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जामुन का पेड़ (भाग-१)

कृश्न चंदर

जन्म:     सन् १९१४,पंजाब के वज़ीराबाद गाँव (ज़िला – गुजरांकलां)

प्रमुख रचनाएँ : एक गिरज़ा-ए-खंदक, यूकेलिप्टस की डाली(कहानी   संग्रह); शिकस्त, ज़रगाँव की रानी, सड़क वापस जाती है,   आसमान रौशन है, एक गधे की आत्मकथा, अन्नदाता,   हम वहशी हैं, जब खेत जागे, बावन पती, एक वायलिन   समंदर के किनारे, कागज़ की नाव, मेरी यादों के किनारे     (उपन्यास)

सम्मान :    साहित्य अकादमी सहित बहुत से पुरस्कार

निधन :    सन् १९७७ 

जामुन का पेड़ कृश्न चंदर की एक प्रसिद्ध हास्य-व्यंग्य कथा है। हास्य-व्यंग्य के लिए चीज़ों को अनुपात से ज़्यादा फैला-फुलाकर दिखलाने की परिपाटी पुरानी है और यह कहानी भी उसका अनुपालन करती है। इसलिए यहाँ घटनाएँ अतिशयोक्तिपूर्ण और अविश्वनीय जान पडएं, तो कोई हैरत नहीं। विश्वसनीयता ऐसी रचनाओं के मूल्यांकन की कसौटी नहीं हो सकती। प्रस्तुत पाठ में हँसते-ह~म्साते ही हमारे भीतर इस बात की समझ पैदा होती है कि कार्यालयी तौर-तरीकों में पाया जाने वाला विस्तार कितना निरर्थक और पदानुक्रम कितना हास्यास्पद है। बात यहीं तक नहीं रहती। इस व्यवस्था के संवेदन शून्य एवं अमानवीय होने का पक्ष भी हमारे सामने आता है। 

रात को बड़े ज़ोर का झक्कड़ चला। सेक्रेटेरिएट के लॉन में जामुन का एक पेड़ गिर पड़ा। सवेरे को जब माली ने देखा, तो पता चला कि पेड़े के नीचे एक आदमी दबा पड़ा है।

माली दौड़ा-दौड़ा चपरासी के पास गया, चपरासी दौड़ा-दौड़ा क्लर्क के पास गया, क्लर्क दौड़ा-दौड़ा सुपरिंटेंडेंट के पास गया, सुपरिंटेंडेंट दौड़ा-दौड़ा बाहर लॉन में आया। मिनटों में गिरे हुए पेड़ के नीचे दबे हुए आदमी के चारों ओर

क्लर्कों ने कहा – “ बेचारा जामुन का पेड़। कितना फलदार था। इसकी जामुनें कितनी रसीली होती थीं! मैं फलों के मौसम में झोली भरकर ले जाता था, मेरे बच्चे इसकी जामुनें कितनी खुशी से खाते थे। ”

माली ने दबे हुए आदमी की तरफ़ ध्यान दिलाया।

“ पता नहीं ज़िंदा है कि मर गया ? ” चपरासी ने पूछा।

“ मर गया होगा, इतना भारी पेड़ जिसकी पीठ पर गिरे वह बच कैसे सकता है ? दूसरा चपरासी बोला।

“ नहीं, मैं ज़िंदा हूँ । ” दबे हुए आदमी ने बड़ी कठिनता से कराहते हुए कहा।

“ पेड़ को हटाकर ज़ल्दी से इसे निकाल लेना चाहिए? ” माली ने सुझाव दिया।

“ माली ठीक कहता है, ” बहुत-से क्लर्क एक साथ बोल पड़े, “ लगाओ ज़ोर, हम तैयार हैं। ”

सुपरिंटेंडेंट अंडर-सेक्रेटरी के पास गया। अंडर-सेक्रेटरी डिप्टी-सेक्रेटरी के पास गया। डिप्टी-सेक्रेटरी ज्वाइंट-सेक्रेटरी के पास गया। ज्वाइंट-सेक्रेटरी चीफ़-सेक्रेटरी के पास गया। चीफ़ सेक्रेटरी मिनिस्टर के पास गया। मिनिस्टर ने चीफ़ सेक्रेटरी से कुछ कहा। चीफ़ सेक्रीटरी ने ज्वाइंट सेक्रेटरी से कुछ कहा। ज्वाइंट सेक्रेटरी ने डिप्टी सेक्रेटरी से कुछ कहा। डिप्टी सेक्रेटरी ने अंडर- सेक्रेटरी से कहा। फ़ाइल चलती रही। इसी में आधा दिन बीत गया।

 दोपहर को सुपिरिंटेंडेंट फ़ाइल भागा-भागा आया। बोला ‘  हम लोग ख़ुद इस पेड़ को हटा नहीं सकते। हम लोग व्यापार -विभागके हैं और पेड़ कृषि-विभाग के अधीन है। मैं इस फ़ाइल को अर्जेंट मार्क करके कृषि-विभाग में भेज रहा हूँ – वहाँ से उत्तर आते ही इस पेड़ को हटा दिया जाएगा। ”

दूसरे दिन कृषि-विभाग से उत्तर आया कि पेड़ व्यापार-विभाग के लॉन में गिरा है, इसलिए इस पेड़ को हटवाने या न हटवाने की ज़िम्मेदारी व्यापार-विभाग पर पड़ती है। गुस्से से फ़ाइल दुबारा भेजी गई।

दूसरे दिन शाम को जवाब आया कि चूँकि यह जामुन का एक फलदार पेड़ है, इसलिए इस मामले लो हॉर्टीकल्चर – विभाग के हवाले कर रहे हैं।

रात को चारों तरफ़ पुलिस का पहरा था कि कहीं लोग कानून को हाथ में लेकर पेड़ को ख़ुद से हटवाने की कोशिश न करें। माली ने दया करके उस दबे हुए आदमी को खाना खिलाया।

माली ने उससे पूछा, ‘‘ तुम्हारा कोई वारिस है तो बताओ मैं उन्हें ख़बर कर दूँ। ”

आदमी ने कहा, “ मैं लावारिस हूँ। ”

“ ठहरो! ” सुपरिंटेंडेंट बोला, “ मैं अंडर – सेक्रेटरी से पूछ लूँ । ”

 भीड़ इकट्ठी हो गई।

तीसरे दिन हॉर्टीकल्चर-विभाग से बड़ा कड़ा और व्यंग्यपूर्ण जवाब आ गया कि हम देश में पेड़ लगाते हैं, काटते नहीं। हम इस समय देश पेड़ लगाओ स्कीम चला रहे हैं. हम एक फलदार पेड़ को काटने की इजाज़त नहीं दे सकते।

“ अब क्या किया जाए? ” एक मनचले ने कहा, “ अगर पेड़ कटा नहीं जा सकता, तो इस आदमी को ही काटकर निकाल लिया जाए। यह देखिए, अगर इस आदमे को ठीक बीच मे से यानी धड़ से काटा जाए तो आधा आदमी इधर से निकल आएगा और आधा आदमी उधर से बाहर आ जाएगा। पेड़ वहीं का वहीं रहेगा। ”

“ मगर इस तरह तो मैं मर जाऊँगा। ” दबे हुए आदमी ने आपत्ति प्रकट करते हुए कहा।

जामुन का पेड़ (भाग-२)

“ आप जानते नहीं हैं, आजकल प्लास्टिक सर्जरी कितनी उन्नति कर चुकी है। मैं तो समझता हूँ, अगर इस आदमी को बीच में से काटकर निकाल लिया जाए तो प्लास्टिक सर्जरी से धड़ के स्थान से इस आदमी को फिर से जोड़ा जा सकता है। ”

