदखा रहे हैं? पर हे राजाओं के शतु्र! मैं ब्राह्मण समझकर बचा रहा हँू। आपको कभी रणधीर बलवान् वीर नहीं

यिमले हैं। हे ब्राह्मण देवर्ता ! आप घर ही में बडे़ हैं। यह सुनकर 'अनुलिचर्त है, अनुलिचर्त है' कहकर सब लोग पुकार उठे। र्तब श्री रघुनाथजी ने इशारे से लक्ष्मणजी को रोक दिदया। लक्ष्मणजी के उत्तर से, जो आहुविर्त के समान

थे, परशुरामजी के क्रोध रूपी अन्हिग्न को बढ़रे्त देखकर रघुकुल के सूय! श्री रामचंद्रजी जल के समान शांर्त करने वाले वचन बोले।

शब्दाथ! • भंजविनहारा - भंग करने वाला

• रिरसाइ - क्रोध करना

• रिरपु – शतु्र

• विबलगाउ - अलग होना

• अवमाने - अपमान करना

• लरिरकाईं - बचपन में

• परसु – फरसा

• कोही – क्रोधी

• मविहदेव – ब्राह्मण

• विबलोक – देखकर

• अयमय - लोहे का बना हुआ

• अभ!क – बच्चा

• महाभट - महान योद्धा

• मही – धरर्ती

• कुठारु – कुल्हाड़ा

• कुम्हड़बविर्तया - बहुर्त कमजोर

• र्तज!नी - अंगूठे के पास की अंगुली

• कुलिलस – कठोर

• सरोष - क्रोध सविहर्त

• कौलिसक – विवश्वायिमत्र

• भानुबंस – सूय!वंश

• नेवारे - मना करना

• ऊखमय - गने्न से बना हुआ

• विनरंकुश - जिजस पर विकसी का दबाब ना हो।

• असंकू - शंका सविहर्त

• घालुक - नाश करने वाला

• कालकवलु – मृर्त

• अबुधु – नासमझ

• हटकह - मना करने पर

• अछोभा – शांर्त

• बधजोगु - मारने योग्य

• अकरुण - जिजसमे करुणा ना हो

• गायिधसूनु - गायिध के पुत्र यानी विवश्वायिमत्र

• कृसानु - अन्हिग्न

प्रश्न-उत्तर1. परशुराम के क्रोध करने पर लक्ष्मण ने धनुष के टूट जाने के लिलए

कौन-कौन से र्तक! दिदए?

उत्तर- परशुराम के क्रोध करने पर लक्ष्मण ने धनुष के टूट जाने पर विनम्नलिलन्हिखर्त र्तक! दिदए -

1. हमें र्तो यह असाधारण लिशव धुनष साधारण धनुष की भाँविर्त लगा।

2. श्री राम को र्तो ये धनुष, नए धनुष के समान लगा।

3. श्री राम ने इसे र्तोड़ा नहीं बस उनके छूर्ते ही धनुष स्वर्त: टूट गया।

4. इस धनुष को र्तोड़र्ते हुए उन्होंने विकसी लाभ व हाविन के विवषय में नहीं सोचा था।

5. उन्होंने ऐसे अनेक धनुषों को बालपन में यूँ ही र्तोड़ दिदया था। इसलिलए यही सोचकर उनसे यह काय! हो गया।

2. परशुराम के क्रोध करने पर राम और लक्ष्मण की जो प्रविर्तविक्रयाए ँहुईंउनके आधार पर दोनों के स्वभाव की विवशेषर्ताए ँअपने शब्दों में लिलन्हिखए।

उत्तर-परशुराम के क्रोध करने पर श्री राम ने धीरज से काम लिलया। उन्होंने नम्रर्ता पूण! वचनों का सहारा लेकर परशुराम के क्रोध को शांर्त करने का प्रयास विकया। परशुराम जी क्रोधी स्वभाव के थे। श्री राम उनके क्रोध पर शीर्तल जल के समान शब्दों व आचरण का आश्रय ले रहे थे। यही

कारण था विक उन्होंने स्वयं को उनका सेवक बर्ताया व उनसे अपने लिलए आज्ञा करने का विनवेदन विकया। उनकी भाषा अत्यंर्त कोमल व मीठी थी और परशुराम के क्रोयिधर्त होने पर भी वह अपनी कोमलर्ता को नहीं छोड़रे्त थे। इसके विवपरीर्त लक्ष्मण परशुराम की भाँविर्त ही क्रोधी स्वभाव के हैं। विनडरर्ता र्तो जैसे उनके स्वभाव में कूट-कूट कर भरी थी। इसलिलए परशुराम का फरसा व क्रोध उनमें भय उत्पन्न नहीं कर पार्ता। लक्ष्मण परशुराम जी के साथ व्यंग्यपूण! वचनों का सहारा लेकर अपनी बार्त को उनके समक्ष प्रस्रु्तर्त कररे्त हैं। र्तविनक भी इस बार्त की परवाह विकए विबना विक परशुराम कहीं और क्रोयिधर्त न हो जाए।ँ वे परशुराम के क्रोध को न्यायपूण! नहीं मानरे्त। इसलिलए परशुराम के अन्याय के विवरोध में खडे़ हो जारे्त हैं। जहाँ राम विवनम्र, धैय!वान, मृदुभाषी व बुजिद्धमान व्यलिO हैं वहीं दूसरी ओर लक्ष्मण विनडर, साहसी, क्रोधी र्तथा अन्याय

विवरोधी स्वभाव के हैं। ये दोनों गुण इन्हें अपने-अपने स्थान पर उच्च स्थान प्राप्र्त करवारे्त हैं।

3. लक्ष्मण और परशुराम के संवाद का जो अंश आपको सबसे अच्छा लगा उसे अपने शब्दों में संवाद शैली में

लिलन्हिखए।

उत्तर- लक्ष्मण - हे मुविन! बचपन में हमने खेल-खेल में ऐसे बहुर्त से धनुष र्तोडे़ हैं र्तब र्तो आप कभी क्रोयिधर्त नहीं हुए थे। विफर इस धनुष के टूटने पर इर्तना क्रोध

क्यों कर रहे हैं?परशुराम - अरे, राजपुत्र! र्तू काल के वश में आकर ऐसा

बोल रहा है। यह लिशव जी का धनुष है।

4. परशुराम ने अपने विवषय में सभा में क्या-क्या कहा, विनम्न पद्यांश के आधार पर लिलन्हिखए –

बाल ब्रह्मचारी अविर्त कोही। विबस्वविबदिदर्त क्षवित्रयकुल द्रोही||भुजबल भूयिम भूप विबनु कीन्ही। विबपुल बार मविहदेवन्ह दीन्ही||

सहसबाहुभुज छेदविनहारा। परसु विबलोकु महीपकुमारा||मार्तु विपर्तविह जविन सोचबस करलिस महीसविकसोर।गभ!न्ह के अभ!क दलन परसु मोर अविर्त घोर||

उत्तर-परशुराम ने अपने विवषय में ये कहा विक वे बाल ब्रह्मचारी हैं और क्रोधी स्वभाव के हैं। समस्र्त विवश्व में क्षवित्रय कुल के विवद्रोही के रुप में विवख्यार्त हैं। वे आग,े बढे़ अभिभमान से अपने विवषय में बर्तारे्त हुए कहरे्त हैं विक उन्होंने अनेकों बार पृथ्वी को क्षवित्रयों से विवहीन कर इस पृथ्वी को ब्राह्मणों को दान में दिदया है और अपने हाथ में धारण इस फरसे से सहस्त्रबाहु के बाहों को काट डाला है।

इसलिलए हे नरेश पुत्र! मेरे इस फरसे को भली भाँविर्त देख ले।राजकुमार! रू्त क्यों अपने मार्ता-विपर्ता को सोचने पर विववश कर रहा है। मेरे इस फरसे की

भयानकर्ता गभ! में पल रहे लिशशुओं को भी नष्ट कर देर्ती है।

5. लक्ष्मण ने वीर योद्धा की क्या-क्या विवशेषर्ताए ँबर्ताई?

उत्तर-लक्ष्मण ने वीर योद्धा की विनम्नलिलन्हिखर्त विवशेषर्ताए ँबर्ताई है-1. वीर पुरुष स्वयं अपनी वीरर्ता का बखान नहीं कररे्त अविपरु्त वीरर्ता पूण! काय!