 इस बार फ़ाइल को मेडिकल डिपार्टमेंट भेज दिया गया। फिर एक प्लास्टिक सर्जन भेजा गया। उसने दबे हुए आदमी को अच्छी तरह टटोलकर, उसका स्वास्थ्य देखकर, खून का दवाब देखा, नाड़ी की गति को परखा, दिल और फेफडॊं की जाँच करके रिपोर्ट भेज दी कि इस आदमी का प्लास्टिक ऑपरेशन तो हो सकता है और ऑपरेशन सफल भी होगा, मगर आदमी मर जाएगा।

इसलिए यह फ़ैसला भी रद्द कर दिया गया।

रात को माली ने जब फिर उसे खाना खिलाते हुए दिलासा दी , तब उस आदमी ने एक अह भरकर कहा –

“ ये तो माना कि तगाफ़ुल न करोगे लेकिन

ख़ाक हो जाएँगे हम तुम ख़बर होने तक ! ”

माली ने अचंभे से कहा, “ क्या तुम शायर हो ? ”

दबे हुए आदमी ने धीरेसे सिर हिल दिया।

दूसरे दिन चारों तरफ़ यह बात फैल गई कि दबा हुआ आदमी शायर है। भीड़ पे भीड़ उमड़ने लगी। एक कवि-सम्मेलन का-सा वातावरण पैदा हो गया। सभी शौकीन लोग उसे अपनी कविता सुनाने लगे।

अब फ़ाइल को कल्चरल डिपार्टमेंट भेज दिया गया। फ़ाइल कल्चरल डिपार्टमेंट के अनेक विभागों से होती हुई साहित्य अकादमी के सेक्रेटरी के पास पहुँची। सेक्रेटरी उसी समय गाड़ी में सवार होकर वहाँ आया और दबे हुए आदमी का इंटरव्यू लेने लगा।

“ तुम कवि हो ?

“ जी, हाँ। ”

“ किस उपनाम से शोभित हो ? ”

“‘ ओस ”

“ ओस ” सेक्रेटरी ज़ोर से चीखा, “ क्या तुम वही ओस हो जिसका गद्य-संग्रह ‘ ओस के फूल ’ अभी हाल ही में प्रकाशित हुआ है ?

दबे हुए कवि ने हुँकार में सिर हिलाया।

“ क्या तुम हमारी अकादमी के मेम्बर हो ? ”

“ नहीं ”

“ आश्चर्य है, इतना बड़ा कवि हमारी अकादमी का मेम्बर नहीं है और गुमनामी के अँधेरे में दबा पड़ा है। ”

“ गुमनामी में नहीं,… एक पेड़ के नीचे दबा पड़ा हूँ। कृपया मुझे इस पेड़ के नीचे से निकालिए। ”

“ अभी बन्दोबस्त करता हूँ। ” सेव्क्रेटरी फ़ौरन बोला और फ़ौरन उसने अपने विभाग में रिपोर्ट की।

दूसरे दिन सेक्रेटरी भागा-भागा आया और बोला, “ मुबारक हो, हमारी अकादमी ने तुम्हें अपनी केन्द्रीय शाखा का मेम्बर चुन लिया है। यह लो चुनाव-पत्र। ”

“ मगर मुझे इस पेड़ के नीचे से तो निकालो। ” – दबे हुए आदमी ने कराहकर कहा।

“ यह हम नहीं कर सकते। हाँ, अगर तुम मर जाओ, तो तुम्हारी बीवी को वज़ीफा दे सकते हैं।

“ मैं अभी जीवित हूँ, मुझे ज़िंदा रखो। ”

“ मुसीबत यह है कि हमारा विभाग सिर्फ़ कल्चर से संबंधित है। वैसे हमने फ़ॉरेस्ट डिपार्टमेंट को अर्जेंट लिख दिया है।

शाम को माले ने बताया कि कल फ़ॉरेस्ट डिपार्टमेंट के लोग आएँगे और तुम्हारी ज़ान बच जाएगी। बस, कल सुबह तक तुम्हें ज़िंदा रहना है।

दूसरे दिन जब फ़ॉरेस्ट डिपार्टमेंट से लोग आए तो उनको पेड़ काटने से रोक दिया गया। मालूम हुआ कि विदेश –विभाग से हुक्म आया था कि पेड़ न काटा जाए। कारण यह था कि दस साल पहले पीटोनिया राज्य के प्रधानमंत्री ने सेक्रेटेरिएट के लॉन में यह पेड़ लगाया था। अब अगर पेड़ काटा गया तो पीटोनिया सरकार से हमारे संबंध सदा के लिए बिगड़ जाएँगे।

“ मगर एक आदमी की ज़ान का सवाल है। ” एक क्ल्र्क चिल्लाया।

“ दूसरी ओर दो राज्यों के संबंधों का सवाल है। क्या हम उनकी मित्रता की ख़ातिर एक आदमी के जीवन का बलिदान नहीं कर सकते ? ” दूसरे क्लर्क ने पहले क्लर्क को समझाया।

“ कवि को मर जाना चाहिए । ”

“ निस्संदेह। ”

शाम के पाँच बजे स्वयं सुपीरिंटेडेंट कवि की फ़ाइल लेकर उसके पास आया और कहा, “ प्रधानमंत्री ने इस पेड़ को काटने का हुक्म दे दिया है और इस घटना की सारी अंतर्राष्ट्रीय ज़िम्मेदारी अपने सिर ले ली है। कल यह पेड़ काट दिया जाएगा। आज तुम्हारी फ़ाइल पूर्ण हो गई।

मगर कवि का हाथ ठंडा था, आँखों की पुतलियाँ निर्जीव और चीटियों की एक लंबी पाँत उसके मुँह में जा रही थी……..।

उसके जीवन की फ़ाइल भी पूर्ण हो चुकी थी।

‘ वचन ’ - अक्क महादेवी

सामान्य प्रार्थना कविताओं में मनुष्य अपनी रक्षा के लिए तथा सुख- समृद्धि के लिए ईश्वर से प्रार्थना करता है ; किंतु यह प्रार्थना अन्य प्रार्थनाओं से बिल्कुल भिन्न है क्योंकि इसमें कवयित्री ईश्वर सेअपना सब कुछ छीन लेने को कहती है ताकि वह मोक्ष प्राप्त कर सके।

कवयित्री-परिचय :

‘ अक्क महादेवी ’ का जन्म १२ वीं सदीमें कर्नाटक के उडुतरी गाँव में ज़िला शोवमिगा में हुआ था। वे अपूर्व सुंदरी थीं। राजा के विवाह प्रस्ताव रखने पर उन्होंने तीन शर्तें रखीं, पर राजा ने पालन नहीं किया; इसलिए महादेवी ने उसी समय घर त्याग दिया। वह भारतीय नारी के इतिहास की एक विलक्षण घटना बन गई जिससे उनके विद्रोही स्वभाव का पता चलता है। अक्क के कारण शैव आंदोलन से बड़ी संख्या में स्त्रियाँ जुड़ीं और अपने संघर्ष और यातना को कविता के रूप में अभिव्यक्ति दीं। इस प्रकार अक्क महादेवी की कविता पूरे भारतीय साहित्य में इस कांतिकारी चेतना का पहला सर्जनात्मक दस्तावेज़ है। चन्न मल्लिकार्जुन देव इनके आराध्य थे। बसवन्न और अल्ल्मा प्रभु इनके समकालीन कन्नड़ संत कवि थे। कन्नड़ भाषा में अक्क शब्द का अर्थ बहिन होता है।

हे भूख ! मत मचल

प्यास तड़प मत

हे नींद ! मत सता

क्रोध, मचा मत उथल-पुथल

हे मोह ! पाश अपने ढील

लोभ, मत ललचा

हे मद ! मत कर मदहोश

ईर्ष्या, जला मत

ओ चराचर ! मत चूक अवसर

आई हूँ संदेश लेकर

चन्नमल्लिकार्जुन का

हे मेरे जूही के फूल जैसे ईश्वर

मँगवाओ मुझसे भीख

और कुछ ऐसा करो

कि भूल जाऊँ अपना घर पूरी तरह

झोली फैलाऊँ और न मिले भीख

कोई हाथ बढ़ाए कुछ देने को

तो वह गिर जाए नीचे

और यदि मैं झुकूँ उठाने

तो कोई कुत्ता आ जाए

और उसे झपटकर छीन ले मुझसे।

पहले वचन में कवयित्री ने भूख, प्यास, क्रोध-मोह, लोभ-मद, ईर्ष्या पर नियंत्रण रखने और भगवान शिवका ध्यान लगाने की प्रेरणा दी है।दूसरे वचन में ईश्वर के सम्मुख संपूर्ण समर्पण का भाव है। कवयित्री चाहती है कि वह सांसारिक वस्तुओं से पूरी तरह खाली हो जाए। उसे खाने के लिए भीख तक न मिले। शायद इसी तरह उसका संसार उससे छूट सके।

आओ मिलकर बचाएँ (निर्मला पुतुल)

निर्मला पितुल

जन्म : सन् १९७२ ई. दुमुका (झारखंड)

प्रमुख रचनाएँ : नगाड़े की तरह बजते शब्द, अपने घर की तलाश में

उन्होंने आदिवासी समाज की विसंगतियों को तल्लीनता से उकेरा है – कड़ी मेहनत के बावज़ूद खराब दशा, कुरीतियों के कारण बिगड़ती पीढ़ी, थोड़े लाभ के लिए बड़े समझौते, पुरुष वर्चस्व, स्वार्थ के लिए पर्यावरण की हानि, शिक्षित समाज का दिक्कुओं और व्यवसायियों के हाथों की कठपुतली बनना आदि वे परिस्थितियाँ हैं जो पुतुल की कविताओं के केन्द्र में हैं।

पाठ-प्रवेश

पाठ्यपुस्तक में ली गई कविता आओ मिलकर बचाएँ में कवयित्री आदिवासी जीवन के कुछ अनछुए पहलुओं से, कलात्मकता के साथ हमारा परिचय कराती हैं और संथाली समाज के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं को बेबाकी से सामने रखती हैं। संथाली समाज में जहाँ एक ओर सादगी, भोलापन, प्रकृति से जुड़ाव और कठोर परिश्रम करने की क्षमता जैसे सकारात्मक तत्व हैं, वहीं दूसरी ओर उसमें अशिक्षा, कुरीतियाँ और शराब की ओर बढ़ता झुकाव भी है।

इस कविता में दोनों पक्षों का यथार्थ चित्रण हुआ है। बृहत्तर संदर्भ में यह कविता समाज में उन चीज़ों को बचाने की बात करती है जिनका होना स्वस्थ सामाजिक-प्राकृतिक परिवेश के लिए ज़रुरी है। प्रकृति के विनाश और विस्थापन के कारण आज आदिवासी समाज संकट में है, जो कविता का मूल स्वर है। संथाली भाषा से हिन्दी रुपांतर अशोक सिंह ने किया है।

अपनी बस्तियों को

नंगी होने से

शहर की आबो-हवा से बचाएँ उसे

बचाएँ डूबने से

पूरी की पूरी बस्ती को

हड़िया में

अपने चेहरे पर संथाल परगना की माटी का रंग

भाषा में झारखंडीपन

ठंडी होती दिनचर्या में जीवन की गर्माहट

मन का हरापन

भोलापन दिल का

अक्खड़पन, जुझारुपन भी

भीतर की आग

धनुष की डोरी तीर का नुकीलापन

कुल्हाड़ी की धार

जंगल की ताज़ी हवा

नदियों की निर्मलता

पहाड़ों का मौन

गीतों की धुन

मिट्टी का सोंधापन

फ़सलों की लहलहाहट

नाचने के लिए खुला आँगन

गाने के लिए गीत

हँसने के लिए थोड़ी - सी खिलखिलाहट

रोने के लिए मुट्ठी भर एकांत

बच्चों के लिए मैदान

पशुओं के लिए हरी-हरी घास

बूढ़ों के लिए पहाड़ों की शांति

और इस अविश्वास भरे दौर में

थोड़ा-सा विश्वास

थोड़ी-सी उम्मीद

थोड़े-से सपने

आओ मिलकर बचाएँ

कि इस दौर में भी बचाने को

बहुत कुछ बचा है, अब भी हमारे पास

छोटा मेरा खेत (उमा शंकर जोशी )

‘ छोटा मेरा खेत ’ कविता में कवि ने रूपक मे माध्यम से अपने कवि-कर्म को कृषक के समान बताया है। किसान अपने खेत में बीज बोता है। बीज अंकुरित होकर पौधा बनता है, फिर पुष्पित-पल्लवित हिकर जब परिपक्वत को प्राप्त होता है; तब उसकी कटाई होती है। यह अन्न जनता का पेट भरता है।

कवि कागज़ को अपना खेत मानता है। किसी क्षण आई भावनात्मक आँधी में वह इस कागज़ पर बीज-वपन करता है। कल्पना का आश्रय पाकर भाव विकसित होता है। यही बीज का अंकुरण है। शब्दों के अंकुर निकलते ही कृति ( रचना ) स्वरुप ग्रहण करने लगती है। इस अंकुरन से प्रस्फुटित हुई रचना में अलौकिक रस होता है जि अनंत काल तक पाठक को अपने में डुबाए रहता है। कवि ऐसी खेती करता है जिसकी कविता का रस कभी समाप्त नहीं होता।

कवि परिचय :- उमाशंकर जोशी का जन्म सन् १९११ में गुजरात में हुआ। उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं – विश्व शांति, गंगोत्री, निशीथ, प्राचीना, आतिथ्य, वसंत वर्षा, महाप्रस्थान, अभिज्ञा(एकांकी); सापनाभरा, शहीद(कहानी); श्रावनी मेणो, विसामो(उपन्यास); पारंकाजण्या(निबंध); गोष्ठी, उघाड़ीबारी, क्लांतकवि, म्हारासॉनेट, स्वप्नप्रयाण(संपादन)।

बीसवीं सदी की गुजराती कविता और साहित्य को नयी भंगिमा और नया स्वर देनेवाले उमाशंकर जोशी का साहित्यिक अवदान पूरे भारतीय साहित्य के लिए भी महत्वपूर्ण है। उनको परंपरा का ज्ञान था।

कठिन शब्दों के अर्थ :-

अंधड़ – आँधी का तेज़ झोंका / नि:शेष – पूरी तरह / नमित – झुका हुआ / अलौकिक – दिव्य, अद्भुत / अक्षय – कभी न नष्ट होने वाला / पात्र – बर्तन

छोटा मेरा खेत चौकोना

कागज़ का एक पन्ना,

कोई अंधड़ कहीं से आया

क्षण का बीज वहाँ बोया गया।

मैं भी एक प्रकार का किसान हूँ। कागज़ का एक पन्ना मेरे लिए छोटे-से चौकोर खेत के समान है। अंतर इतना ही है कि किसान ज़मीन पर कुछ बोता है और मैं कागज़ पर कविता उगाता हूँ।

जिस प्रकार किसान धरती पर फ़सल उगाने के लिए कोई बीज उगाता है, उसी प्रकार मेरे मन में अचानक आई आँधी के समान कोई भाव रूपी बीज न जाने कहाँ से चला आता है। वह भाव मेरे मन रूपी खेत में अचानक बोया जाता है।