स्वयं वीरों का बखान कररे्त हैं।2. वीर पुरुष स्वयं पर कभी अभिभमान नहीं करर्ते। वीरर्ता का व्रर्त धारण करने

वाले वीर पुरुष धैय!वान और क्षोभरविहर्त होरे्त हैं।3. वीर पुरुष विकसी के विवरुद्ध गलर्त शब्दों का प्रयोग नहीं कररे्त। अथा!र््त दूसरों

को सदैव समान रुप से आदर व सम्मान देरे्त हैं।4. वीर पुरुष दीन-हीन, ब्राह्मण व गायों, दुब!ल व्यलिOयों पर अपनी वीरर्ता का प्रदश!न नहीं कररे्त हैं। उनसे हारना व उनको मारना वीर पुरुषों के लिलए वीरर्ता

का प्रदश!न न होकर पाप का भागीदार होना है।5. वीर पुरुषों को चाविहए विक अन्याय के विवरुद्ध हमेशा विनडर भाव से खडे़ रहे।6. विकसी के ललकारने पर वीर पुरुष कभी पीछे कदम नहीं रखर्ते अथा!र््त वह

यह नहीं देखरे्त विक उनके आगे कौन है वह विनडरर्ता पूव!क उसका जवाब देरे्त हैं।

6. साहस और शलिO के साथ विवनम्रर्ता हो र्तो बेहर्तर है। इस कथन पर अपने विवचार लिलन्हिखए।

उत्तर-साहस और शलिO ये दो गुण एक व्यलिO को वीर बनार्ते हैं। यदिद विकसी व्यलिO में साहस विवद्यमान है र्तो शलिO स्वयं ही उसके आचरण में आ जाएगी

परन्र्तु जहाँ र्तक एक व्यलिO को वीर बनाने में सहायक गुण होर्ते हैं वहीं दूसरी ओर इनकी अयिधकर्ता एक व्यलिO को अभिभमानी व उदं्दड बना देर्ती है।

कारणवश या अकारण ही वे इनका प्रयोग करने लगर्ते हैं। परन्र्तु यदिद विवन्रमर्ता इन गुणों के साथ आकर यिमल जार्ती है र्तो वह उस व्यलिO को

शे्रष्ठर्तम वीर की शे्रणी में ला देर्ती है जो साहस और शलिO में अहंकार का समावेश करर्ती है। विवनम्रर्ता उसमें सदाचार व मधुरर्ता भर देर्ती है,वह विकसी भी स्थिस्थविर्त को सरलर्ता पूव!क शांर्त कर सकर्ती है। जहाँ परशुराम जी साहस

व शलिO का संगम है। वहीं राम विवनम्रर्ता, साहस व शलिO का संगम है। उनकी विवनम्रर्ता के आगे परशुराम जी के अहंकार को भी नर्तमस्र्तक होना पड़ा नहीं र्तो लक्ष्मण जी के द्वारा परशुराम जी को शांर्त करना सम्भव नहीं

था।

7. भाव स्पष्ट कीजिजए –

(क) विबहलिस लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महाभट मानी|| पुविन पुविन मोविह देखाव कुठारू। चहर्त उड़ावन फँूविक पहारू||

उत्तर- प्रसंग - प्रस्र्तुर्त पलंिOयाँ र्तुलसीदास द्वारा रलिचर्त रामचरिरर्तमानस से ली गई हैं। उO पंलिOयों में लक्ष्मण जी द्वारा परशुराम जी के बोले हुए अपशब्दों का

प्रविर्तउत्तर दिदया गया है।

भाव - भाव यह है विक लक्ष्मण जी मुस्करारे्त हुए मधुर वाणी में परशुराम पर व्यंग्य कसरे्त हुए कहरे्त हैं विक हे मवुिन आप अपने अभिभमान के वश में हैं। मैं इस संसार

का श्रेष्ठ योद्धा हूँ। आप मुझे बार-बार अपना फरसा दिदखाकर डरा रहे हैं। आपको देखकर र्तो ऐसा लगर्ता है मानो फँूक से पहाड़ उड़ाने का प्रयास कर रहे हों।

अथा!र्त् जिजस र्तरह एक फँूक से पहाड़ नहीं उड़ सकर्ता उसी प्रकार मुझे बालक समझने की भूल मर्त विकजिजए विक मैं आपके इस फरसे को देखकर डर जाऊँगा।

(ख) इहाँ कुम्हड़बविर्तया कोउ नाहीं। जे र्तरजनी देन्हिख मरिर जाहीं|| देन्हिख कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सविहर्त अभिभमाना||