कल्पना के रसायनों को पी

बीज गल गया नि:शेष;

शब्द के अंकुर फूटे,

पल्लव-पुष्पों से नमित हुआ विशेष।

जिस प्रकार धरती में बोया गया बीज विभिन्न रसायनों – हवा, पानी, खाद आदि को पीकर स्वयं को गला देता है और उसमें से अंकुर, पत्ते और पुष्प फूट पड़ते हैं; उसी प्रकार कवि के मन में उठे हुए भाव कल्पना रूपी रसायन को पीकर उस भाव को अहंमुक्त कर लेते हैं, सर्वजन का विषय बना डालते हैं, सबकी अनुभूति बना डालते हैं। तब शब्द रूपी अंकुर फूटते हैं।

कविता भाव रूपी पत्तों और पुष्पों से लदकर विशेष रूप से झुक जाती है। वह सबके लिए समर्पित हो जाती है।

झूमने लगे फल ,

रस अलौकिक,

अमृत धाराएँ फूटतीं

रोपाई क्षण की,

कटाई अनंतता की

लुटते रहने से ज़रा भी कम नहीं होती।

जब कवि के मन में पलने वाला भाव पककर कविता रूपी फल के रूप में झूमने लगता है तो उसमें से अद्भुत-अलौकिक रस झरने लगता है। आनंद की अमृत जैसी धाराएँ फूटने लगती हैं।

सचमुच किसी भाव का आरोपण एक विशेष क्षण में अपने आप दिव्य प्रेरणा से हो जाया करता है, परंतु कविता के रूप में उसकी फ़सल अनंत काल तक मिलती रहती है। कविता की फ़सल ऐसी अनंत है कि उसे जितना लुटाओ, वह खाली नहीं होती। वह युगों-युगों तक रस देती रहती है।

रस का अक्ष्यय पात्र सदा का

छोटा मेरा खेत चौकोना।

कवि के पास कविता रूपी जो चौकोर खेत है, वह रस का अक्ष्यय पात्र है जिसमें से कभी रस समाप्त नहीं होता। कविता शाश्वत होती है।

जहाँ उपमेय में उपमान का आरोप हो, रुपक कहलाता है। इस कविता में निम्न रुपकों का प्रयोग किया गया है –

उपमेय

उपमान

1. कागज़ का एक पन्ना

चौकोना खेत

2. भावनात्मक जोश

अंधड़

3. विषय

बीज

4. कल्पना

रसायन

5. शब्द

अंकुर

6. अलंकार-सौंदर्य

पल्लव-पुष्प

7. रस

फल

8. आनंदपूर्ण भाव

अमृत धाराएँ

9. रस का अनुभव करना

कटाई

दिन ज़ल्दी – ज़ल्दी ढलता है (हरिवंश राय ‘ बच्चन ’)

हरिवंश राय बच्चनः जीवन परिचय

बच्चन व्यक्तिवादी गीत कविता या हालावादी काव्य के अग्रणी कवि थे

‘मिट्टी का तन, मस्ती का मन, क्षण भर जीवन मेरा परिचय’, इन पंक्तियों के लेखक हरिवंश राय का जन्म 27 नवंबर 1907 को इलाहाबाद के नज़दीक प्रतापगढ़ जिले के एक छोटे से गाँव पट्टी में हुआ.

घर में प्यार से उन्हें ‘बच्चन’ कह कर पुकारा जाता था. आगे चल कर यही उपनाम विश्व भर में प्रसिद्ध हुआ.

बच्चन की आरंभिक शिक्षा-दीक्षा गाँव की पाठशाला में हुई. उच्च शिक्षा के लिए वे इलाहाबाद और फिर कैम्ब्रिज गए जहाँ से उन्होंने अंग्रेजी साहित्य के विख्यात कवि डब्लू बी यीट्स की कविताओं पर शोध किया.

हरिवंश राय ने 1941 से 1952 तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य पढ़ाया.

वर्ष 1955 में कैम्ब्रिज से वापस आने के बाद वे भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में हिन्दी विशेषज्ञ के रूप में नियुक्त हुए.

1926 में हरिवंश राय की शादी श्यामा से हुई. टीबी की लंबी बीमारी के बाद 1936 में श्यामा का देहांत हो गया. 1941 में बच्चन ने तेजी सूरी से शादी की.

ये दो घटनाएँ बच्चन के जीवन के लिए बेहद महत्वपूर्ण थी जो उनकी कविताओं में भी जगह पाती रही है.

1939 में प्रकाशित ‘ एकांत संगीत’ की ये पंक्तियाँ उनके निजी जीवन की ओर ही इशारा करती हैं- कितना अकेला आज मैं, संघर्ष में टूटा हुआ, दुर्भाग्य से लूटा हुआ, परिवार से लूटा हुआ, किंतु अकेला आज मैं.

हालावादी कवि

बच्चन व्यक्तिवादी गीत कविता या हालावादी काव्य के अग्रणी कवि थे.

उमर ख़ैय्याम की रूबाइयों से प्रेरित 1935 में छपी उनकी मधुशाला ने बच्चन को खूब प्रसिद्धि दिलाई. आज भी मधुशाला पाठकों के बीच काफ़ी लोकप्रिय है.

अंग्रेजी सहित कई भारतीय भाषाओं में इस काव्य का अनुवाद हुआ.

इसके अतिरिक्त मधुबाला, मधुकलश, निशा निमंत्रण, खादि के फूल, सूत की माला, मिलन यामिनी, बुद्ध और नाच घर, चार खेमे चौंसठ खूंटे, दो चट्टानें जैसी काव्य की रचना बच्चन ने की है.

1966 में वे राज्य सभा के सदस्य मनोनीत हुए.

'दो चट्टानें' के लिए 1968 में बच्चन को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. साहित्य में योगदान के लिए प्रतिष्ठित सरस्वती सम्मान, उत्तर प्रदेश सरकार का यश भारती सम्मान, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से भी वे नवाज़े गए.

बच्चन को 1976 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया.

बच्चन की परवर्ती रचनाओं का स्वर और उसकी भंगिमा में स्पष्ट परिवर्तन दिखाई पड़ता है.

सूत की माला, चार खेमे चौंसठ खूंटे आदि रचनाओं में वे ‘हालावाद’ से निकल कर बाहरी दुनिया के दुख-दर्द से साक्षात्कार करते हैं.

चार खण्डों में प्रकाशित बच्चन की आत्मकथा- ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’, ‘नीड़ का निर्माण फिर’, ‘बसेरे से दूर’ और ‘दशद्वार से सोपान तक’ हिन्दी साहित्य जगत की अमूल्य निधि मानी जाती है.

बच्चन ने उमर ख़्य्याम की रुबाइयों, सुमित्रा नंदन पंत की कविताओं, नेहरू के राजनीतिक जीवन पर भी किताबें लिखी. उन्होंने शेक्सपियर के नाटकों का भी अनुवाद किया.

हरिवंश राय बच्चन का 95 वर्ष की आयु में 18 जनवरी, 2003 को मुंबई में देहांत हो गया.

अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त फ़िल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन और उद्योगपति अजिताभ बच्चन उनके पुत्र हैं.

 

‘ दिन जल्दी जल्दी ढलता है ’ एक प्रेम-गीत है। इसमें प्रेम की व्याकुलता का वर्णन हुआ है। अपने प्रियजनों से मिलने की चाह में ही पथिक के पाँव तेज़-तेज़ चलने लगते हैं। पक्षियों के पंखों में फड़फड़ाहट भर आती है। परंतु कवि के जीवन में कोई प्रिय नहीं है जो उसकी प्रतीक्षा करे। इसलिए उसके कदम शिथिल हैं। जीवन में गति का संचार तो प्रेम के कारण ही हुआ करता है।

कठिन शब्दों के अर्थ :-

प्रत्याशा – आशा

नीड़ – घोंसला

चंचलता – तीव्रता, तेज़ी

विकल – व्याकुल

हित – के वास्ते

शिथिल – ढीला

उर – हृदय

विह्वलता – भाव-आतुरता, उमड़न

हो न जाए पथ में रात कहीं,

मंज़िल भी तो है दूर नहीं-

यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी जल्दी चलता है !

दिन जल्दी जल्दी ढलता है।

कवि कहता है कि दिन-भर चलकर अपनी मंज़िल पर पहुँचने वाला यात्री देखता है कि अब मंज़िल पास आने वाली है। वह अपने प्रिय के पास पहुँचने ही वाला है। उसे डर लगता है कि कहीं चलते-चलते रास्ते में रात न हो जाए। इसलिए वह प्रिय-मिलन की कामना से जल्दी-जल्दी कदम रखता है। प्रिय-मिलन की आतुरता के अकारण उसे प्रतीत होता है कि दिन जल्दी-जल्दी ढल रहा है।

बच्चे प्रत्याशा में होंगे,

नीड़ों से झाँक रहे होंगे-

यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है !

दिन जल्दी जल्दी ढलता है।

कवि कहता है कि एक चिड़िया जब शाम को अपने घोंसले की ओर वापस आ रही होती है तो उसके मन में यह ख़्याल आता है कि उसके बच्चे उसकी राह देख रहे होंगे, वे घोंसले में बैठे बाहर की ओर झाँक रहे होंगे; उन्हें मेरी प्रतीक्षा होगी। जैसे ही चिड़िया को यह चिंता सताती है, उसके पंखों की गति बहुत तेज़ हो जाती है। वह तेज़ी से घोंसले की ओर बढ़ती है। तब उसे यों लगता है मानो दिन बहुत तेज़ी से ढलने लगा हो। वह प्रेम-मिलन के लिए व्यग्र हो जाती है।

मुझसे मिलने को कौन विकल ?

मैं होऊँ किसके हित चंचल ?

यह प्रश्न शिथिल करता पद को,

भरता उर में विह्वलता है !

दिन-दिन जल्दी जल्दी ढलता है !

कवि कहता है - इस दुनिया में कोई मेरा अपना नहीं है जो मुझसे मिलने के लिए व्याकुल हो। फिर मेरा चित्त क्यों व्याकुल हो, किसी के लिए क्यों चंचल हो ? मेरे मन में किसी के प्रति क्यों प्रेम-तरंग जगे ? ये प्रश्न मेरे कदमों को शिथिल कर देते हैं। प्रेम के अभाव की बात सोचकर मैं ढीला पड़ जाता हूँ। मेरे मन में निराशा और उदासी की भावना उमड़ने लगती है। यह प्रेम ही है जिसकी तरंग में खोकर दिन जल्दी-जल्दी बीत जाता है, वरना समय काटे नहीं कटता।

पतंग (आलोक धन्वा )

आलोक धन्वा

जन्म : सन् १९४८ ई. मुंगेर (बिहार)

प्रमुख रचनाएँ : पहली कविता जनता का आदमी, १९७२ में प्रकाशित उसके बाद भागी हुई लड़कियाँ, ब्रूनो की बेटियाँ से प्रसिद्धि, दुनिया रोज़ बनती है (एकमात्र संग्रह)

प्रमुख सम्मान : राहुल सम्मान, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् का साहित्य सम्मान, बनारसी प्रसाद भोजपुरी सम्मान, पहल सम्मान।

काव्य संग्रह के अलावा वे पिछले दो दशकों से देश के विभिन्न हिस्सों में सांस्कृतिक एवं सामाजिक कार्यकर्त्ता के रूप में सक्रिय रहे हैं। उन्होंने जमशेदपुर में अध्ययन-मंडलियों का संचालन किया और रंगमंच तथा साहित्य पर कई राष्ट्रीय संस्थानों एवं विश्वविद्यालयों में अतिथि व्याख्याता के रूप में भागीदारी की है।

कविता ‘ पतंग ’ आलोक धन्वा के एकमात्र संग्रह का हिस्सा है। यह एक लंबी कविता है जिसके तीसरे भाग को पाठ्यपुस्तक में शामिल किया गया है। पतंग के बहाने इस कविता में बालसुलभ इच्छाओं और उमंगों का सुंदर चित्रण किया गया है। बाल क्रियाकलापों एवं प्रकृति में आए परिवर्तन को अभिव्यक्त करने के लिए सुंदर बिंबों का उपयोग किया गया है। पतंग बच्चों की उमंगों का रंग-बिरंगा सपना है। आसमान में उड़ती हुई पतंग ऊँचाइयों की वे हदें हैं, बालमन जिन्हें छूना चाहता है और उसके पार जाना चाहता है।

कविता धीरे-धीरे बिंबों की एक ऐसी दुनिया में ले जाती हैं जहाँ शरद ऋतु का चमकीला इशारा है, जहाँ तितलियों की रंगीन दुनिया है, दिशाओं के मृदंग बजते हैं। जहाँ छतों के ख़तरनाक किनारों से गिरने का भय है तो दूसरी ओर भय पर विजय पाते बच्चे हैं जो गिर-गिरकर सँभलते हैं और पृथ्वी का हर कोना ख़ुद-ब-ख़ुद उनके पास आ जाता है। वे हर बार नयी-नयी पतंगों को सबसे ऊँचा उड़ाने का हौसला लिए फिर-फिर भादो (अँधेरे) के बाद के शरद ( उजाला) की प्रतीक्षा कर रहे हैं। क्या भी उनके साथ हैं ?

सबसे तेज़ बौछारें गईं, भादों गया

सवेरा हुआ

खरगोश की लाल आँखों जैसा सवेरा

शरद आया पुलों को पार करते हुए

अपनी नई चमकीली साइकिल तेज़ चलाते हुए

घंटी बजाते हुए ज़ोर-ज़ोर बजाते हुए

पतंग उड़ाने वाले बच्चों के झुंड़ को

चमकीले इशारों से बुलाते हुए और

आकाश को इतना मुलायम बनाते हुए

कि पतंग ऊपर उठ सके –

दुनिया की सबसे रंगीन और हल्की चीज़ उड़ सके

दुनिया का सबसे पतला कागज़ उड़ सके -

बाँस की सबसे पतली कमानी उड़ सके -

कि शुरु हो सके सीटियों, किलकारियों और

तितलियों की इतनी नाज़ुक दुनिया

पतंगों के साथ वे भी उड़ रहे हैं

अपने रंध्रों के सहारे

अगर वे कभी गिरते हैं छतों के ख़तरनाक किनारों से

और बच जाते हैं तब तो

और भी निडर होकर सुनहले सूरज के सामने आते हैं

पृथ्वी और भी तेज़ घूमती हुई आती है

उनके बेचैन पैरों के पास

पहलवान की ढोलक (फणीश्वर नाथ रेणु )

फणीश्वर नाथ रेणु

जन्म: ४ मार्च, सन् १९२१, औराही हिंगना ( जिला पूर्णिया अब अररिया ) बिहार में।

प्रमुख रचनाएँ : मैला आँचल, परती परिकथा, दीर्घतपा, कितने चौराहे ( उपन्यास ) ; ठुमरी,

अगिनखोर, आदिम रात्रि की महक, एक श्रवणी दोपहरी की धूप ( कहानी संग्रह ) ; ऋणजल, धनजल, वनतुलसी की गंध, श्रुत-अश्रुत पूर्व (संस्मरण ) ; नेपाली क्रांति कथा ( रिपोर्ताज़ ) ; रेणु रचनावली ( पाँच खंडों में समग्र )