उत्तर- प्रसंग - प्रस्र्तुर्त पंलिOयाँ र्तुलसीदास द्वारा रलिचर्त रामचरिरर्तमानस से ली गई हैं। उO पंलिOयों में लक्ष्मण जी द्वारा परशुराम जी के बोले

हुए अपशब्दों का प्रविर्तउत्तर दिदया गया है।

भाव - भाव यह है विक लक्ष्मण जी अपनी वीरर्ता और अभिभमान का परिरचय देर्ते हुए कहर्ते हैं विक हम भी कोई कुम्हड़बविर्तया नहीं है जो

विकसी की भी र्तज!नी देखकर मुरझा जाए।ँ मैंने फरसे और धनुष-बाण को अच्छी र्तरह से देख लिलया है। इसलिलए ये सब आपसे अभिभमान

सविहर्त कह रहा हूँ। अथा!र्त् हम कोमल पुष्पों की भाँविर्त नहीं हैं जो ज़रा से छूने मात्र से ही मुरझा जार्ते हैं। हम बालक अवश्य हैं परन्र्तु फरसे और धनुष-बाण हमने भी बहुर्त देखे हैं इसलिलए हमें नादान बालक

समझने का प्रयास न करें।

(ग) गायिधसू नु कह हृदय हलिस मुविनविह हरिरयरे सूझ।     अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहँु न बूझ अबूझ||

उत्तर- प्रसंग - प्रस्र्तुर्त पंलिOयाँ र्तुलसीदास द्वारा रलिचर्त रामचरिरर्तमानस से ली गई हैं। उO पंलिOयाँ में परशुराम जी द्वारा बोले गए वचनों को सुनकर विवश्वायिमत्र मन ही मन

परशुराम जी की बुजिद्ध और समझ पर र्तरस खार्ते हैं।

भाव - भाव यह है विक विवश्वायिमत्र अपने हृदय में मुस्कुरार्ते हुए परशुराम की बुजिद्ध पर र्तरस खार्ते हुए मन ही मन कहर्ते हैं विक परशुराम जी को चारों ओर हरा ही हरा दिदखाई दे रहा है र्तभी र्तो वह दशरथ पुत्रों को (राम व लक्ष्मण) साधारण क्षवित्रय

बालकों की र्तरह ही ले रहे हैं। जिजन्हें ये गन्ने की खाँड़ समझ रहे हैं वे र्तो लोहे से बनी र्तलवार (खड़ग) की भाँविर्त हैं। अथा!र्त् वे भगवान विवष्णु के रुप राम व लक्ष्मण को

साधारण मानव बालकों की भाँविर्त ले रहे हैं। वे ये नहीं जानर्ते विक जिजन्हें वह गने्न की खाँड़ की र्तरह कमज़ोर समझ रहे हैं पल भर में वे इनको अपने फरसे से काट

डालेंगे। यह नहीं जानर्ते विक ये लोहे से बनी र्तलवार की भाँविर्त हैं। इस समय परशुराम की स्थिस्थविर्त सावन के अंधे की भाँविर्त हो गई है। जिजन्हें चारों ओर हरा ही हरा दिदखाई दे

रहा है अथा!र्त् उनकी समझ अभी क्रोध व अहंकार के वश में है।

8. पाठ के आधार पर रु्तलसी के भाषा सौंदय! पर दस पंलिOयाँ लिलन्हिखए।

उत्तर- रु्तलसीदास द्वारा लिलन्हिखर्त रामचरिरर्तमानस अवधी भाषा में लिलखी गई है। यह काव्यांश रामचरिरर्तमानस के बालकांड से ली गई है। इसमें अवधी भाषा का शुद्ध रुप में प्रयोग देखने को यिमलर्ता है।

रु्तलसीदास ने इसमें दोहा, छंद, चौपाई का बहुर्त ही संुदर प्रयोग विकया है। जिजसके कारण काव्य के सौंदय! र्तथा आनंद में वृजिद्ध हुई है और

भाषा में लयबद्धर्ता बनी रही है। रु्तलसीदास जी ने अलंकारो के सटीक प्रयोग से इसकी भाषा को और भी संुदर व संगीर्तात्मक बना दिदया है। इसकी भाषा में अनुप्रास अलंकार, रुपक अलंकार, उत्प्रेक्षा