निधन :

११ अप्रैल सन् १९७७ पटना में।

फणीश्वर नाथ रेणु की प्रतिनिधि कहानियों में पहलवान की ढोलक भी शामिल है। यह कहानी कथाकार रेणु की समस्त विशेषताओं को एक साथ अभिव्यक्त करती है। रेणु की लेखनी में अपने गाँव, अंचल एवम संस्कृति को सजीव करने की अद्भुत क्षमता है। ऐसा लगता है मानो हरेक पात्र वास्तविक जीवन ही जी रहा हो। पात्रों एवं परिवेश का ऐस सजीव चित्रण अन्यत्र दुर्लभ है। रेणु ऐसे गिने चुने कथाकारों में हैं जिन्होंने गद्य में भी संगीत पैदा कर दिया है, अन्यथा ढोलक की उठती-गिरती आवाज़ और पहलवान के क्रियाकलापों का ऐसा सामंजस्य दुर्लभ है।

इन विशेषताओं के साथ रेणु की यह कहानी व्यवस्था के बदलने के साथ लोक-कला और कलाकार के अप्रांसगिक हो जानी की कहानी है। राजा साहब की जगह राजकुमार का अकर जम जाना सिर्फ़ व्यक्तिगत सत्ता परिवर्तन नहीं; बल्कि ज़मीनी पुरानी व्यवस्था के पूरी तरह उलट जानी और उस पर सभ्यता के नाम पर एकदम नयी व्यवस्था के आरोपित हो जाने का प्रतीक है\ यह ‘ भारत ’ पर ‘ इंडिया ’ के छा जाने की समस्या है, जो लुट्टन पहलवान को लोक-कलाकार के आसन से उठाकर पेट भरने के लिए हाय-तौबा करने वालीनिरीहता की भूमि पर पटक देती है। ऐसी स्थिति में गाँव की गरीबी पहलवानी जैसे शुअक को क्या पालती ? फिर भी, पहलवान जीवट ढोल के बोल में अपने आपको न सिर्फ़ जिलाए रकहता है; बल्कि भूख व महामारी से दम तोड़ रहे गाँव को मौत से लड़ने की ताक़त भी देता रहता है। कहानी के अंत में भूख-महामारी की ह्सक़्ल मेम आए मौत के षड़यंत्र जब अजेय लुट्टन की भरी-पूरी पहलवानी को फटे ढोल की पोल में बदल देते हैं, तो इस अकरुणा / त्रासदी मे लुट्टन हमारे सामने कई सवाल छोड़ जाता है। वह पोल पुराने व्यवस्था की है य नयी व्यवस्था की ? क्या कला की प्रासंगिकता व्यवस्था की मुखापेक्षी है अथवा उसका कोई स्वतंत्र मूल्य भी है ? मनुष्यता की साधना और जीवन-सौंदर्य के लिए लोक कलाओं को प्रासंगिक बनाए रखने हेतु हमारी क्या भूमिका हो सकती है ? निश्चय ही यह पाठ हनारे मन में कई ऐसे प्रश्न छोड़ जाता है ?

जाड़े का दिन। अमावस्या की रात- ठंडी और काली रात। मलेरिया और हैज़े से पीड़ित गाँव भयार्त्त शिशु की तरह थर-थर काँप रहा था। पुरानी और उजड़ी बाँस-फूँस की झोपड़ियों में अंधकार और सन्नाटे का सम्मिलित साम्राज्य ! अँधेरा और निस्तब्धता ! सियारों का क्रंदन और पेचक की डरावनी आवाज़ कभी-कभी निस्तब्धता को अवश्य भंग कर देती थी।

गाँव की झोपड़ियों से कराहने और कै करने की आवाज़, ‘ हरे राम ! हे भगवान ! की टेर अवश्य सुनाई पड़ती थी। बच्चे भी कभी-कभी निर्बल कंठों से ‘ माँ, माँ ’ पुकारकर रो पड़ते थे।

कुत्तों में परिस्थिति को ताड़ने की एक विशेष बुद्धि होती है। वे दिन भर राख के घूरों पर गठरी की तरह सिकुड़कर, मन मारकर पड़े रहते थे। संध्या समय या गंभीर रात्रि को सब मिलकर रोते थे।

रात्रि अपनी भीषणताओं के साथ चलती रहती और उसकी सारी भीषणता को, ताल ठोककर, ललकारती रहती थी – सिर्फ़ पहलवान की ढोलक। संध्या से लेकर प्रात: तक एक ही गति से बजती रहती – ‘ चट्-धा, गिड़-धा, चट्-धा, गिड़-धा ! यानी ‘ आ जा बिड़ जा, आ जा भिड़ जा ! ’…… बीच-बीच में ‘ चटाक्-चट्-धा, चटाक्-चट्-धा ’ यानी ‘ उठाकर पटक दे ! उठाकर पटक दे ! ’

यही आवाज़ मृत गाँव में संजीवनी भरती रहती थी।

लुट्टन सिंह पहलवान ! जिसे पूरे ज़िले के लोग अवश्य जानते थे।

लुट्टन के माता-पिता उसे नौ वर्ष की उम्र में ही अनाथ बनाकर चल बसे थे। सौभाग्यवश शादी हो चुकी थी, वरना वह भी माँ-बाप का अनुसरण करता। विधवा सास ने पाल-पोसकर बड़ा किया। बचपन में वह गाय चराता, धारोष्ण दूध पीता और कसरत किया करता था। गाँव के लोग उसकी सास को तरह-तरह की तकलीफ़ दिया करते थे; लुट्टन के सिर कसरत की धुन लोगों से बदला लेने के लिए ही सवार हुई थी। नियमित कसरत ने किशोरावस्था में ही उसके सीने और बाहों को सुडौल और माँसल बना दिया था। जवानी में कदम रखते ही वह गाँव में सबसे अच्छा पहलवान समझा जाने लगा। लोग उससे डरने लगे और वह दोनों हाथों को दोनों ओर ४५ डिग्री की दूरी पर फैलाकर, पहलवानों की भाँति चलने लगा। वह कुश्ती भी लड़ने लगा था।

एक बार वह दंगल देखने श्यामनगर मेला गया। जवानी की मस्ती और ढोल की ललकारती हुई आवाज़ ने उसकी नसों में बिजली उत्पन्न कर दी। उसने बिना कुछ सोचे-समझे ‘ शेर के बच्चे ’ को चुनौती दे दी। चांद सिंह ने सभी पट्ठों को पछाड़कर ‘ शेर के बच्चे ’ की उपाधि प्राप्त की थी। दंगल और शिकार प्रिय श्यामनगर के वृद्ध राजा उसे दरबार में रखने की बार कर ही रहे थे कि लुट्टन ने शेर के बच्चे को चुनौती दे दी। चांदसिंह उस पर बाज की तरह टूट पड़ा।

शांत दर्शकों की भीड़ में खलबली मच गई – ‘ पागल है पागल, मरा… ऐ ! मरा, मरा ! ’.. पर लुट्टन बड़ी सफाई से आक्रमण को सँभालकर उठ खड़ा हुआ और पैंतरा दिखाने लगा। राजा साहब ने कुश्ती बंद करवाकर लुट्टन को अपने पास बुलवाया और समझाया। उसकी हिम्मत की प्रशंसा कर, दस रुपए का नोट देकर कहने लगे – “ जाओ, जाओ, मेला देखकर घर जाओ। ”

“ नहीं सरकार, लड़ेंगे….. हुकुम हो सरकार….।”

“ तुम पागल हो.. ….जाओ….”

“ दुहाई सरकार, पत्थर पर माथा पटक कर मर जाऊँगा….मिले हुकुम!... वह हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाता रहा।

भीड़ अधीर हो रही थी। बाजे बंद हो गए थे। कोई-कोई लुट्टन के पक्ष से चिल्ला उठता था, “ उसे लड़ने दिया जाए! ”

विवश होकर राजा साहब ने उसे आज्ञा दे दी…“ लड़ने दो! ”

‘ चट्-ध, दिड़-धा, चट्-ध, गिड़-धा….’ भरी आवाज़ मे एक ढोल – जो अब तक चुप था-बोलने लगा – जिसका मतलब था – ‘ वाह पट्ठे, मत डरना ’

लुट्टन की गर्दन पर कोहनी डालकर चाँद सिंह उसे चित्त करने की कोशिश कर रहा था। लुट्टन की आँखें बाहर निकल रही थीं। उसकी छाती फटने को हो रही थी। राजमत, बहुमत चाँद के पक्ष में था।

सभी चाँद को शाबाशी दे रहे थे। लुट्टन के पक्ष में सिर्फ़ ढोल की आवाज़ थी जिसकी ताल पर वह अपनी शक्ति और दाँव-पेंच की परीक्षा ले रहा था – अपनी हिम्म्त को बढ़ा रहा था। अचानक ढोल की एक पतली आवाज़ सुनाई पड़ी – धाक-धिना, तिरकट-तिना, धाक-धिना, तिरकट-तिना……!! लुट्टन को स्पष्ट सुनाई पड़ा, ढोल कह रहा था – “ दाँव काटो, बाहर हो जा, दाँव काटो, बाहर हो जा ” लोगों के आश्चर्य की सीमा न रही जब लुट्टन दाँव काटकर बाहर निकला और लपककर उसने चाँद की गर्दन पकड़ ली।

“ वाह रे मिट्टी के शेर ! – जनमत बदल रहा था। मोटी और भौंड़ी आवाज़ वाला ढोल बज उठा – ‘ चटाक् चट्-धा; चटाक चट्-धा ( अर्थात् उठा पटक दे, उठा पटक दे….)

लुट्टन ने अंतिम ज़ोर लगाया – चाँद सिंह चारों खाने चित्त हो रहा।

जय-जयकार की आवाज़ गूँज उठी।

विजयी लुट्टन कूदता-फाँदता, ताल ठोंकता सबसे पहले बाजे वालों की ओर दौड़ा और ढोलों को श्रद्धापूर्वक प्रणाम किया। फिर दौड़कर उसने राजा साहब को गोद में उठा लिया। राजा साहब ने उसे स्वयं छाती से लगाकर कहा – “ जीते रहो बहादुर! तुमने मिट्टी की लाज रख ली। ” लुट्टन को राजा साहब ने पुरष्कृत ही नहीं किया बल्कि अपने दरबार में सदा के लिए रख लिया। तब से लुट्टन राज-पहलवान हो गया। राज पंडितों ने मुँह बिचकाया और मैनेज़र साहब बोले, -“ हाँ सरकार, यह अन्याय है। ”

राजा साहब ने केवल इतना ही कहा , “ उसने क्षत्रिय का काम किया है। ”

उसी दिन से लुट्टन सिंह पहलवान की कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई। पौष्टिक भोजन और व्यायाम तथा राजा साहब की स्नेह-दृष्टि ने उसकी प्रसिद्धि में चार चाँद लगा दिए। कुछ वर्षों में ही उसने एक-एक कर सभी नामी पहलवानों को मिट्टी सुँघाकर आसमान दिखा दिया। काला खाँ के बारे में यह वात मशहूर थी कि वह ज्यों ही लँगोट लगाकर ‘ आ अली ’ कहकर अपने प्रतिद्वंद्वी पर टूटता है, प्रतिद्वंद्वी पहलवान को लकवा मार जाता है। लुट्टन ने उसे भी पटककर लोगों का भ्रम दूर कर दिया।

मेले में वह घुटने तक लंबा चोगा पहने, अस्त-व्यस्त पगड़ी बाँधकर मतवाले हाथी की तरह झूमता चलता। कोई दुकानदार चुहल करते हुए नाश्ता करने को कहता तो दो सेर रसगुल्ला उदरस्थ करके, मुँह में आठ-दस पान की गिलौरियाँ ठूँस, ठुड्डी को पान के रस से लाल करके अपनी चाल से मेले में घूमता।

दंगल में ढोल की आवाज़ सुनते ही वह अपने भारी-भरकम शरीर का प्रदर्शन करना शुरु कर देता। यों ही पंद्रेअह साल बीत गए। पहलवान अजेय रहा। वह दंगल में अपने दोनों पुत्रों को लेकर उतरता था। उसकी सास पहले ही मर चुकी थी और उसकी स्त्री भी दो पहलवानों को पैदा करके स्वर्ग सिधार गई थी। दोनों लड़के पिता की तरह ही गठीले और तगड़े थे। दंगल में दोनों को देखकर लोगों के मुँह से अनायास ही निकल पड़ता – ‘ वाह ! बाप से भी बढ़कर निकलेंगे ये दोनों बेटे ! ” दोनों ही बेटे राज-दरबार के भावी पहलवान घोषित हो चुके थे। प्रतिदिन प्रात:काल पहलवान स्वयं ढोलक बजाकर दोनों से कसरत करवाता। दोपहर में लेटे-लेटे दोनों को सांसारिक ज्ञान की शिक्षा भी देता – “ समझे, ढोलक की आवज़ पर पूरा ध्यान देना। हाँ, मेरा गुरु कोई पहलवान नहीं, यही ढोल है, समझे। ढोल की आवाज़ के प्रताप से ही मैं पहलवान हुआ। दंगल में उअतरकर सबसे पहले ढोलों को प्रणाम करना, समझे! ”

किंतु उसकी शिक्षा-दीक्षा किए-कराए पर क दिन पानी फिर गया। वृद्ध राजा स्वर्ग सिधार गए। नर राज कुमार ने विलायर से आते ही राजय को अपने हाथ में ले लिया। बहुत से परिवर्तन हुए। उन्हीं परिवर्तनोइं की चपेटाघात में पड़ा पहलवान भी। दंगल का स्थान घोड़े की रेस ने लिया। पहलवान तथा दोनों भावी पहलवानों का दैनिक भोजन-व्यय सुनते ही राजकुमार ने कहा – “ टैरिबुल ! ” नर मैनिज़र साहब ने कहा “ हौरिबुल ! ”

पहलवान को साफ़ जवाब मिल गया, राज-दरबार में उसकी आवश्यकता नहीं। उसको गिड़गिड़ाने का भी मौका नहीं दिया गया।

उसी दिन वह ढोलक कंधे से लटकाकर गाँव वापस आ गया। गाँव के एक छोर पर गाँव वालों ने एक झोपड़ी बाँध दी। वहीं रहकर वह गाँव के नौजवानों और चरवाहों को कुश्त्री सिखाने लगा। खाने-पीने का खर्च गाँववालों की ओर से बँधा हुआ था। गाँव के किसान और खेतीहर-मज़दूर क्या खाकर कुश्ती सीखते। धीरे-धीरे पहलवान का स्कूल खाली पड़ने लगा। अंत में अपने दोनों पुत्रों को ही ढोल बजा-बजाकर लड़ाता रहा-सिखाता रहा। दोनों लड़के दिन भर मज़दूरी करके जो कुछ भी लाते, उसी में गुज़र होती रही।