अलंकार, व पुनरुलिO अलंकार की अयिधकर्ता यिमलर्ती है। इस काव्याँश की भाषा में वं्यग्यात्मकर्ता का संुदर संयोजन हुआ है।

9. इस पूरे प्रसंग में वं्यग्य का अनूठा सौंदय! है। उदाहरण के साथ स्पष्ट कीजिजए।

उत्तर- रु्तलसीदास द्वारा रलिचर्त परशुराम - लक्ष्मण संवाद मूल रूप से व्यंग्य काव्य है। उदाहरण के लिलए –

(1) बहु धनुही र्तोरी लरिरकाईं।

    कबहुँ न अलिस रिरसकीन्हिन्ह गोसाईं||

लक्ष्मण जी परशुराम जी से धनुष को र्तोड़ने का वं्यग्य कररे्त हुए कहरे्त हैं विक हमने अपने बालपन में ऐसे अनेकों धनुष र्तोडे़ हैं र्तब हम पर कभी क्रोध नहीं विकया।

(2) मारु्त विपर्तविह जविन सोचबस करलिस महीसविकसोर। गभ!न्ह के अभ!क दलन परसु मोर अविर्त घोर॥ परशुराम जी क्रोयिधर्त होकर लक्ष्मण से कहरे्त है। अरे राजा के बालक! रू्त अपने मार्ता-विपर्ता

को सोच के वश न कर। मेरा फरसा बड़ा भयानक है, यह गभy के बच्चों का भी नाश करने वाला है॥

(3) गायिधसू नु कह हृदय हलिस मुविनविह हरिरयरे सूझ। अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ||

यहाँ विवश्वायिमत्र जी परशुराम की बुजिद्ध पर मन ही मन वं्यग्य कसरे्त हैं और मन ही मन कहरे्त हैं विक परशुराम जी राम, लक्ष्मणको साधारण बालक समझ रहे हैं। उन्हें र्तो चारों ओर हरा ही हरा सूझ रहा है जो लोहे की र्तलवार को गने्न की खाँड़ से रु्तलना कर रहे हैं। इस समयपरशुराम की

स्थिस्थविर्त सावन के अंधे की भाँविर्त हो गई है। जिजन्हें चारों ओर हरा ही हरा दिदखाई दे रहा है अथा!र्त् उनकी समझ अभी क्रोध व अहंकार के वश में है।

10. विनम्नलिलन्हिखर्त पंलिOयों में प्रयुO अलंकार पहचान कर लिलन्हिखए -

(क) बालकु बोलिल बधौं नविह र्तोही।

अनुप्रास अलंकार - उO पंलिO में 'ब' वण! की एक से अयिधक बार आवृभित्त हुई है।

(ख) कोदिट कुलिलस सम बचनु र्तुम्हारा।

1. अनुप्रास अलंकार - उO पंलिO में 'क' वण! की एक से अयिधक बार आवृभित्त हुई है।

2. उपमा अलंकार - कोदिट कुलिलस सम बचनु में उपमा अलंकार है। क्योंविक परशुराम जी के एक-एक वचनों को वज्र के समान बर्ताया गया है।

(ग) रु्तम्ह र्तौ कालु हाँक जनु लावा।

       बार बार मोविह लाविग बोलावा||

1. उत्प्रेक्षा अलंकार - 'काल हाँक जनु लावा' में उत्प्रेक्षा अलंकार है। यहाँ जनु उत्प्रेक्षा का वाचक शब्द है।

2. पुनरुलिO प्रकाश अलंकार - 'बार-बार' में पुनरुलिO प्रकाश अलंकार है। क्योंविक बार शब्द की दो बार आवृभित्त हुई पर अथ! भिभन्नर्ता नहीं है।

(घ)लखन उर्तर आहुविर्त सरिरस भृगुबरकोपु कृसानु।

     बढ़र्त देन्हिख जल सम बचन बोले रघुकुलभानु||

1. उपमा अलंकार(i) उर्तर आहुविर्त सरिरस भृगुबरकोपु कृसानु में उपमा अलंकार है।

(ii) जल सम बचन में भी उपमा अलंकार है क्योंविक भगवान राम के मधुर वचन जल के समान काय! रहे हैं।

2. रुपक अलंकार - रघुकुलभानु में रुपक अलंकार है यहाँ श्री राम को रघुकुल का सूय! कहा गया है। श्री राम के गुणों की समानर्ता सूय! से की गई है।

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