अक्स्नात् गाँव पर यह बज्रपात हुआ। पहले अनावृष्टि, फिर अन्न की कमी, तब मलेरिया और हैज़े ने मिलकर गाँव को भुनना शुरु कर दिया। गाँव प्राय: सूना हो चला था। घर के घर खाली पड़ गए थे। रोज़ दो-तीन लाशें उठने लगीं। लोगों में खलबली मची हुई थी। दिन भर कलरव, हाहाकार, हृदय-विदारक रुदन सुनाई पड़ता। लोग कँखते-कूँखते-कराहते अपने-अपने घरों से बाहर निकलकर अपने पड़ोसियों और आत्मीयों को ढाढस देते थे – “ अरे क्या करोगी रोकर, दुलहिन ? जो गया सो तो चला गया, वह तुम्हारा नहीं था; वह जो है, उसको तो देखो। ”

“ भैया! घर में मूर्दा रखकर कब तक रोओगे ? कफ़न ? कफ़न की क्या ज़्रुरत है, दे आओ नदी में। ”

किंतु सूर्यास्त होते ही जब लोग अपनी-अपनी झोपड़ियों में घुस जाते तो चूँ भे नहीं करते। पास में दम तोड़ते हुए पुत्र को अंतिम बार ‘ बेटा ’ कहकर पुकारने की भी हिम्मत माताओं की नहीं होती थी।

रात्रि की विभीषिका को सिर्फ़ पहलवान की ढोलक ही ललकारकर चुनौती देती रहती थी। पहलवान संध्या से सुबह तक, चाहे जिस ख़्याल से ढोलक बजाता हो; किंतु गाँव के अर्द्धमृत, औषधि-उपचार-पथ्य विहीन प्राणियों में वह संजीवनी शक्ति ही भरती ही रहती थी। बूढ़े-बच्चे-जवानों की शक्तिहीन आँखों के आगे दंगल का दृश्य नाचने लगता था। स्पंदन-शक्ति शून्य स्नायुओं भी बिजली दौड़ जाती थी।

अवश्य ही ढोलक की आवाज़ में न तो बुखार हटने का कोई गुण था और न ही महामारी को रोकने की शक्ति ही, पर इसमें संदेह नहीं कि मरते हुए प्राणियों को आँख मूँदते समय कोई तकलीफ़ नहीं होती थी, मृत्यु से वे डरते नहीं थे।

जिस दिन पहलवान के दोनों बेटे क्रूर काल की चपेटाघात में पड़े, असह्य वेदना से छटपटाते हुए दोनों ने कहा था, “ बाबा ! उठा पट्क दो वाला ताल बजाओ। ” सारी रात ढोलक पीटता रहा पहलवान। सुबह उसने देखा – उसके दोनों बेटे ज़मीन पर निस्पंद पड़े हैं। दोनों पेट के बल पड़े हुए थे। एक ने दाँत से थोड़ी मिट्टी खोद ली थी। एक लंबी साँस लेकर पहलवान ने मुस्कराने की चेष्टा की थी – “ दोनों बहादुर गिर पड़े। ”

उस दिन पहलवान ने राजा श्यामानंद की दी हुई रेशमी जाँघिया पहन ली। सारे शरीर पर मिट्टी मलकर थोड़ी कसरत की, फिर दोनों पुत्रों को कंधे पर लादकर नदी में बहा आया। लोगों ने सुना तो दंग रह गए।

किंतु रात में फिर पहलवान की ढोलक की आवाज़ प्रतिदिन की भाँति सुनाई पड़ी। लोगों की हिम्मत दुगुनी बढ़ गई। संतप्त पिता-माताओं ने कहा – “ दोनों पहलवान बेटे मर गए, पर पहलवान की हिम्मत तो देखो, डेढ़ हाथ का कलेज़ा है। ”

चार-पाँच दिनों के बाद। एक रात को ढोलक की आवाज़ नहीं सुनाई पड़ी। ढोलक नहीं बोली। लोगों ने देखा, पहलवान की लाश चित्त पड़ी है। आँसू पोंछते हुए एक शिष्य ने कहा – “ गुरु जी कहा करते थे कि जब मैं मर जाऊँ तो चिता पर मुझे चित्त नहीं , पेट के बल सुलाना। मैं ज़िंदगी में कभी ‘ चित्त ’ नहीं हुआ। और चिता सुलगाने के समय ढोलक बजा देना। ” वह आगे नहीं बोल सका।

‘ उषा ’

‘ उषा ’ कविता में भोरकालीन सौंदर्य के रंग-रूप वातावरण का सूक्ष्म चित्रण किया गया है। भोर से भी पहले आकाश का रंग ऐसा गहरा नीला होता है मानो कोई शंख हो। थोड़ी देर बाद उसमें नमी इस तरह साकार हो जाती है कि वह राख से लिपे चौके-सा प्रतीत होता है। कुछ देर बाद सूरजा की लाली उसमें ऐसे मिल जाती है कि वातावरण लाल केसर से धुली काली सिल जैसा जान पड़ता है। या यों लगता है मानो काली स्लेट पर किसी ने लाला खड़िया चाक मल दी हो। और कुछ देर बाद सूरज का प्रकाश प्रकट हो जाता है। तब आकाश में उगती हुई श्वेतता यों लगती है मानो नीले जल में किसी की गोरी देह झिलमिला रही हो। सूर्योदय होने पर उषा का सारा सौंदर्य समाप्त हो जाता है। इस प्रकार उषा का सौंदर्य पल-प्रतिपल बदलता रहता है।

‘ उषा ’ कविता में प्रकृति में होने वाला परिवर्तन मानवीय जीवन-चित्र बनकर अभिव्यक्त हुआ है। प्रस्तुत कविता ‘ उषा ’ सूर्योदय के ठीक पहले के पल-पल परिवर्तित प्रकृति का शब्द चित्र है। शमशेर ऐसे बिंबधर्मी कवि हैं, जिन्होंने प्रकृति की गति को शब्दों में बाँधने का अद्भुत प्रयास किया है। कवि भोर के आसमान का मूक द्रष्टा नहीं है। वह भोर की आसमानी गति को धरती के जीवन भरे हलचल से जोड़ने वाला स्रष्टा भी है। इसलिए वह सूर्योदय के साथ एक जीवंत परिवेश की कल्पना करता है जो गाँव की सुबह से जुड़ता है – वहाँ सिल है , राख से लीपा हुआ चौका है और है स्लेट की कालिमा पर चाक से रंग मलते अदृश्य बच्चों के नन्हें हाथ। यह एक ऐसे दिन की शुरुआत है, जहाँ रंग है, गति है और भविष्य की उजास है और हर कालिमा को चीरकर आने का एहसास कराती उषा।

कवि परिचय

शमशेर बहादुर सिंह

जन्म: १३ जनवरी, सन् १९११ को देहरादून में।

प्रकाशित रचनाएँ : कुछ कविताएँ, कुछ और कविताएँ, चुका भी हूँ नहीं मैं, इतने पास अपने, बात बोलेगी, काल तुझसे होड़ है मेरी, ‘ उर्दू-हिंदी कोश ’ का संपादन।

सम्मान : ‘ साहित्य अकादमी ’ तथा ‘ कबीर सम्मान ’ सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित।

निधन : सन् १९९३, दिल्ली में।

प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे

भोर का नभ

राख से लीपा हुआ चौका

( अभी गीला पड़ा है )

प्रात:कालीन आकाश का रंग शंख के समान गहरा नीला था। उसके बाद भोर हुई। भोर के समय नीला रंग थोड़ा मंद पड़ गया और वातावरण में नमी दिखाई पड़ने लगी। ऐसा लगा मानो आकाश न हो बल्कि राख से लीपा हुआ गीला चौका हो। नमी के कारण गीलापन था और रंग राख-सा गहरा था।

बहुत काली सिल ज़रा से लाल केसर से

कि जैसे धुल गई हो

स्लेट पर या लाल

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